अलगाववादियों की भाषा बोलते उमर अब्दुल्ला

नेशनल कानेंस के अध्यक्ष और सांसद उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि कश्मीर में प्रदर्शनकारियों के खिलाफ अगर भारत सरकार ने दमनात्मक कार्रवाई बंद नहीं की तो वे अपने सांसद पद से इस्तीफा दे देंगे। यह वही उमर अब्दुल्ला हैं जिन्होंने कुछ ही दिन पहले सरकार के विश्र्वासमत हासिल करने के प्रस्ताव के दौरान बड़े फख्र के साथ घोषित किया था कि वे कश्मीरी तो हैं लेकिन उसके पहले भारतीय भी हैं। लेकिन कश्मीरी अलगाववादियों की एक ही धमकी ने उन्हें अपनी औकात बता दी। उन्होंने कश्मीर घाटी में अलगाववादियों के “आ़जाद कश्मीर’ आंदोलन को समर्थन तो नहीं दिया है, लेकिन उनकी इस्तीफे की धमकी भी इस मुद्दे पर समर्थन ही मानी जाएगी। यह धमकी भी हुर्रियत कानेंस की उस धमकी की बाद आई है जिसके तहत कट्टरपंथी गुट के नेता ने भारत समर्थक सभी पार्टियों के कश्मीरी नेताओं को अपने-अपने पदों से इस्तीफा देने अथवा परिणाम भुगतने को कहा है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन के मुद्दे पर जो आंदोलन पिछले दिनों व़जूद में आया है, उसने हुर्रियत के अलगाववादी नेताओं का वर्चस्व लगभग पूरी घाटी पर स्थापित कर दिया है और लगभग सभी राजनीतिक दलों के स्थापित नेताओं को हाशिये पर डाल दिया गया है। ऐसे में उनके सामने इन भारत-विरोधी अलगाववादियों के सामने आत्मसमर्पण के सिवा कोई विकल्प भी नहीं रह गया है। उमर अब्दुल्ला भी उनमें एक हैं। अब वे इस वक्तव्य के बाद सिर्फ कश्मीरी रह गये हैं, भारतीय नहीं।

उमर अब्दुल्ला ने अपने बयान में यह भी कहा है कि “समन्वय समिति और संघर्ष समिति के बीच बातचीत टिकाऊ होनी चाहिए, ताकि स्वीकार्य समाधान खोजा जा सके।’ निश्र्चित रूप से उनका इशारा जम्मू संभाग में कतिपय हिन्दू संगठनों द्वारा चलाये जा रहे अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आवंटित भूमि के पुनर्वापसी के आंदोलन की ही ओर है। उमर अब्दुल्ला को यह भी याद होगा कि वह संसद में दिये गये उसी भाषण में यह जुमला भी उछाल चुके हैं कि वे जान तो दे सकते हैं लेकिन जमीन नहीं दे सकते। इस तरह का भाषण करते समय वे संप्रग सरकार के खेमे में खड़े थे, संभवतः इसीलिए वे अपने पक्ष की तालियां भी बटोर ले गये और किसी ने उनके इस भाषण के ़खतरनाक पहलू की ओर या तो ध्यान नहीं दिया या तवज्जो नहीं दी। लेकिन भारतीय होने की कसम खाते उन्हें खुद यह सोचना है कि तब संसद में उन्होंने जो कुछ कहा उससे कट्टरपंथी अलगाववादियों की भाषा किस मायने में अलग है। जमीन न देने की बात तो अलगाववादी भी कर रहे हैं। बल्कि उमर अब्दुल्ला बाद में कह रहे हैं, अलगावादी पहले से कह रहे हैं। इस हालत में यह मानना गलत न होगा कि कश्मीर घाटी की राजनीति में किसी राजनीतिक दल अथवा उसके किसी नेता की कोई हैसियत अब नहीं रह गई है। उन्हें अगर अपने को राजनीतिक रूप से जिन्दा रखना है तो हर हाल में अलगावादियों के पीछे कतार में खड़ा होना होगा।

यह हालत सिर्फ नेशनल कानेन्स और उसके नेताओं की ही नहीं है, घाटी की राजनीति से ताल्लुक रखने वाली हर पार्टी के हर नेता की है। अलगाववादी जमातों ने स्पष्ट घोषणा कर दी है कि घाटी से ताल्लुक रखने वाले सभी सांसद और विधायक इस्तीफा दे दें। ऐसा न करने पर उनका सामाजिक बहिष्कार करने का भी ऐलान किया गया है। लेकिन यह बहिष्कार कितना खतरनाक है उसका जायजा इस बात से लिया जा सकता है कि “मुजफ्फराबाद चलो’ कूच के दौरान भीड़ ने हर उस नेता के घर पर हमला कर तोड़-फोड़ और आगजनी की, जो भारत समर्थक माना जाता है। औरों की बात तो छोड़ दी जाए, पीडीपी जो इस मुहिम में अलगाववादियों के साथ कदमताल कर रही है, उसके भी नेता और सुप्रीमो मुफ्ती मुहम्मद सईद के अनन्तनाग स्थित घर को आन्दोलनकारियों ने आग के हवाले कर दिया। मकसद सिर्फ एक ही है कि वे अक्तूबर-नवम्बर के विधानसभा चुनाव का पूर्ण बहिष्कार करा कर दुनिया को दिखाना चाहते हैं कि कश्मीर का अवाम भारत की सरपरस्ती नहीं चाहता है और सरकार अपनी दमनात्मक कार्यवाहियों के जरिये कश्मीरी अवाम की आ़जादी को रौंद रही है। इसका सबसे दुःखद पहलू यह है कि भारत सरकार ने ़खुद अपनी ढुलमुल नीतियों के चलते हालात को इस कदर खतरनाक बनाया है। यह सही है कि घाटी के अलगाववादियों और दहशतगर्द जमातों की सरपरस्ती पाकिस्तान कर रहा है, मगर यह भी सही है कि इस वास्तविकता से परिचित होते हुए भी भारत सरकार ने नीतिगत फैसलों में बला की नासमझी बरती है। उमर अब्दुल्ला जैसे लोगों को भी अब वही भाषा बोलनी पड़ रही है जो अलगाववादी बोल रहे हैं।

अलगाववादियों ने बड़ी सूझबूझ के साथ सरकार द्वारा श्राइन बोर्ड को आवंटित भूमि के मुद्दे को इस्तेमाल किया। उनके प्रचार तंत्र ने इसे मुस्लिम-विरोधी और कश्मीर-विरोधी कह कर प्रचारित ही नहीं किया, एक प्रचंड आंदोलन के तहत राज्य सरकार और केन्द्र सरकार को घुटने टेकने को मजबूर भी कर दिया। सरकार ने पूर्व में किये गये अपने फैसले को वापस तो ले लिया लेकिन उसे यह कयास नहीं था कि घाटी के आंदोलन को शांत करने की कोशिश में जम्मू जलने लगेगा। सरकार का प्रचार तंत्र इतना कमजोर है कि वह लोगों को यह भी नहीं बता सका कि जिस जमीन की बाबत उमर अब्दुल्ला जैसे लोग जान देने की बात कह रहे हैं, वह आवंटित नहीं की जा रही है, बल्कि सिर्फ दो महीनों के लिए यात्री-सुविधाओं के तौर पर इसका अस्थाई इस्तेमाल होगा।

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