धर्म का मर्म समझे सो ज्ञानी

धर्म का तत्त्व गुहा में छिपा हुआ है, यह इसलिए कहा गया है कि धर्म का वास्तविक रूप उसके तत्त्व का ज्ञान गहरे ध्यान में ही होता है। धर्म को जिस अर्थ में हमारी पूरी परम्परा में प्रयोग किया गया है, उसे नकारते हुए लोग उसे संकुचित अर्थ में आचार मात्र में प्रयोग करते हैं। अतः जरूरी है कि इस अवधारणा को गंभीरतापूर्वक समझा जाए। धर्म के साथ तीन रूप या अर्थ व्यापक रूप से जुड़े हैं। एक तो यह कि जो जीवन को धारण करे वही धर्म है। जो संपूर्ण जीवन को संभाल कर रखे वही धर्म है अर्थात् जीवन जीते हुए उसकी सार्थकता को पहचानते हुए भी धर्म को पाया जाता है। सार्थकता क्या है? “सार्थकता है मनुष्य बनना’ मानुष भाव से समन्वित होना। सबके हित को अपना भाव मानना। जैसा संत नरसी मेहताजी ने कहा है कि मनुष्य वही है, जो पराई पीड़ा को जानता हैं, पराये दुःख के निवारण के उपाय करता है, पर उपकारी होने का अभिमान मन में नहीं लाता। हम दूसरों की मुक्ति की आकांक्षा रखें, यह मुक्ति से बड़ा पुरुषार्थ है। सब आत्मीय हैं। सब अपने हैं। धर्म तो अपनापन देना और पाना है। उसका अर्थ यह नहीं है कि अपना अनुभव, अपना मंतव्य दूसरे पर थोपा जाए। यहां धर्म और सांप्रदायिकता में भेद करना जरूरी है। धर्म का विस्तार तो चर-अचर जगत तक जाता है। जब भगवान को अभिषेक कराने के लिए कंधे पर रखे गंगाजल को भक्तराज एकनाथजी ने सड़क पर प्यास से मरते गधे को पिलाया तो उस प्यास में वे अपने आराध्य की प्यास देख रहे थे।

धर्म का दूसरा रूप वृहत समाज को छूता है। उसके लिए एक महावाक्य कहा जाता है, “”आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत।” धर्म को इसी रूप में अधिक व्याख्यायित किया जाता है कि जो हम अपने लिए नहीं चाहते, उसको दूसरों के प्रति भी नहीं करें। अतः विवेकपूर्ण आचरण करें। जब मनुष्य अपने भीतर डूब कर सोचता है कि मेरे भीतर का आदमी दूसरों को कैसे अच्छा लगे, कैसे प्रीतिदायक हो, तब वह सही निर्णय ले सकता है। अंग्रेजी में एक कहावत है कि तुम दूसरे के प्रति ऐसा कुछ मत करो, जो तुम अपने लिए अप्रिय समझते हो। धर्म सहज होता है। धर्म आरोपित नहीं होता, अपने में डूबकर देखा जाता है। इसलिए धर्म की दृष्टि से मनुष्य के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है। रामायण में श्रीराम अपने सहयोगी सुग्रीव के प्रति अन्याय करने वाले उसके बड़े भाई बाली को तो मारते हैं, पर युवराज का पद बाली के पुत्र अंगद को ही दिलाते हैं।

महाभारत की एक कथा को लें। युधिष्ठिर को धर्मराज कहा गया है। यक्ष प्रकरण में युधिष्ठिर के चारों भाई जल छूकर मर गये तो उस जल की रखवाली करने वाले यक्ष ने कहा कि तुम मेरे प्रश्र्न्नों का सही उत्तर दो तो एक भाई जीवित हो उठेगा। युधिष्ठिर ने सही उत्तर दिये। पूछा गया, “”किस भाई को जीवन दूं?” तो युधिष्ठिर ने कहा, “”एक भाई को जिलाना है तो माद्री से उत्पन्न मेरा भाई नकुल ही जी जाये।” यक्ष ने कहा, “”भीम या अर्जुन क्यों नहीं?” युधिष्ठिर ने अविचल भाव से उत्तर दिया, “”मैं अपनी मां कुंती का एक बेटा बचा हूं। माद्री मां का भी एक बेटा बचा रहे तभी धर्म का निर्वाह होगा।” अस्तु यक्ष ने प्रसन्न हो चारों भाइयों को जीवित कर दिया। अतः कहा गया है, परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।

धर्म का तीसरा पहलू है – अपने आभ्यांतरिक सत्य को पहचानना। अपना ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना। यह धर्म का सबसे आभ्यांतरिक व महत्वपूर्ण पहलू है। इन तीनों पक्षों को समझ लें, हमें कोई दुविधा नहीं रहेगी कि यह धर्म मानव मात्र का है। वैसे धर्म की प्रतीति अलग-अलग रूपों में व अलग-अलग परिस्थितियों में भी होती है। जैसे जाति, कुल, परिस्थिति अलग-अलग दिखने पर भी पति-धर्म, पुत्र-धर्म, पिता-धर्म, राज-धर्म आदि एक हैं, क्योंकि सभी मानुष भाव को सार्थक व सामंजस्य स्थापित करने के अलग-अलग संदर्भों में प्रयत्नशील हैं। धर्म का योग यही है कि हम इनकी पहचान में खो न जाएं। बल्कि इनमें निहित एक को पहचानें।

परम संत डॉ. चतुर्भुज सहायजी का कथन है कि धर्म के मर्म को समझने हेतु किसी अनुभवी गुरु की तलाश करो। उसकी बताई िाया से गहरे ध्यान में जाओ। तभी धर्म का मर्म समझ में आ सकता है। उसकी व्यापकता ठीक से दिखाई देती है, तभी हम समझ सकते हैं कि धर्म आचार मात्र ही नहीं है, वह उसका नियामक और प्रेरक है, साथ ही सदाचार की कसौटी भी है। सदाचरण ही उसका व्यावहारिक रूप है।

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