जानिये परमात्मा को

प्रत्येक जीवन के भीतर मौजूद चेतन के चित्त का आनंद ही चेतन का स्वरूप है। स्वरूप…अपना रूप… निजी रूप। किसी भी चेतन के चित्त का यही आनंद स्वरूप मन को निर्देशित करता है, जिसके अनुरूप संसार में तरह-तरह के किरदार दिखाई देते हैं। किरदारों में भिन्नता है, परंतु मूल वही आनंद है। एक चेतन इकाई दूसरी चेतन इकाई से पूरी तरह भिन्न है, परंतु चित्त का स्वरूप वही आनंद है। जब अपने ही मूल में इसी आनंद को पहचान लिया जाता है, तो दुनिया के किसी भी चरित्र के मूल को इसी रूप में परिभाषित किया जा सकता है। दूसरों को जानने का सबसे बड़ा मूलमंत्र है, स्वयं को जान लेना। जब स्वयं का मूल जान लिया तो किसी का भी मूल जान लिया। यदि स्वयं को ही नहीं जानते, तो दुनिया भर के लोग अजीब-अजीब दिखाई देते हैं, उनका गुस्सा, उनका लालच, उनका द्वेष-भाव, उनकी चालाकियां, उनकी हरकतें…सब अजीब दिखाई देती हैं और हम अपना तमाम समय व जिंदगी दूसरों के चरित्रों की आलोचना या झूठी प्रशंसा में लगा देते हैं। सच्ची व बिना मतलब के तो कोई किसी की प्रशंसा करता ही नहीं है। प्रशंसा करनी भी पड़ जाए, तो भीतर से ईर्ष्या करता है, द्वेष-भाव रखने लगता है। कोई किसी दूसरे को भीतर से बड़ा मानने के लिए तैयार ही नहीं होता है। यदि ऐसा करना पड़ भी जाए तो भीतर से द्वेष-भाव ही रखेगा।

यदि हम तमाम किस्म के व्यवहार के मूल तत्व आनंद को पहचान लेते हैं, अपने ही भीतर उसका साक्षात्कार कर लेते हैं, तो हमें फिर दूसरों की तरक्की देखकर ईर्ष्या-द्वेष नहीं होता। इन कारणों से आने वाला ाोध हवा बनकर उड़ने लगता है, क्योंकि सबकी तमाम तरक्की के मूल में तो वही एक आनंद है। कर्ता तो वही है, सब तरफ। एक ही कर्ता, दूसरों का भी, हमारा भी। ऊपर से सभी रूप एक-दूसरे से भिन्न हैं, उनका व्यवहार भी भिन्न है, उनकी आदतें भी भिन्न हैं, परंतु तमाम भिन्नताओं के बावजूद इन सबका कारण आनंद है, जो सभी के चित्त का स्वरूप है, असली रूप।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मूल तो एक ही है, अनेक नहीं। हम जो कोई भी हों, ऊपर से जैसा भी रूप हो, भीतर का असली रूप तो वही एक है- स्वरूप। चेतन अलग-अलग है, चित्त अलग-अलग हैं, मगर चित्त का मालिक…संचालक…कर्ता, एक है आनंद। कार्य बदलते हैं, क्रिया-कलाप बदलते है, सोचें बदलती हैं, चित्त बदलते हैं, मगर चित्त का आनंद नहीं बदलता। चित्त का मस्ती में कार्य करने का तरीका नहीं बदलता।

जीवन में जब उल्टा-पुल्टा शुरू होता है, तो जीव की बुद्घि पर भी कई बार पर्दा-सा पड़ जाता है। मति ही मारी जाती है, वह जो भी सोचता है, उल्टा ही पड़ता जाता है। “विनाश काले विपरीतः बुद्घि’। क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि में बुद्घि काम करना ही बंद कर देती है। जब तक बुद्घि सचेत हो पाती है, तब तक चित्त का आनंद अपना खेल खेल चुका होता है, कई बार अत्यंत खतरनाक खेल भी। और जीव के पल्ले पड़ता है..भोग, भोग…जैसा भी हो।

सवाल सही या गलत का नहीं है। सवाल तो होने या न होने का है। है या नहीं। जीव के लिए भोग का सृजन चित्त के आनंद ने किया…चाहे वह भोग सुख का हो या दुःख का, खुशी का हो या गम का, लाभ का हो या हानि का। मृत्यु तक आनंद से घटित होती है। किसी की अपनी मर्जी का यहां कोई प्रश्न ही नहीं।

इसी आनंद में होता है, निर्माण। इसी आनंद में होता है, जीवों का परिवर्धन और इसी आनंद में जीव करते हैं सांसारिक पदार्थों का अपनी इंद्रियों द्वारा भोग और इसी आनंद में होता है विध्वंस। व्यक्ति की पसंद-नापसंद उसके चित्त के आनंद से है, भीतर की मस्ती से है, मौज से है। भीतर बाकायदा आनंद का शासन दिखाई देता है। इस आनंद को ठीक से समझ लेंगे तो सब तरफ आनंद ही आनंद दिखाई देगा। आनंद का ही शासन दिखाई देगा। इसी आनंद में माता-पिता द्वारा नये शरीर के निर्माण की प्रिाया की शुरूआत होती है। इसी आनंद में चेतन तत्व कब और किस नये शरीर में प्रवेश कर जाता है, चेतन को पता ही नहीं चलता है, याद ही नहीं रहता है। ठीक उसी तरह जिस तरह उसे छोड़ा हुआ शरीर याद नहीं रहता। इसी आनंद में शरीरों के विकास की प्रिाया शुरू हो जाती है। माता के पेट के भीतर विकास, बाहर आने के पश्र्चात विकास, बुद्घि का विकास, शरीर का विकास। सब कुछ अपने आप से घटित होता है। भूमिका आनंद की है। मस्ती की है। नवजात शिशु के मुख में दांत नहीं होते, वह ठोस पदार्थों का सेवन नहीं कर सकता। परंतु आनंद की भूमिका देखिए। बच्चे के सेवन के लिए दूध का इंतजाम स्वयं कुदरत ने बच्चे के जन्म से पूर्व कर रखा होता है। जब दांत नहीं है, तब दूध पियो। एक मुर्गी अपने अंडों के ऊपर लगभग दो हफ्ते तक बैठकर उन्हें गर्मी प्रदान करती है, तब उन अंडों में से नये चूजे निकलते हैं, जो बाद में विकसित होकर मुर्गे-मुर्गियां कहलाते हैं। विभिन्न पक्षी तिनका-तिनका जोड़कर वृक्षों में रहने के लिए अपने घोंसले तैयार करते हैं, जो उन्हें वर्षा-धूप व शत्रुओं आदि से सुरक्षा प्रदान करते हैं। एक मकड़ी अपने लिए जालों का निर्माण करती है। अलग-अलग किस्मों के जीवों में अलग-अलग किस्मों के व्यवहार, आश्र्चर्यजनक समानता के दर्शन होते हैं।

व्यक्तिगत भिन्नताएं भी हैं तो जातिगत समानताएं भी। संरचना, विकास एवं व्यवहार में पाई जाने वाली जातिगत समानताएं एक मूल…एक कर्ता की तरफ साफ-साफ इशारा करती हैं। सब जातियों में सब कुछ एक अजब मस्ती में…एक अजब आनंद में…अपने आप से घटित हो रहा है। तमाम जगहों पर तमाम विभिन्नताओं के बावजूद एक विशेष समानता सब जातियों में यह है कि सब कुछ अपने आप घटित हो रहा है। व्यक्तिगत पहचान चेतना है, जागरूकता। तमाम चेतनाओं में व्याप्त उनमें मौजूद उन्हीं का स्वरूप आनंद है, जो कि स्वयं परमात्मा है, ईश्र्वर है, अल्लाह है, गॉड है, यहोवा है, ओम् है।

चित्त का स्वरूप यही आनंद व्यक्ति विशेष के विशिष्ट अथवा सामान्य व्यवहार के लिए जिम्मेदार है। मस्तिष्क एवं बुद्घि का विकास भी तो इसी आनंद के अधीन घटित होता है। व्यक्ति विशेष की याददाश्त भी तो आनंद की ही देन है। व्यक्तियों की विशिष्ट क्षेत्र में मेहनत करने की सामर्थ्य, इच्छा-शक्ति अथवा आलस्य यह भी व्यक्ति विशेष की प्रवृत्ति के रूप में आनंद से ही है।

जितना अधिक इस आनंद को देखा, समझा व जाना जाएगा, उतना ही अधिक परमात्मा दिखाई देता जाएगा। वह हमारे अपने ही भीतर, आस-पास व सब जगह निरंतर कार्यरत है। जो बीजा जाता है, वही काटा जाता है, यही प्रिाया है। अब इसमें पाप-पुण्य, सही-गलत, अच्छा-बुरा सब शामिल किए जा सकते हैं।

दृश्य व चीजें, आनंद से अपने आप चित्त में प्रवेश करती हैं, चित्त को प्रभावित करती हैं, जो चित्त के संस्कारों के रूप में दृष्टा चेतना के चित्त का हिस्सा होती चली जाती हैं। चित्त के यही संस्कार समय-समय पर आनंद के चित्त से निकल कर सबको संचालित करके व्यक्ति के वर्तमान व भविष्य का निर्धारण करते रहते हैं। चेतना अलग-अलग है। प्रत्येक चेतना के चित्त में मौजूद आनंद एक है, जो संचालक है। एक जोत सर्वव्यापक। जो भी हम देखते हैं, सोचते हैं, करते हैं, सब हमारी दृष्टि का हिस्सा बनते चले जाते हैं। हमारे चित्त के संस्कार बनकर हमारा हिस्सा होते चले जाते हैं, जो जन्म-जन्मांतरों तक जीव का साथ देते हैं, उसे अच्छा या बुरा बनाते हैं।

सुख-दुःख संसार के चलने का ढंग है। यह धूप-छांव की भांति बदलने वाले हैं। इन निरंतर बदलावों के बिना जीवन नीरस, उबाऊ होकर रह जाता है।

यह दृष्टि ही हमारी असली पहचान है। हम अपने ही शरीर एवं आसपास घटित होने वाली घटनाओं के मात्र दर्शक हैं, जिनसे मिलने वाले अनुभवों से हमारी दृष्टि व्यापक होती है, विकसित होती है। यही तमाम जीवन का सारांश है। घटनाएं तो आनंद से ही घटित होती हैं। हम अपने-अपने विवेक से घटनाओं का सामना करते हैं। यह स्व-विवेक भी तो आनंद से ही भीतर से अपने आप प्रस्फुटित होता है, जो हमें घटनाओं का सामना करने की मानसिक शक्ति प्रदान करता है। स्थूल शरीरों में बहुत कुछ सूक्ष्म है। अपने ही शरीर के भीतर के सूक्ष्म तत्वों की खोज ही अपनी खोज है, परमात्मा की खोज है। जिस प्रकार के सूक्ष्म तत्व हमारे आस्तत्व का कारण हैं, उसी प्रकार के सूक्ष्म तत्व अन्यों के वजूद की असलियत हैं। इसीलिए जो खुद को जान लेता है, वह सबको जान लेता है। यही वह ज्ञान है, जिसे प्राप्त करके इंसान परम-संतुष्ट हो जाता है, शांत हो जाता है, मौन हो जाता है।

परमात्मा को जाने बगैर शांत नहीं हुआ जा सकता। सांसारिक तरक्की अशांति से ही हासिल होती है और अशांति को ही जन्म देती है। तथापि सांसारिक तरक्की करते हुए अशांत होते हुए भी शांत रहा जा सकता है- परमात्मा को जानकर, परमात्मा को महसूस करके, उसे आनंद के रूप में सर्व-व्यापक रूप से सर्वत्र महसूस किया जा सकता है।

तरक्की के रास्ते आनंद से होकर गुजरते हैं, चाहे वह तरक्की शिक्षा के क्षेत्र में हो, धन व घर की बात हो, किसी भी किस्म की शोहरत हो। कुछ पाने की लालसा हो तो आदमी अशांत हो ही जाता है। हालांकि पाना अशांत नहीं करता, पाने की लालसा अशांत करती है। पाने के बाद भी आदमी और अधिक अशांत इसलिए हो जाता है, क्योंकि लालसा कई-कई कदम और आगे बढ़ जाती है। जहां लालसा खत्म हो जाए, वहां शांति है। लालसा परमात्मा को जानकर ही खत्म हो सकती है। जब इंसान को अहसास होता है कि सब कुछ अपने आपसे हो रहा है, सब कुछ आनंद में है, करने वाला मैं नहीं, मेरे ही भीतर मौजूद किसी अन्य…नामालूम… की प्रेरणा से हो रहा है और यह अन्य तत्व किसी भी प्रकार से मेरे नियंत्रण में है ही नहीं। सोई हुई चेतना जागकर देखती है कि चेतन को मिले शरीर का नियंत्रण चित्त के स्वरूप आनंद से हो रहा है और वही आनंद सभी शरीरों के भीतर मौजूद ब्रह्म तत्व सूक्ष्म चेतन के चित्त का स्वरूप है, तो बड़ा-छोटा, सही-गलत, सब भेद मिट जाते हैं। दौड़ते-दौड़ते थक कर आदमी देखता है कि दौड़ाने वाला तो कोई और था…प्रेरक तत्व..जिसकी प्रेरणा से तमाम दौड़ संभव हो सकी। महत्वाकांक्षाएं पूरी हो सकीं या परिस्थितियों की वजह से अयोग्यता की कमी से अधूरी रह गईं। जो भी हो, बहरहाल जो होना होता है, परिस्थितियां भी वैसी ही हो जाती हैं। परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार कौन है, जबकि सब जगह सब कुछ आनंद से ही घटित हो रहा है। गीता का कथन है- “जो हुआ अच्छा हुआ है, जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है, जो होगा, अच्छा ही होगा।’ विरोध की गुंजाइश ही कहां है? यह जो तथाकथित विरोध, अंतर्विरोध आदि दिखाई देते हैं, वह भी परिस्थितिवश अपने आप आनंद से ही निर्मित होते व मिटते रहते हैंै, इसी से तो दुनिया का चलन आगे बढ़ता है, संघर्षों की गुंजाइश बनती है, तरक्की के नये-नये रास्ते खुलते हैं। कहीं विरोध है, कहीं समझौते हैं, कहीं खुशी है, तो कहीं गम, कहीं सुख है तो कहीं दुःख…सब आनंद से, आनंद में। जीवात्मा की भूमिका एक भोगी की है, जो स्थूल शरीर को आनंद से मिलते हैं, चाहे वह जिठा के स्वाद हों, पेट की भूख हो, काम का सुख हो, किसी खास कार्य से मिलने वाला दिमागी सुकून हो। इन भोगों से व्यक्ति की दृष्टि भी प्रभावित होती है। दृष्टिकोण बदलते हैं, जो जिन भोगों में लिप्त हो जाते हैं, उनकी दृष्टि भी वैसी ही होती चली जाती है। दृष्टा की दृष्टि। जबकि सामने वाले दृश्य लगातार हर पल बदलते रहते हैं, दृष्टा नहीं बदलता। दृष्टा स्थिर है। यही दृष्टा जीवात्मा है। जो एक शरीर से दूसरे शरीर में गमन करता है, अपनी दृष्टि को लेकर, अपने अनुभवों को लेकर। अंधे के आंखें नहीं होतीं। मगर वह भी अपने तरीकों से दुनिया देखता है। बहरा सुन नहीं सकता, मगर गूंगे-बहरे के भी अनुभव होते हैं, दृष्टि होती है। अंधे, गूंगे, बहरे में भी एक दर्शक होता है। वह दर्शक स्थिर है, ब्रह्म है, जीवात्मा है, अजर है, अमर है, संसार का स्थायी तत्व है, जिसके भोग के लिए सच्चिदानंद स्वरूप सर्वव्यापक परमात्मा द्वारा लगातार नये-नये शरीरों के निर्माण, संचालन व संहार के साथ-साथ नाना प्रकार के भोज्य-पदार्थों का निर्माण भी होता रहता है।

– डॉ. यश चोपड़ा

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