तीन बोरी गेहूं और आत्महत्या

मैंने अनेक लोगों की आत्महत्या के किस्से सुने और पढ़े हैं। आत्महत्या चाहे कोई भी करे और किसी भी तरीके से करे, हमेशा दुःखद लगती है। कर्जे से दबे किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं आजकल पूरे देश में चिन्ता का विषय बनी हुई हैं। पर इधर मैंने एक औरत को तीन बोरी गेहूं के लिये अपने हाथों अपनी जान देते हुए देखा है। ये गेहूं न तो उसने बोये थे और ना ही काटे थे। फिर भी ये तीन बोरी गेहूं सिर्फ तीन बोरी गेहूं नहीं थे बल्कि इसमें उस औरत के गाढ़े पसीने की बूंदें मिली हुई थीं। असल में वह चार बच्चों की गरीब मॉं थी जो मजदूरी करके अपना परिवार पाल रही थी और उसका पति उसके कमाए पैसों को जोर-जबरदस्ती से हथिया कर दारू पीने और उसे मारने-छेतने के अलावा कोई काम नहीं करता था। दिहाड़ी करके घर को पालना और पति द्वारा पिटना उस औरत की जीवनशैली कहें या नियति बन गई थी और वह उसमें ढल भी गई थी। तो भी उसने मरने की कभी नहीं सोची। पर जब मुझे खबर मिली कि उस औरत ने सल्फास की गोलियां खा ली हैं तो यही लगा कि स्थितियां उसकी सहनशक्ति के बाहर हो गई होंगी। लेकिन उसके घर जाने पर पता चला कि वह तो तीन बोरी गेहूं पर जान दे बैठी। असल में इस अप्रैल के महीने में जब वह गेहूं काटने औरों के खेतों में जाती थी तो आठ के बजाय बारह घंटे काम करती थी और अतिरिक्त घंटों के काम करने के बदले में वह गेहूं ले लेती थी। इस तरह उसने ज्यादा परिश्रम करके तीन बोरी गेहूं इकट्ठा कर लिया था। तब वह निश्र्चिन्त हो गई थी कि चलो, अपने बच्चों को रोटी खिलाने के लिये गेहूं तो जमा हो गया। पर एक दिन जब उसके नशेड़ी पति ने चुपके से उन तीनों बोरियों को बेचकर पैसे अपनी मुट्ठी में कर लिये तो सहनशीलता उसके बस से बाहर हो गई और आत्महत्या के अलावा उसे और कोई रास्ता ऩजर नहीं आया। यहॉं तक की घटना को जानकर अफसोस होता है, पर ऐसा कुछ नहीं है कि किसी पर गुस्सा आये। किन्तु जब मुझे पता चला कि गांव के अधिकांश लोग अब उसके शराबी पति को बचाने में जुटे हैं तो असहनीय लगा। ऐसे अपराधी और कर्त्तव्यहीन लोगों के बचाव में समूह उमड़ आता है पर उस मेहनती औरत के प्रति संवेदना किसी के मन में पैदा नहीं हुई। उसके जीवन को सरल एवं सहज बनाने के लिये किसी ने कभी बीच-बचाव नहीं किया। हर सांझ उसके बदन पर पड़ते नील और सूजन ने किसी के मन को नहीं पिघलाया। यह कौन-सी दया है कि जो शख्स उसकी मौत का कारण बना, उसे बचाने की पहल हो रही है? हवाला यह दिया जा रहा है कि बेचारे के बच्चे कौन संभालेगा? जिस बेचारे ने आज तक बच्चों को नहीं संभाला, वह आज भी क्या संभालेगा? हां, मिसाल जरूर बन जाएगा कि निकम्मे और दारूबाजों को प्रायश्र्चित करने की कोई जरूरत नहीं है।

एक बार की बात है कि नत्थू अर सुरजा आपस में बातें कर रहे थे। सुरजा बोल्या, “भाई! मैंने सुना है कि पति-पत्नी का नाता जमा ए अटूट होवै है, उन्हें कोई भी अलग नहीं कर सकता।’ नत्थू बोल्या, “भाई, सुना तो तूने ठीक ही है। जब मेरा अर रामप्यारी में झगड़ा होता है तो कई बार तो घर के पॉंच-सात आदमी मिलकर बड़ी मुश्किल से ही हमें अलग कर पाते हैं।’

 

– शमीम शर्मा

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