गुफ्तगू एक बू़ढे मकान से

मकान मुझे देखकर मुस्कुराया। आखिर क्यों न मुस्कुराता? कितने दिनों बाद कोई उसके आंगन में आया था। किसी के आने से किसी को कितनी खुशी होती है, यह उससे पूछिए जो अपने ही घर में अकेला रह गया हो। मैंने उस सुनसान और अंधेरे मकान में पांव रखा, तो आंगन में खड़ा वह पुराना पेड़ भी चौंककर अपनी पत्तियां बजाने लगा।

बाजार से गुजरते हुए एक मकान पर नजर पड़ती है। करीब पंद्रह-बीस सालों से यह मकान खाली पड़ा है। इस व्यस्त और चहलकदमी से भरे हुए बाजार के माहौल में इस तरह खाली पड़ा हुआ यह मकान मेरा ध्यान कई बार खींच चुका है। मकान की उम्र कोई सौ साल होगी।

पुराने जमाने के बड़े-बड़े दरवाजों वाला यह मकान अभी कमजोर नहीं हुआ था। दीवारें जर्जर नहीं हुई थीं। पुराने लोग बड़ी मजबूत दीवारें बनाया करते थे, फिर वह चाहे मकानों की हों या भेदभावों की। शीशम की लकड़ी के दरवाजे इतने भारी-भरकम कि उसके सामने अपने जमाने के दरवाजे भी खिड़की की हैसियत के मालूम हों। उन विशाल दरवाजों पर लोहे की जंजीरनुमा सांकल लगी हुई है। बड़े दरवाजे के एक पल्ले में एक छोटा-सा दरवाजा और है, इसके रहते बड़े दरवाजे को पूरा खोलना नहीं पड़ता। आने-जाने का रोजमर्रा वाला काम इसी से चल जाता है।

इस तरह के दरवाजे भी मुझे सोच में डुबो देते हैं। छोटा दरवाजा बड़े दरवाजे की गोद में ऐसा ही लगता है, जैसे मादा कंगारु के पेट में लगी थैली में छोटा-सा शिशु कंगारु बैठा हुआ हो। इस मकान के पास एक पुराना पीपल का पेड़ भी है जिसके नीचे ओटला बना हुआ है। इसके आसपास बाजार पसरा रहता है। यहां ज्यादातर दुकानें हैं। कई दुकानों में ऊपर के हिस्से में रहवासी इंतजाम भी हैं, परंतु ज्यादातर मकानों में दुकानें हैं या ऊपरी अथवा पिछले हिस्सों में गोदाम। कई बार उस खाली मकान को देखकर मुझेे लगता है कि यह मकान मुझे बुला रहा है। यह कुछ कहता हुआ लगता था, मगर उसकी भाषा मुझे समझ में नहीं आती थी। आखिर एक रात मैं उस मकान में था। वस्तुतः मैं उस मकान में था या वह मकान मेरे सपने में था, यह बात उस रात कहनी मुश्किल थी और अब जबकि मैं उस रात की बात कह रहा हूँ तो इस बात से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ रहा है कि कौन कहां था!

आधी रात का वक्त था। चांद खाली बाजार पर अपनी चांदनी खर्च कर रहा था। मुझे उसकी मूर्खता पर हंसी आई। जिन सड़कों पर स्टीट लाइट के बड़े-बड़े वेपर लैंप रोशनी बिखेर रहे हों, वहां वह क्यों अपनी चांदनी बिगाड़ रहा है? इस वक्त सड़कें स्टीट लाइट की रोशनी से इस कदर तर थीं कि उसमें चांदनी किसी बंजारा युवती की तरह सकुचाई हुई एक तरफ सिमट कर खड़ी हुई-सी लग रही थी।

सड़कों पर इस वक्त खर्च की जा रही रोशनी का चौकीदार जरुर उपयोग कर रहा था, लेकिन चांद जिस बाजार की सड़कों पर अपनी चांदनी खर्च कर रहा था, उसमें क्या रा़ज होगा? मुझे अब समझ में आया कि ज्योतिष शास्त्र ने चांद को मनुष्य के मन का प्रतीक क्यों माना है। हम भी जिन बाजारों में अपने आपको खर्च करते रहते हैं, उन बाजारों से अपने घरों में कितनी परछाइयां ले आते हैं? राजा हरिश्र्चन्द्र ने अपने सत्य के लिए स्वयं को जिस बाजार में बेचा था, उस बाजार को हम खरीदने का सपना लेकर कब से खुद खर्च हुए जा रहे हैं?

इसके बाद भी क्या हम अपना सत्य बचा पा रहे हैं? खाली सड़कों पर बाजार की हिफाजत में खड़ी रोशनी को पता नहीं होता है कि वह जिन झोंपड़ियों में बुढ़ा चुकी है, उनमें भूख की पिशाचिनी कैसा गंदा नाच नाच रही है। यह सब सोचते हुए मैं उस मकान के सामने खड़ा था।

मकान मुझे देखकर मुस्कुराया। आखिर क्यों न मुस्कुराता? कितने दिनों बाद कोई उसके आंगन में आया था। किसी के आने से किसी को कितनी खुशी होती है, यह उससे पूछिए जो अपने ही घर में अकेला रह गया हो। मैंने उस सुनसान और अंधेरे मकान में पांव रखा, तो आंगन में खड़ा वह पुराना पेड़ भी चौंककर अपनी पत्तियां बजाने लगा। मैं उसे आश्र्वस्त करने के लिए जरा मुस्कुरा दिया। सपने में मुस्कुराना और सच में मुस्कुराना दोनों अलग-अलग बातें हैं, सोते हुए बच्चे जब कभी सपनों में मुस्कुराते हैं तो कितने सुंदर लगते हैं?

वह पेड़ भी मुझे देखकर मुस्कुराया। धीरे-धीरे हमारे बीच का संकोच दूर होता जा रहा था। खाली मकान की एक दीवार पर से पलस्तर उखड़ा हुआ था। मैंने उसे उसी जगह छुआ तो मकान की एक ठंडी आह मुझे सुनाई दी। मैंने उससे पूछा, “”बहुत दुःखी हो?” यह सुनकर वह मकान एक फीकी हंसी हंसते हुए बोला, “”दुःखी…? सच कहूं, दुःख और सुख इन दोनों शब्दों पर से अर्थ की जो परछाइयां हमारी चेतना पर पड़ती हैं, उसका अनुभव इतना झूठा है कि मेरे लिए ये शब्द कोरे शब्द भर रह गए हैं।

मुझे इनकी सूरत और आचरण दोनों में कोई अंतर नहीं लगता। पर न जाने क्यों, आज जब तुमसे बातें कर रहा हूं, तो लगता है कि वह परछाइयां भले ही मिट गई हों, पर सुख और दुःख के दो बड़े-बड़े पत्थर कहीं भीतर पिघल कर लावा बन गए। इनकी मिली-जुली हलचल तुम्हारे बहाने बाहर निकलने का रास्ता पा रही है। मुझे डर है कि कहीं कोई विस्फोट न हो जाए।

जैसे ज्वालामुखी पर्वत एक दिन फूट पड़ता है और उसका पूरा जलता हुआ लावा चारों तरफ बिखर जाता है, उसी प्रकार एक घर के भीतर से भी उसकी दीवारों में संचित सुख-दुःख का लावा भी कहीं फूट पड़े, तो क्या हो? प्रकृति ने पहाड़ों की तरह फट कर अपने-अपने ज्वालामुखी खोलने की सुविधा सभी को कहां दी है? एक मकान की मुक्ति तो ध्वस्त होकर भी नहीं होती। उसकी बुनियाद पर फिर कोई अपने-अपने सुख-दुःख का काफिला लेकर चला आता है। अंतहीन सिलसिला है यह।”

मुझे उस मकान की बातें सच लग रही थीं। आज जाग कर सोचता हूं कि सपनों में सच किस तरह खुल जाते हैं? हम जागृत रहते हुए जो सपने बुनते हैं, उनकी सच्चाई तो उन्हीं सपनों में पर्त-दर-पर्त खुलती है, जिन्हें मनुष्य झूठा समझता है या कोरी बीती हुई स्मृतियों के बिंब मानता है। मेरी चेतना पर एक ऊनींदापन छा रहा है। इस उनींदेपन के बिना उस खाली मकान से मेरा संवाद नहीं हो सकता। मुझे उस मकान की हंसी अपने ऊपर छाती हुई लगी।

वह कह रहा था, “”कई साल हुए, मुझमें अब कोई नहीं रहता, परंतु गर्मियों की दोपहर में अल्हड़ हवाएं अपनी सहेलियों के साथ अक्सर यहां आ धमकती हैं। इस खाली मकान में वह इतनी धमा-चौकड़ी मचाती हैं कि मेरा सारा सूनापन हर लेती हैं। वह कभी मेरे दरवाजे हिलाती हैं, कभी खिड़कियां झकझोरती हैं। कभी सांकलें बजाती हैं, कभी जब इस घर में मालिक रहते थे, तब गर्मियों की छुट्टियों में उनके लड़के-लड़कियां और नाती-पोते भी अपने-अपने दोस्तदारों के साथ इसी तरह धमा-चौकड़ी मचाते थे, तो मालिक गुस्सा होते थे।

कभी मालकिन डांटती थीं, पर बच्चे किसी की नहीं सुनते थे। उनका आंगन के पेड़ पर चढ़ना और छत पर से कूदना, दरवाजों के पीछे छिपना और खिड़कियों से कूद-फांद कर निकलना मुझे बहुत सुहाता था। कितनी रौनक हुआ करती थी तब। पूरा घर भरा-भरा लगता था। अब खाली घर में जब ये हवाएं अपनी अल्हड़ता में वही सब करती हैं, तो मुझे उन बच्चों की याद आती है। ये हवाएं मेरा सूनापन हरने के लिए आती हैं, यही मेरे अकेलेपन की साथी हैं। अब इनके साथ बजता हूँ, हिलता-डोलता हूँ, तो मेरी उदासी उसी तरह झर जाती है, जैसे मेरे उस पुराने साथी पीपल के पीले पत्ते तेज हवाओं में झड़ जाते हैं।

मैंने देखा, सुखद यादों में डूबे हुए बूढ़े मकान की रंगत पर कुछ खुशी की चमक बढ़ गई है। उसका फीका पड़ चुका रंग इतना फीका नहीं लग रहा था। मैंने उसकी सुखद स्मृति को छेड़ते हुए पूछा, “”न जाने इन सौ सालों में कितना कुछ तुमने देखा- महसूसा और अपने मन में कितना कुछ संजोया होगा।” यह सुनकर वह बूढ़ा मकान फिर हंसा। आदमी की तरह मकान की भी स्मृतियां होती हैं। उसके भीतर का वास्तु पौरुष अपनी दीवारों के कानों से सब कुछ सुनता है। वह अपनी ईशान्य दिशा में बैठा हुआ प्रतीक्षा करता रहता है कि कोई मनुष्य उस घर में आकर घर का देवत्व पा ले। उसकी सीढ़ियां ऊपर उठने और उन्नति का आह्वान लिए मनुष्य का इंतजार करती हैं, परंतु आदमी अपना सब कुछ आग्नेय और वायव्य में खपाते हुए भूल जाता है कि उसके दुःख-सुख, दर्द और दवाएं, उसकी नफरतें और उसका प्रेम, उसकी हर एक धड़कन घर की दीवारों की ईंटों में समाई रहती है। उसकी पूजा और प्रार्थनाएं मकान की आत्मा में चंदन की तरह महकती हैं और मकान को घर में बदल देने वाली परम पावनी प्रेम की गंगाजलि उसकी सांसों में जीवन का वेग बनकर मनुष्य का जन्म सफल कर देती है।

– गोविन्द कुमार गुंजन

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