चिंकित्सा कारोबार कंपनियों की गिरफ्त में डॉक्टर

यह एक बुरी खबर है। बहुराष्टीय कंपनियों के लिए तो यह शुभ समाचार है, लेकिन देश के लिए और देश की जनता के लिए बुरा संकेत है। यह देश-हित व जन-हित पर बहुराष्टीय स्वार्थों की एक और जीत है।

खबर यह है कि देश के चिकित्सकों के सबसे बड़े संगठन “इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ यानी भारतीय चिकित्सा संघ ने अमेरिकी कंपनी पेप्सीको के एक पेय और एक खाद्य पदार्थ को स्वास्थ्य के लिए अच्छा बताते हुए, उसका समर्थन करने का फैसला किया है। और अब तो टी. वी., अखबारों में तथा राजमार्गों पर लगे विज्ञापन-पटों और कंपनी के पैकेटों पर इस संस्था के पदाधिकारी इनका प्रचार करते हुए दिखाई भी देने लगे हैं।

यह एक कंपनी के ब्रांड विशेष का डॉक्टरों द्वारा प्रचार करने की शुरुआत है। अभी तक यह माना जाता था कि डॉक्टरों या उनके संगठनों को किसी कंपनी के किसी खास उत्पाद का प्रचार करने की मनाही है। चिकित्सक का जो पेशा समाज में सम्मान एवं प्रतिष्ठा का पात्र हुआ करता था, उसके बाजारीकरण, व्यावसायीकरण, कंपनीकरण के पतन का यह एक नया चरण है।

विडंबना यह है कि अमेरिका की पेप्सीको और कोका-कोला नामक इन दो कंपनियों का मुख्य धंधा पूरी दुनिया में शीतल-पेय बेचने का है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए काफी नुकसानदेह माने गये हैं। दिल्ली स्थित विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र ने कुछ सालों पहले यह भी उजागर किया था कि भारत जैसे गरीब देशों में इनकी बोतलों में कीटनाशकों की मात्रा यूरोपीय मापदंडों से ज्यादा रहती है। यानी भारत जैसे गरीब देशों की जनता को ज्यादा अशुद्घ और ज्यादा नुकसानदेह चीजें खिलाने में इन कंपनियों को कोई हर्ज नहीं दिखाई देता। कंपनियों की कोई नैतिकता नहीं होती, मुनाफा ही उनके लिए सर्वोपरि होता है। ऐसी कंपनियों के पक्ष में प्रचार करने के लिए उतरने का फैसला करके भारतीय चिकित्सा संघ ने बहुत बड़ी भूल की है।

पेप्सीको कंपनी के दो उत्पादों को इस संघ ने समर्थन देने का फैसला किया है। उनमें एक टोपिकाना ब्रांड का फलों का रस और दूसरा जई का बना हुआ क्वेकर नामक खाद्य-पदार्थ है। टोपिकाना अमेरिका में फलों के जूस का एक बहुत पुराना ब्रांड है। इसकी शुरुआत 1947 में हुई थी। अमेरिका की दुकानों में सबसे ज्यादा बिकने वाली वस्तुओं में यह तीसरे नंबर पर है। मुख्य रूप से संतरे, अनन्नास और सेब का रस इस नाम से बेचा जाता था, अपना कारोबारी साम्राज्य फैलाने की प्रिाया में अगस्त, 1998 में पेप्सीको ने इसे खरीद लिया। कुछ साल पहले इस कंपनी ने भारत में भी फलों का रस पैक करके बेचना शुरू किया। अभी तक पेप्सी कंपनी अपने उत्पादों के प्रचार के लिए बड़े-बड़े फिल्मी सितारों, किोट खिलाड़ियों आदि का सहारा लेती थी। अब उसने भारतीय डॉक्टरों के संगठन को भी पटा लिया है।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पदाधिकारियों का कहना है कि इन दोनों वस्तुओं की जांच करके स्वास्थ्यवर्धक पाये जाने पर ही उन्होंने समर्थन देने का फैसला किया है। किन्तु सवाल यह है कि एक खास कंपनी का खास ब्रांड ही क्यों? यदि समर्थन देना ही है तो उन्हें फलों, फलों के रस एवं अन्य पौष्टिक खाद्य-पदार्थों को देना चाहिए, किसी ब्रांड विशेष को नहीं। बल्कि कंपनियों द्वारा पैक करने की प्रिाया में उनको सुरक्षित रखने के लिए और विशिष्ट जायका देने के लिए कुछ रसायन तो मिलाए ही जाते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होते हैं। कायदे से भारतीय चिकित्सक संघ को तो यह प्रचार करना चाहिए कि स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे अच्छा है कि लोग ताजे फल खाएं या स्वयं ताजा रस निकाल कर पीयें और पाउचों, पैकेटों व डिब्बों में पैक खाद्य व पेय-पदार्थों के चक्कर में ना पड़ें। इनसे देश में प्लास्टिक व अन्य कचरे की भी बाढ़-सी आ गई है, जो कुदरत, स्वच्छता और मानव स्वास्थ्य के लिए एक नयी समस्या बन गई है।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने अपनी सफाई में यह भी कहा है कि यह करार गैर-व्यावसायिक है तथा इस समर्थन के बदले में वे कंपनी से कोई धनराशि नहीं ले रहे हैं। लेकिन कंपनी उन्हें वार्षिक सम्मेलन, कॉनेंस, सेमिनार जैसे कार्याम आयोजित करने में मदद करेगी। देखा जाए, तो इन दोनों में ज्यादा फर्क नहीं है। ऐसोसिएशन ने पेप्सी कंपनी के साथ मिलकर दिल्ली एवं मुंबई के 80 स्कूलों में स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता फैलाने का एक कार्याम भी हाथ में लेने का फैसला किया है। इस विवाद में यह भी पता चला है कि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन इसके पहले भी बहुराष्टीय कंपनियों के तीन सामानों को अपना समर्थन दे चुका है। रेकिट बेंकिसर कंपनी का डेटॉल साबुन, प्रोक्टर एंड गेम्बल कंपनी के पेम्पर्स डायपर्स (शिशुओं के पोतड़े) और यूरेका फोर्ब्स कंपनी का पानी शुद्घ करने का उपकरण। एसोसिएशन का दक्षिण दिल्ली में जो दफ्तर है, उसकी महंगी साज-सज्जा और फर्निशिंग का काम यूरेका फोर्ब्स कंपनी ने ही किया है।

देशी-विदेशी मुनाफाखोर कंपनियों के साथ भारतीय चिकित्सा संघ की यह दोस्ती अच्छी बात नहीं है। यह देश के एलोपैथिक चिकित्सकों का संगठन है और पूरे देश में इसके पौने दो लाख सदस्य हैं। सन् 1928 में इसकी स्थापना हुई थी। इसकी बेवसाइट में इसके तीन उद्देश्य बताए गए हैं- एक, चिकित्सा विज्ञान को आगे बढ़ाना। दो, भारत में जन-स्वास्थ्य और चिकित्सा शिक्षा में सुधार करना। तीन, चिकित्सा पेशे की गरिमा व सम्मान को बनाए रखना। कंपनियों के उत्पादों की वकालत करके यह संघ इन तीन उद्देश्यों के खिलाफ काम कर रहा है।

वैसे तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का कंपनियों की गिरफ्त में रहना कोई नयी बात नहीं है। उसकी हर कॉनेंस दवा कंपनियॉं प्रायोजित करती है और भाग लेने वालों को महंगे तोहफे देती है। चिकित्सा विज्ञान के शोध व अनुसंधान दवा कंपनियों द्वारा करवाये जाते हैंै, जिनमें जन-हित से ज्यादा कंपनी के हितों का ख्याल रखा जाता है। इसकी निष्पक्षता, वैज्ञानिकता और उपयोगिता पर कई बार गंभीर सवाल खड़े हो जाते हैं। चिकित्सा विज्ञान से जुड़े ज्यादातर पेटेंट इन कंपनियों के पास ही हैं। ये कंपनियॉं अपनी नई दवाओं को लांच करने के लिए कई बार पक्षपातपूर्ण प्रयोग एवं अनुसंधान करवाती हैं। वैश्र्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण के दौर में भारत सरकार भी इसी रास्ते पर चल पड़ी है। जन- हित में शोध व अनुसंधान की अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ कर यह काम पूरी तरह कंपनियों के हवाले करती जा रही है। इसे सार्वजनिक निजी सहयोग (पब्लिक प्राइवेट पार्टनशिप) का भ्रामक नाम दिया जा रहा है।

हर डॉक्टर के यहॉं इन दवा कंपनियों के प्रतिनिधियों की भीड़ लगी रहती है, जो इन्हें उपहार देते रहते हैं। इन दवाइयों को जांचे-परखे बगैर अनेक डॉक्टर गैर-जरूरी दवाइयॉं लिखते रहते हैं। इनमें उनका कमीशन बंधा होता है। मरीजों से कई तरह की गैर-जरूरी जॉंचें करवाई जाती हैंै, उनमें भी कमीशन होता है। पैसे के लालच में ही कई बार जरूरी न होने पर भी ऑपरेशन कर दिए जाते हैं और उनके अन्य विकल्पों को आजमाया नहीं जाता। दवाइयॉं, जॉंचें व इलाज बहुत महंगे होते जा रहे हैंै और वहॉं लूट मची है। यह चिकित्सा क्षेत्र के बढ़ते बाजारीकरण और निजीकरण का दुष्परिणाम है।

बेहतर तो यह है कि भारतीय चिकित्सा संघ इस प्रकार की प्रवृत्तियों को रोकने के लिए कुछ कदम उठाए। चिकित्सकों की आचार संहिता का बेहतर पालन करवाये और उनमें स्व-अनुशासन को बढ़ावा दे। चिकित्सा क्षेत्र में मुनाफाखोर कंपनियों की दखलंदाजी और उनके प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए कार्यवाही करे और अपने सदस्यों को सचेत व शिक्षित करे, इलाज से वंचित गरीब जनता के लिए कुछ करे, लेकिन इसकी बजाय कंपनियों के साथ गलबहियॉं करने का फैसला करके उसने गलत दिशा में कदम उठाया है।

– सुनील

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