कहॉं हमारे ग्रामीण कृषक और कहॉं कृषि विज्ञान

हमारी राष्टपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने कृषकों और महिलाओं के विकास के लिए उपयोगी जो महत्वपूर्ण उपाय सुझाए हैं उनमें एक प्रमुख उपाय यह है कि कृषि अनुसंधान संस्थानों और कृषि विश्र्वविद्यालयों में शोध द्वारा खोजी जाने वाली खेती की नई तकनीकें ग्रामों के कृषकों को सिखाई जाएं, उनका ज्ञान और कौशल इस कदर विकसित किया जाए कि उसके सहारे वे कृषि में सुधार ला सकें, अपना जीवन स्तर सुधार सकें। इस प्रकार एक और हरित ाांति आ जाए। क्योंकि कृषि एक ऐसा मुद्दा है, जिसे आगे के लिए टाला नहीं जा सकता।

यद्यपि यह सुझाव सुनने में सरल लगता है, तो भी कार्यान्वयन में उतना सरल नहीं हो सकता। जरा सोचें कि यह क्यों सरल नहीं है। सबसे बड़ा रोड़ा शायद यह है कि हमारे ग्रामीण कृषकों में से बहुत बड़ा प्रतिशत या तो अल्पशिक्षित है या निरक्षर है। इसलिए पत्र-पत्रिकाओं में कृषि संबंधी जो लेख या फीचर समय-समय पर प्रकाशित होते हैं उनका लाभ ये सामान्य किसान भाई नहीं उठा पाते। यह दुर्दशा हिन्दी भाषी क्षेत्रों में अधिक घनीभूत पाई जाती है।

दूसरी कठिनाई यह है कि यद्यपि अंग्रेज चले गए तो भी अंग्रेजी आज भी हमारी उच्च शिक्षा का और अनुसंधान का मुख्य माध्यम बनी हुई है। कृषि संस्थानों और कृषि विश्र्वविद्यालयों के कृषि वैज्ञानिक अध्यापन और शोध की अपनी सारी सामग्री अंग्रेजी में ही तैयार करते हैं। वे अपनी बात अल्पशिक्षित या निरक्षर कृषकों के समक्ष मौखिक रूप से प्रस्तुत करने में भी पूर्णतः सफल नहीं हो पाते। या तो वे अंग्रेजी के शब्दों का बीच-बीच में प्रयोग करते हैं, नहीं तो प्रांतीय भाषा के ऐसे पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग बीच-बीच में करते हैं जिनको सुनकर हमारे ग्रामीण किसान अवाक् रह जाते हैं। ये पारिभाषिक शब्द भी उनके लिए वैसे ही कठिन लगते हैं जैसे उनके अंग्रेजी पर्याय। एक समस्या यह भी है कि मुख्यतः अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हुए होने के कारण हमारे कृषि वैज्ञानिक हमारे आम ग्रामीण किसानों से हिल-मिल नहीं पाते। एक प्रकार की मानसिक दूरी बनी रहती है। इसलिए आम ग्रामीण किसान अपनी कोई समस्या लेकर कृषि अनुसंधान केन्द्र या कृषि विश्र्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक के पास जाने का साहस भी नहीं कर सकते। अंग्रेजी की दीवार दोनों को अलग किए हुए है।

केरल जैसे राज्यों में हर पंचायत में एक-एक कृषि भवन खुला है, जहॉं कृषि विज्ञान के स्नातकों को कृषि अधिकारी के पद पर नियुक्त किया जाता है। कृषि अधिकारी के अधीन दो-दो, तीन-तीन ऐसे कृषि सहायक भी नियुक्त किए जाते हैं जो कृषि विज्ञान में दो-तीन वर्षों का पाठ्याम किए हुए होते हैं। इनका मुख्य दायित्व ही ग्रामीण कृषकों तक कृषि की नई तकनीक पहुँचाना है। उनका ज्ञान और कौशल बढ़ाना है। पर आए दिन विविध परियोजनाओं के अंतर्गत कृषकों को देय सब्सिडी का वितरण ही उनका मुख्य कार्य बन जाता है। कृषक भी प्रायः यही जानने के लिए कृषि अधिकारी या कृषि सहायक से मिलते हैं कि उन्हें किन-किन परियोजनाओं के अंतर्गत कितनी रकम सब्सिडी स्वरूप मिल सकती है।

कृषि भवनों की निगरानी में हर वार्ड में एग्रो क्लिनिक खोलने का भी निर्देश कृषि विभाग की ओर से दिया जाता है। इसके पीछे यह संकल्पना है कि हफ्ते में किसी निश्र्चित दिवस पर, निश्र्चित समय पर बारी-बारी से इन क्लिनिकों में कृषि भवन के कार्मिकों और स्थानीय कृषकों का मिलन और संवाद हो। यह योजना भी वहीं सफल हो सकती है, जहॉं कम से कम चार-पॉंच पढ़े-लिखे, जिज्ञासु, जागरूक, उत्साही व प्रगतिशील कृषक आगे आएं।

राष्टपति का स्वप्न साकार करने का सबसे कारगर उपाय शायद यही होगा कि टीवी के किसी-किसी चैनल पर कृषि प्रसार या कृषि विस्तार के ऐसे कार्याम नियमित रूप से संप्रेषित एवं प्रसारित किए जाएं जो उपयोगी हों, रोचक हों और सरल हों। वैसे तो रेडियो पर कभी-कभी कृषि संबंधी भाषण, चर्चाएं आदि कार्याम प्रसारित किए जाते हैं। पर चूंकि ये केवल श्रव्य हैं इसलिए उतने प्रभावी और रोचक नहीं लगते जितने टीवी के दृश्य-श्रव्य कार्याम हो सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि टीवी पर कृषि विस्तार के लिए उपयुक्त सिप्ट तैयार करने के लिए कृषि वैज्ञानिकों और कृषि विस्तार अधिकारियों को पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाए। कभी-कभी कृषि संबंधी “फोन इन’ कार्याम का भी आयोजन टीवी और रेडियो पर किया जाए तो जिज्ञासु कृषक अपनी शंकाओं का समाधान तत्काल कर सकते हैं और इसका लाभ समस्त श्रोताओं को भी पहुँच सकता है।

 

– के. जी. बालकृष्ण पिल्लै

 

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