झूठ का सहारा न लें, अप्रिय सत्य भी न बोलें

झूठ और सच का खेल बड़ा निराला है। आदमी झूठ क्यों बोलता है और सच क्यों नहीं बोलता? आखिर कौन-सी ऐसी मजबूरी है, जिससे व्यक्ति झूठ बोलता है? आज क्यों झूठ को इतनी प्रतिष्ठा मिली है? सच बोलने से व्यक्ति घबराता-कतराता क्यों है? ऐसे तमाम प्रश्र्न्न हैं, जो बताते हैं कि इसके कई कारण हैं। मनोविज्ञान अपना तर्क लगाता है, सामाजिक मान्यता कुछ और बयान करती है और यौगिक दृष्टिकोण अपने ढंग से व्याख्या करता है। कारण जो भी हो, उक्ति तो है कि “सत्यं वद’ – सदा सच बोलो, परंतु मनुस्मृति के सूत्र कहते हैं कि “अप्रिय सत्य मत बोलो।’ और पुराणों में उल्लेख मिलता है, ऊँचे उद्देश्य के लिए बोला गया झूठ भी सौ सच से बड़ा होता है। इसे “नोबल लाई’ कहते हैं।

इतिहास की सच्चाई को उजागर कर दिया जाये तो आज किसी ऐसे पर विश्र्वास करना मुश्किल होगा जिसको हमने सामाजिक मान्यता प्रदान की, इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित किया, उसकी बुनियाद झूठों के पुलिंदों में खड़ी है। हमारी संस्कृति और सभ्यता में नेक काम करके उसे बताने-जताने की परंपरा नहीं है। कहते हैं कि औरों के लिए की गई सेवा-सहायता का बखान करने से पुण्य क्षय होता है और ऐसा करने में अहंकार सामने आता है, जबकि हमारी संस्कृति में अहंकार की समूल विनष्टि को ही साधना का मुख्य अंग माना जाता है और इसी से वास्तविक व्यक्तित्व का निर्माण होता है। अतः अपनी संस्कृति की बुनियाद में तो सच्चाई का बड़ा गहरा विश्र्लेषण हुआ है।

यूनिवर्सिटी ऑफ अलबामा, स्कूल ऑफ मेडिसिन के मनोरोग के प्रोफेसर चार्ल्स फोर्ड के अनुसार लोग प्रायः उन्हीं चीजों के बारे में झूठ बोलते हैं, जिनसे वे अच्छा महसूस करना चाहते हैं। आगे वे कहते हैं कि यह मानवीय स्वभाव होता है कि हमारे भीतर किसी अभाव-बोध का भाव पनप जाता है। यह तभी होता है, जब हम किसी चीज को करना चाहते हैं और कर नहीं पाते हैं। उन्हें लगता है कि वे औरों की बराबरी नहीं कर पा रहे हैं या प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में वे जिसे भी प्रभावित करना चाहते हैं या जिससे अपने बारे में स्वीकृति चाहते हैं, उसके सामने झूठ बोल जाते हैं।

लालच, भय, स्वीकृति और आदत, चार ऐसे कारण हैं, जो हमारे असत्य बोलने के कारण बनते हैं। मनोवैज्ञानिक राबर्ट फील्डमैन के अनुसार झूठ हमारे स्वाभिमान के साथ जुड़ा होता है। जैसे ही लोगों के स्वाभिमान को चोट पहुंचती है, वे ऊंचे स्वर में झूठ बोलना शुरू कर दिते हैं। बेवजह झूठ नहीं बोलना चाहिए। झूठ बोलने वाले व्यक्ति अप्रामाणिक होते हैं, उन पर कोई भी विश्र्वास नहीं करता। इस अप्रामाणिक व्यक्तित्व को लेकर जीना एक मुर्दे के समान है, जो केवल झूठ बोलने के कारण होता है। झूठ नहीं बोलना चाहिए, यह सच है, परंतु अप्रिय एवं कडुआ सच भी किसी को नहीं बोलना चाहिए। अंग्रेजी साहित्यकार वर्जीनिया बुल्फ ने स्पष्ट कहा है कि दूसरों की भावनाओं की परवाह किये बिना सच का अनुसरण मानवीय शिष्टाचार का उल्लंघन है।

दूसरों को नुकसान नहीं पहुंचे, दूसरों की भावना को ठेस न पहुंचे, ऐसी बात बोलनी चाहिए। ऐसी कही गई बात झूठ होकर भी सच के बराबर है। दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाला या आहत करने वाला सच भी एक झूठ के बराबर होता है। एमोरी यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में मनोरोग विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर चार्ल्स एल राईसन के अनुसार सच बोलना अच्छा होता है, लेकिन कभी-कभी सच उजागर नहीं करना भी लाभदायक होता है। कई जटिल बीमारियों में लोग डॉक्टर द्वारा बंधाई गई झूठी उम्मीद के सहारे लंबा जीवन गुजार देते हैं।

महाभारत के युद्घ में धर्मराज युधिष्ठिर ने “अश्र्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा’ कहकर आधा झूठ, आधा सच बोला था, हालांकि उनका उद्देश्य पावन था, इसलिए उसे झूठ की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। शास्त्रों, पुराणों में ऐसे अनेक कथानक आते हैं, जिनसे पता चलता है कि अप्रिय सत्य की अपेक्षा भला करने वाले झूठ का सहारा लिया गया है। जो भी हो, झूठ बोलना जब आदत बन जाती है, तब वह अच्छी-बुरी दोनों बातों में समाहित हो जाता है। अतः विष मानकर इससे दूर रहने का प्रयास करना चाहिए। व्यक्तित्व को प्रामाणिक बनाने के लिए, प्रखर रूप से गढ़ने के लिए हमें सदा सच का सहारा लेना चाहिए। सत्य में हजार हाथियों का बल होता है, जबकि झूठ का कोई अस्तित्व नहीं होता। सच बोलें, पर औरों की भावनाओं का ख्याल रखें।

नीति कहती है कि झूठ से नुकसान न हो तो ठीक है, पर झूठे वादे कभी नहीं करने चाहिए। जो कहा है, उसे अंत तक निभाना चाहिए। यह सर्वोपरि प्रामाणिकता है। वाल्मीकि रामायण में उल्लेख मिलता है कि भगवान राम सदा सत्य के पक्षधर थे। वे एक लक्ष्य के लिए दो बार तीर नहीं चलाते थे और एक तथ्य के लिए दो बात नहीं कहते थे। यही सच्चाई की विशेषता एवं प्रखरता है। अतः हमें सदा सच्चाई का पक्षधर होना चाहिए।

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