कुर्सी की महिमा

इस कुर्सीप्रधान देश में राजनीति करना या कराना बहुत कठिन श्रमसाध्य काम है। जहॉं कुर्सी है वहॉं पर राजनीति है और जहॉं पर राजनीति है वहॉं पर कुर्सी का होना नितान्त आवश्यक है। चारों तरफ कुर्सियां हैं और राजनीति के दलदल में कुर्सी रूपी कमल खिल रहा है। कुर्सी कीचड़ में फंसी पड़ी है और राजनीति के आवारा सांड़ इस कुर्सी को धकेल रहे हैं। चार पायों की यह छोटी-सी चीज सबको नचाने की क्षमता रखती है। कुर्सी पाना एक बात है और कुर्सी को बचाए रखना दूसरी बात है। कुर्सी बचाने के लिए राजनीति करनी पड़ती है और राजनीति करने के लिए कुर्सी आवश्यक है। बिना कुर्सी के राजनीति यानी बिना दुल्हन के फेरे।

कुर्सी की चमक-दमक और राजनीति का तड़का, क्या कहने! कुर्सी वैसे तो व्यक्ति के नीचे होती है लेकिन जब मिल जाती है तो सर पर चढ़ कर बोलती है और ऐसी बोलती है कि राजनीति के रणनीतिकारों की घिग्घियां बंध जाती हैं।

कुर्सी भूतपूर्व होते ही राजनीति भी भूतपूर्व हो जाती है। भूतपूर्व प्रधानमंत्रियों की राजनीति को कोई नहीं पूछता। बेचारों को सात रेसकोर्स रोड की याद सताती रहती है। वहॉं की कुर्सी के क्या कहने! वहॉं की राजनीति के क्या कहने! कोशिश तो फेविस्टिक से चिपक कर बैठने की करते हैं मगर कुर्सी महाठगिनी है। महामाया है। सबको कुलटा की तरह छोड़ कर चली जाती है। कुर्सी का धर्म और राजनीति का धर्म वेश्या-धर्म की तरह है, जब तक दम-खम है, चिपके रहो। कुर्सी किसी की सगी नहीं है यारों। कुर्सी को कसकर पकड़े रहो, इसी के सहारे घटिया राजनीति करो, जेल जाने से बचो। हत्या, बलात्कार, अपहरण भी बचाती है कुर्सी।

हेडलेस चूजों के इस दौर में कुर्सी ही सबसे ताकतवर हेड है जो हेड पर चढ़ कर, बोल-बोलकर नीचे वालों की बोलती बन्द कर देती है। राजनीति घृणा का व्यापार है और कुर्सी पर बैठा आदमी इस व्यापार का साहूकार है, बाकी सब चोर, उचक्के, जेबकतरे हैं। कुर्सी नेता के लिए, मछली के पानी की तरह है-बिन कुर्सी सब सून…। शिक्षा के क्षेत्र में कुर्सी का क्या कहना। एक राज्य में यौन शिक्षा शुरू करने के सरकारी आदेशों की ऐसी पालना की गई कि शिक्षा संकुल में ही यौन शिक्षा के लिए प्रयोगशाला स्थापित कर दी गई। सभी उपकरण एक साथ एक ही जगह पर उपलब्ध थे। राजनीति करो, स्थानान्तरण करो, प्रयोगशाला में प्रयोग करो। बस कुर्सी को बचाओ, राजनीति को बचाओ। शिक्षा और यौन शिक्षा का अनुपम उदाहरण दे गई कुर्सी की राजनीति।

जहॉं तक मेरी जानकारी है, कुर्सी और राजनीति दोनों ही स्त्रीलिंग है कुर्सी का विकल्प नहीं और राजनीति का भी विकल्प नहीं। कुर्सी है तो व्यक्ति ताकतवर, मजबूत, सुन्दर, धनवान, कान्तिवान सब कुछ है। कुर्सी से ऊँची कोई चीज नहीं होती है। इस देश में कुर्सी ही असीम है, उसकी कोई सीमा नहीं होती है। सीमा समाप्त होते ही नई कुर्सी की सीमा शुरू हो जाती है।

राजनीति कुर्सी को निगल जाती है और कुर्सी राजनीति को खा जाती है। कुर्सी परम माया है। सत्कर्म पर मिलती है कुर्सी। राजनीति कठोर होकर कुर्सी को पकड़ती है और कुर्सी पिघलकर राजनीति करती है। कुर्सी नरम भी हो जाती है। कुर्सी खतरनाक आतंकवादी भी हो जाती है। हर कुर्सी तानाशाह हो जाती है, खूनी हो जाती है, भूखी हो जाती है। राजनीति भी खूनी, भूखी और तानाशाही हो जाती है।

कुर्सीप्रधान देश में कुर्सी कहॉं नहीं है। जहॉं कुर्सी नहीं है वहॉं पर कोई जाना भी पसन्द नहीं करता। मुझे कुर्सी चाहिये। छोटी-बड़ी, बांकी, तिरछी किसी भी प्रकार की कुर्सी कहीं भी मिले, बैठने वाले तैयार खड़े हैं। कुर्सी के हत्थे उखाड़ने वाले हाथों में हथौड़ा लेकर खड़े हैं। कुर्सी की टांगें खीचने वाले योद्घा गीता सुनकर गाण्डीव ताने खड़े हैं। कुर्सी बड़भागी है। कुर्सी की राजनीति हतभागी है। लोग अपनी आत्मा को मारकर कुर्सी पर बैठने का, कुर्सी पर बैठ कर आत्मचिन्तन का नाटक कर रहे हैं। कुर्सी पर बैठ कर लाशों की राजनीति कर रहे हैं। भगवान बनकर बैठे हैं कुर्सी पर, मंत्री बनकर बैठे हैं कुर्सी पर, अफसर बनकर बैठे हैं कुर्सी पर। उद्योगपति, डायरेक्टर, चेयरमैन बनकर बैठे हैं कुर्सी पर और सब कुछ छीनने को आतुर हैं।

कुर्सी है तो सब है। मॉं-बाप, भाई, बहन, बेटे, दामाद, पुत्रवधुएं, कुलवधुएं सब अपने हैं। कुर्सी छिनी तो सब पराये। कुर्सी काल तो बैठने वाले महाकाल। कुर्सी के बिना सद्गति संभव नहीं है।

हे कुर्सी देवी! राजनीति के इस भयानक जंगल में कब तक जलोगी। किसी सुरक्षित स्थान पर चली जाओ। प्रजातंत्र का कुछ भरोसा नहीं, कहीं तुम्हें ही न खा जाये।

– यशवन्त कोठारी

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