अमेरिका पीछे, भारत आगे

भारत-अमेरिकी असैन्य परमाणु समझौते ने अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की मंजूरी के बाद इस दिशा में अपनी सबसे बड़ी बाधा को पार कर लिया है। सबसे बड़ी बाधा इसलिए कि इस सभा में किसी प्रस्ताव को पारित कराने के लिए दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। प्रस्ताव पर हुए मतदान में इस प्रस्ताव के पक्ष में दो तिहाई से कहीं अधिक मत प्राप्त हुए। अब इसे सिर्फ अमेरिकी सीनेट की मंजूरी की दरकार है, जिसे प्राप्त होने में किसी दिक्कत की बात नहीं सोची जा रही है। ऐसा सोचने के पीछे कारण यह है कि यहॉं इसे साधारण बहुमत के आधार पर पास होना है। अलावा इसके सीनेट की विदेशी मामलों की समिति इसे पहले ही अपनी स्वीकृति दे चुकी है। अतएव अब समझौता 123 को महज एक औपचारिकता मात्र का निर्वाह करना भर शेष रह गया है। ऐसा समझा जा रहा था कि 25 सितम्बर को वाशिंगटन में संपन्न होने वाली अमेरिकी राष्टपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश और भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की मुलाकात के दौरान इस महत्वाकांक्षी समझौते पर दोनों के हस्ताक्षर के बाद तीन साल पुराने समझौते को अंतिम रूप दे दिया जाएगा। लेकिन ऐसा कतिपय कारणों से संभव नहीं हो सका। अब माना यह जा रहा है कि अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडालिजा राइस के 3 अक्तूबर को प्रस्तावित भारत-दौरे के दौरान इसे आ़िखरी शक्ल दी जाएगी। यह और बात है कि इस महत्वाकांक्षी डील पर हस्ताक्षर बुश और मनमोहन के न होकर राइस तथा विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी के होंगे।

इस बीच एक और संभावना, जो किसी मायने में भारत-अमेरिकी परमाणु डील से कमतर नहीं आँकी जा सकती, भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रही है। संभावना यह है कि अमेरिकी डील होने के पहले ही असैन्य परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भारत और ाांस का तत्संबंधी व्यापारिक समझौता हो सकता है। ाांस के राष्टपति निकोलस सरकोजी का इस संबंध में बयान आया है कि उनका देश परमाणु सहयोग के मुद्दे पर भारत के साथ आगे बढ़ने की इच्छा रखता है और 30 सितम्बर को भारतीय प्रधानमंत्री की पेरिस यात्रा के दौरान इस समझौते को अमलीजामा पहनाया जा सकता है। ाांस ने इस संबंध में बहुत पहले ही भारत के साथ असैन्य परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आपसी व्यापार संबंध स्थापित करने की बात कही थी। उसे इंत़जार था तो बस इस संबंध में एनएसजी की मंजूरी मिलने का। यह मंजूरी हासिल करने में अमेरिका के बाद अगर किसी देश ने भारत के साथ सर्वाधिक सहयोग किया है तो वह ाांस ही है। वैसे भी परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में जो विशेषज्ञता ाांस को हासिल है, वह दुनिया के किसी अन्य देश के पास नहीं है। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि अपने घरेलू उपयोग में वह 80 प्रतिशत की खपत परमाणु ऊर्जा से करता है। उसके साथ समझौता भारत के लिए इस दृष्टि से भी लाभकारी है कि उसने इस समझौते के तहत किसी तरह की अतिरिक्त शर्तें थोपने का काम भी नहीं किया है। वह भारत को रियेक्टरों के लिए हर परिस्थिति में ईंधन आपूर्ति की निरंतरता के प्रति आश्र्वस्ति तो देता ही है, तत्संबंधी प्रत्येक सुविधा के साथ अपनी नवीनतम तकनीक ईपीआर देने को भी राजी है।

अतः ऐसा समझ में आता है कि असैन्य परमाणु के क्षेत्र में भारत के लिए वैश्र्विक व्यापार के दरवाजे अपने आप खुलते जा रहे हैं। यह और बात है कि भारत को इस मुकाम तक ला खड़ा करने का काम अमेरिका और उसके राष्टपति जॉर्ज बुश ने किया है, लेकिन व्यापार की पहल उसके जरिये न होकर ाांस के जरिये होने की संभावनायें ज्यादा मजबूत दिखाई देती हैं। अगर अमेरिकी कांग्रेस की अंतिम मंजूरी समय से मिल जाती तो यह समझौता निश्र्चित तौर पर 25 सितम्बर को अमेरिका के साथ ही हुआ होता। अब तो ऐसा लगता है कि विश्र्व के कई परमाणु शक्ति संपन्न देश भारत के साथ इस व्यापार के लिए उत्सुक हैं। ाांस और अमेरिका के बाद रूस भी कतार में खड़ा है। जिसके साथ इसी वर्ष प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दिसम्बर महीने में मास्को यात्रा के दौरान समझौता होने की संभावना प्रबल है। समझौते के प्रति उत्सुकता तो उस चीन ने भी दिखाई है जिसने कथित तौर पर एनएसजी बैठक में मिलने वाली मंजूरी को विफ़ल करने का प्रयास किया था। गऱज यह कि भारत अब अपने तीन दशक पुराने परमाणु वनवास से बाहर आ चुका है और इस क्षेत्र में उसके साथ सहयोग करने के लिए हर वह देश उत्सुक दिखाई दे रहा है जो प्रतिबंध के दौरान भारत से दूरी बनाये रखने का हिमायती था। यहॉं तक की हमारी यात्रा किसी भी सूरत में निरापद नहीं कही जा सकती। इसने राष्टीय-अन्तर्राष्टीय हर स्तर के विरोध का बड़ी दिलेरी के साथ मुकाबला किया है। एक समय तो ऐसा लग रहा था, जब संप्रग सरकार को समर्थन देने वाले वामपंथी दलों ने इसके खिलाफ अपना वीटो लगा दिया था कि इस महत्वाकांक्षी डील की असली जगह रद्दी की टोकरी ही है। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दृढ़ता ने सारी विपरीतताओं को झेलते हुए भी इसे इसके अंजाम तक पहुँचा कर ही दम लिया। घरेलू स्तर पर हालॉंकि विरोध की धार अब भी उतनी ही तेज है, लेकिन ाांस, रूस और कई अन्य देशों के साथ इस क्षेत्र में संभावित समझौतों के आइने में यह तो कहा ही जा सकता है कि भारत ने इसे हासिल करने के लिए अपनी विदेश नीति और राष्टीय स्वाभिमान को गिरवी नहीं रखा है। इसे भारतीय प्रधानमंत्री की कूटनीतिक विजय ही मानना होगा कि अब अमेरिका पीछे है और भारत आगे।

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