अकर्मण्यता अभिशाप है

“आराम बड़ी चीज है’, “मुंह ढंक के सोइए’ अथवा “अजगर करे न चाकरी’ जैसे जुमले, कहावतें अकर्मण्यों के लिए ढाल का काम करती हैं। लेकिन हवा बिना आराम किए क्यों बहती रहती है? नदी क्यों नहीं रुकी? सूर्य, नक्षत्र, चन्द्र अविराम गति से क्यों चलते रहते हैं? पृथ्वी अपनी धुरी पर स्थिर क्यों नहीं है?

कर्म से कोई बच नहीं सकता। निर्विकल्प समाधि को भी “स्थिर-कर्म’ की संज्ञा दी गई है। अकर्मण्यता पौरुष नहीं, नपुसंकता का भी पर्याय है।

आज के घनघोर आपाधापी के युग में सिमटते विश्र्व में, बाजारवाद के निरंतर बढ़ते माहौल में, मनुष्य विरोधी सियासत में क्या मूकदर्शक बनकर ही हम बने रह सकते हैं, बिना कुछ किये?

माना कि अंधेरा बहुत है, रोशनी सदा के लिए कहीं दूर चली गई लगती है, आशा की भोर नजर नहीं आती। लेकिन ये सब सतह के नृत्य हैं। चिरस्थायी न तो अंधकार है, न प्रकाश। ज्ञान पर अज्ञान का आवरण ही हमें दिग्भ्रमित, किंकर्त्तव्यविमूढ किए रहता है। खाने वाला मुंह एक है, खिलाने वाले हाथ दो हैं। बेरोजगारी है, गलाकाट प्रतिस्पर्धाएं हैं, लेकिन जिन्होंने रास्ते तलाशे हैं, वे अंधी सुरंगों से भी गुजरे हैं।

बढ़ती जनसंख्या नित-नए रोजगार के साधन भी तो मुहैया कराती है। काम से मुंह चुराना कर्त्तव्य-पथ से विचलित होना, जमाने और परिजनों को कोसते रहना, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना समस्या का समाधान तो नहीं है। सही है कि मुर्दादिल लोग जीते नहीं, जीने का स्वांग करते हैं। निराशा उसे ही ज्यादा घेरती है, जो प्रमादी है, देह से स्वस्थ होकर भी जो मन का गुलाम है।

जीवन-यापन यद्यपि आज टेढ़ी खीर है, किन्तु आत्मदया या अकारण अपराध भाव से दंशित होकर जीवन से ही वितृष्णा का भाव रखने वाला व्यक्ति पलायनवादी या अकर्मण्य ही होता है।

“”होई है सोई, जो राम रचि राखा” जैसी अर्द्घालियों के भरोसे जीने वाले लोग ही अपना “मंत्र’ बनाकर लेटे रहते हैं। कर्म के घरघराते रथ के वेग को देखकर आंधी-तूफान ही नहीं, विधाता ही विघ्नहर हो जाते हैं। प्रगतिशील कवि श्री केदारनाथ अग्रवाल की कुछ काव्य पंक्तियां ऐसे में अचानक स्मरण हो जाती हैं –

“”राही गया बाट पर,

धोबी गया घाट पर,

मैं न गया बाट पर और घाट पर,

बैठा रहा टाट पर,

जीता रहा ओस चाट-चाटकर।”

ओस चाटकर जीने वाला व्यक्ति अकर्मण्य होता है, क्योंकि वह परामुखापेक्षी है। अपना कुआं व्यक्ति को स्वयं खोदना होता है। कूप-खनन की यह प्रिाया कभी-कभी हीरे-पन्नों का स्वामी भी आपको बना सकती है, सोचिए तो।

– डॉ. देवव्रत जोशी

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