जीवन की कसौटी का नाम है विपत्ति

jeevan-ki-kasuti-ka-naam-hai-vipatiमुफलिसी मेरी मुसीबत की कसौटी हो गई ।
हिम्मते अरबा़ज के जौहर नुमायां हो गए ।।

“कसौटी’ एक पत्थर को कहते हैं, जिस पर सोने को घिसकर स्वर्णकार असली, नकली या मिलावटी सोने की पहचान करता है अर्थात् सोने की शुद्घता कसौटी पर कस कर ही ज्ञात की जाती है। इसी प्रकार मनुष्य की मित्रता, अन्य लोगों की सहायता की आदत और उनके प्राकृतिक सद्गुणों को परखने का काम विपत्ति ही करती है और इन सब सद्गुणों की परीक्षा सुखी व्यक्ति नहीं कर सकता। अपितु दुःखी, आपत्तिग्रस्त, विपन्न व्यक्ति ही कर सकता है। सुख के समय मित्रता की डींग हांकने वाले व्यक्ति प्रायः विपत्तियों के आने पर किनारा कर जाते हैं। जैसे शाम को अपना साया भी साथ छोड़ देता है, ठीक उसी भांति ये सुख के साथी भी होते हैं।

गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है कि –

धीरज धरम मित्र अरु नारी। आपतकाल परखिए चारी।।

अर्थात् आपत्तिकाल में ही अपने और परायों की परख होती है। रहीम खानखाना ने भी कहा है कि –

रहिमन विपदाहू भली जो थोरे दिन होय।

हित अनहित या जगत में जानि परत सब कोय।।

थोड़े समय के लिए आने वाली विपत्ति की स्थिति में ही असली हितचिन्तक की पहचान होती है। इसीलिए उन्होंने भी अल्पकालिक विपत्ति का स्वागत किया है। आपत्तिकाल में दूसरों की परीक्षा नहीं होती, अपितु अपनी भी कसौटी होती है और मनुष्य को उसका अपना असली रूप स्वयं दिखाई पड़ने लगता है जैसा कि अंग्रेजी के महाकवि आर्नोल्ड ने कहा है कि विपत्ति ही मनुष्य को उसके असली रूप को दिखाती है। (एडवर्सिटी-इन्टोड्यूसेस ऐ मैन टू हिमसेल्फ)

इसीलिए मुसीबत से घबराना नहीं चाहिए। ईश्र्वर आपको गहरे पानी में इसलिए ले जाता है ताकि आप हाथ-पैर चलाकर अपने जीवन की रक्षा का प्रयास करें और फिर हमेशा पानी में प्रवेश कर अपने तन-मन को स्वच्छ कर सकें। आपको वह गहरे पानी में ले जाकर डुबाकर मार डालना नहीं चाहता। किसी ने कहा है कि विपत्ति के समान कोई दूसरी शिक्षा है ही नहीं।

वो मर्द नहीं जो डर जाए माहौल के खूनी मंजर से।

उस हाल में जीना ला़िजम है जिस हाल में जीना मुश्किल है।।

यह भी कहा गया है कि जो व्यक्ति खुद अपनी मदद करता है, ईश्र्वर भी उसी की ही मदद करता है। (गॉड हेल्प दोज हू हेल्प देम सेल्वस) और भी कहा गया है –

उद्यमेः साहसं धैर्य बुद्घिः शक्तिः पराामः।

षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहाय कृतः।।

मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है कि “”जितने कष्ट कंटकों में हैं, जिनका जीवन सुमन खिला। गौर व गंध उन्हें उतना ही यत्र तत्र सर्वत्र मिला।” जैसे कांटों के बीच गुलाब का फूल खिलता है, उसी प्रकार मनुष्य, जीवन के कांटों के बीच भी सुगंधित फूल खिला लेता है और जितना अधिक कंटकाकीर्ण जीवन होता है, उतना ही उसके जीवन में गौरव की सुगंध फैलती है।

मनुष्य को क्षणिक सुख मिलने पर न तो खुशी से फूल जाना चाहिए और न दुःख के समय मुरझा जाना चाहिए। दोनों परिस्थितियों का सामना समान भाव से करना चाहिए। जैसे भगवान श्रीराम न अपने राज्याभिषेक के समाचार से प्रसन्न हुए थे और न वनवास की आज्ञा से दुःखी।

प्रसन्नता या न गताभिषेकस्तथा न ममलौ वनवास दुःखतः।

मुखाम्बुज श्रीरघुनंदनस्य में सदायुस्य सा मंजुल मंगलप्रदा।।

जैसे सूरज उगते और डूबते दोनों समय रक्ताभ वर्ण का होता है, वैसे ही मनुष्य को भी अपना जीवन बनाना चाहिए।

उदये सविता रक्त रक्ताश्र्चास्तेमते तथा।

संपत्तौ विपत्तौव च महतां एक रूपता।।

कुन्ती से जब भगवान श्रीकृष्ण ने कुछ मांगने के लिए कहा तो उसने विपत्ति ही मांगी। चकित होकर श्रीकृष्ण ने कहा “”बुआ और कुछ मांगों।” तो कुन्ती ने उत्तर दिया, “”हे कृष्ण! मुझे विपत्ति ही दो ताकि मैं हर क्षणन तुम्हें समरण कर सकूँ।”

विपदौ नैव विपदः संपदो नैव संपदः

विपद विस्मरण विष्णोः सत्यनारायण स्मृतिः।

विपत्ति का डटकर हॅंसते-हॅंसते मुकाबला करने वाले को साहसी और मुर्दों के समान दुःखों का रोना रोते रहने वालों को बुजदिल कहा जाता है। इसीलिए कहा है कि मत घबराओ पथिक पथ पर बढ़े चलो, चलते-चलते ठोकर लग ही जाती है। निराधार पथ का राही जो चलता है, अपने पंखों का विश्र्वास लिए। मधुर-मधुर कुछ गाता रहता है निज जीवन ाम की आस लिए। किन्तु बधिक भी छिपे ओट में रहते हैं। उनके तीखे तीरों की विषभरी नोक चुपके से उनके पंखों में चुभ जाती है। इसीलिए किसी ने कहा है कि “”मैं चला जाता हूँ हंसता खेलता मौजे हवा दिल में, अगर आसानियां हों तो जिन्दगी दुश्र्वार हो जाए।”

अतः “”चाहिए संसार को दे शूल को प्रतिक्षण बधाई। क्योंकि उसने बनधरा पर फूल की महिमा बढ़ाई।”

गालिब ने कहा है कि, “”रंज से खूंगर हुआ इंश तो मिट जाता है रंज मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि जिंदगी आसां हो गई।” अतः विपत्ति, दुःख, मुश्किलों और मुसीबतों से घबराना नहीं चाहिए अपितु विपत्तियों का स्वागत करना चाहिए। “”तू फिर आ गई गर्दिशे आसमानी बड़ी, मेहरबानी बड़ी मेहरबानी।”

– डॉ. हौसिलाप्रसाद पांडे

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