फिल्म समीक्षा

कलाकार- सुशांत सिंग, कार्तिकादेवी राणे, रजत कपूर, मनदीप म़जूमदार, बृजेश हीरजी, दर्शन जरीवाला

लेखक-निर्देशकः जयदीप वर्मा   मल्टीप्लेक्स थियेटर्स की बुराइयॉं चाहे अनेक हों, पर इनसे एक काम जरूर अच्छा हो रहा है और वह अनोखे विषयों पर कम बजट में बनी फिल्मों को प्रदर्शित करना। लेखक-निर्देशक जयदीप वर्मा की फिल्म हल्ला इस बात की पुष्टि करती है। मल्टीप्लेक्स के लगभग सभी दर्शक शहरी होते हैं। उन्हें केवल शहरी समस्याओं का ही ज्ञान होता है और वह भी बहुत छोटी, जो अन्य दर्शकों को बहुत ही विचित्र और विलक्षण लगती हैं।

फिल्म हल्ला में उठाई गई समस्या है-चौकीदार का रात में जोर-से सीटी बजाते हुए पहरा देना। यह भी कोई विषय हुआ फिल्म बनाने का, परंतु जयदीप वर्मा ने इसी विषय को अपनी पहली फिल्म के लिये चुना है। उसमें उन्होंने हास्य को पिरोया है, जिसे दर्शक पसंद करेंगे।

राज (सुशांत सिंग) एवं आभा (कार्तिकादेवी राणे) आधुनिक दम्पति हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं। मुंबई के छोटे-से फ्लैट में रहते हैं। यहीं से उनकी परेशानियॉं शुरू होती हैं। राज बहुत ही हल्की नींद सोता है। जरा-सी आहट से उसकी नींद खुल जाती है और यहॉं तो हर रात उसकी नींद टूट जाती है। कारण है, वॉचमैन जो सीटी बजाते हुए रात में पहरा देता है। राज बिल्डिंग के सेोटरी जनार्दन (रजत कपूर) से इस बात की शिकायत करता है। जनार्दन कहता है, “”पहरेदार का काम ही है सीटी बजाते हुए पहरा देना। उसे हम कैसे रोक सकते हैं?”

बात का बतंगड़ बनने लगता है। नींद का टूटना जैसी बात गंभीर स्वरूप धारण कर जाती है। नींद पूरी न होने के कारण उसका शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है, जिसका प्रभाव उसके काम पर भी पड़ने लगता है और घर पर होने वाला हर शोर उसे विचलित करने लगता है। बस, इसी कहानी को लेकर जयदीप वर्मा की हल्ला अंत तक चलती रहती है। जब कहानी इतनी-सी ही हो तो पटकथा में दम होना आवश्यक होता है। यहीं पर लेखक जयदीप वर्मा कुछ मात खाते से लगते हैं। कहानी के प्रसंग दुहराये से लगते हैं और मुख्यमंत्री का किरदार फिल्म में ठीक तरह से नहीं बैठता। फिल्म का अंत भी अस्पष्ट-सा है। राज एवं आभा की जिंदगी को उचित ढंग से चित्रित नहीं किया गया है। मल्टीप्लेक्स वाले दर्शकों के लिये यह फिल्म मनोरंजक हो सकती है। एकल थियेटर्स के दर्शकों को पसंद आना मुश्किल है। सुशांत सिंग एवं कार्तिकादेवी राणे के अभिनय के कारण फिल्म जानदार बनी है। हॉं, सीटी बजाने वाला पहरेदार याद रह जाता है और उसकी सीटी भी।

 

 

“वेलकम टू सज्जनपुर’

कलाकार: श्रेयस तलपदे, अमृता राव, रवि किशन, दिव्या दत्त, दया शंकर पाण्डेय, यशपाल शर्मा, इला अरूण

संगीतः शंातनु मित्रा            निर्देशनः श्याम बेनेगल

निर्देशक श्याम बेनेगल ने अंकुर-निशांत जैसी अपनी माटी से जुड़ी फिल्में बनाईं हैं। अपनी माटी से उपजे महान व्यक्तियों की जीवनी पर वार्तापट भी बनाये हैं। अब हास्य-फिल्म के क्षेत्र में हाथ आजमाया है और माटी से जुड़ी “वेलकम टू सज्जनपुर’ शीर्षक की फिल्म दर्शकों के लिए पेश की है। इसे एकल थियेटर्स में उचित दर पर दिखाये जाने की बात पर भी गौर करना चाहिए।

फिल्म केवल कहानी के कारण ही नहीं, बल्कि सज्जनपुर गॉंव के जाने-पहचाने प्यारे से पात्रों के द्वारा भी आकर्षित कर जाती है। श्रेयस, गॉंव का थोड़ा-बहुत पढ़ा-लिखा युवक है। उसका उपन्यास लिखने का ख्वाब है। फिल्हाल वह गॉंव के अनपढ़ लोगों के पत्र लिखने में उनकी मदद करता है। वह खत बहुत ही खूबसूरत ढंग से लिखता है। इस काम में उसे अच्छी-खासी महारत हासिल हो जाती है। फिल्म की शुरूआत शंातनु मित्रा के संगीतबद्घ किये शीर्षक गीत “सीताराम’ से और श्रेयस तलपदे एवं सपेरे दया शंकर पाण्डेय के दृश्य से होती है, जो याद रह जाते हैं।

गॉंव के अन्य जीवंत पात्रों में हैं- मवाली यशपाल शर्मा (जिसे चुनाव जीतना है), एक महिला (जो पति की आज्ञा से चुनाव के मैदान में उतरी है), एक बातूनी हिजड़ा (अपनी मांगलिक बेटी दिव्या दत्त की शादी के लिए परेशान है), इला अरूण (अपने मांगलिक कुत्ते की शादी करने का इरादा रखने वाली महिला), रवि किशन (प्यार की दुनिया में खोया कम्पाउण्डर) और नवविवाहिता अमृता राव (जिसका पति रोजगार के लिए मुंबई गया है और चार दिवाली बीत जाने के उपरांत भी घर नहीं लौटा)। श्रेयस लम्बे समय से अमृता को चाहता है, पर वह तो अपने पति के इंतजार में बैठी है। ब्याह के पश्र्चात उसकी पढ़ाई-लिखाई छूट गई, पर श्रेयस पढ़-लिख कर ग्रेजुएट बन गया है। हमारी माटी के अच्छे-बुरे संस्कारों को उजागर करती हुई फिल्म आगे बढ़ती है। दर्शक फिल्म की कहानी पर गौर फरमायें तो उन्हें औद्योगिकरण बनाम खेती जैसी गॉंव की कई छोटी-मोटी समस्याएं ऩजर आयेंगी और फिल्म उनके व्यक्तित्व को समृद्घ कर जायेगी।

श्रेयस का पत्र-लेखन इतना जानदार है कि वह जाने-अनजाने में गॉंववालों की जिंदगी में दखल देने लगता है। कभी इसके परिणाम म़जेदार होते हैं तो कभी गंभीर। जैसे श्रेयस से जब अमृता अपने पति कोे पत्र लिखवाती है, तो उससे मामला खूब बिगड़ जाता है, किंतु बहुत ही होशियारी से श्रेयस उस बात को सम्हाल लेता है। यह दृश्य दर्शकों को बहुत आकर्षित करते हैं।

चित्रपट का एक मजबूत पहलू है-किरदारों का अभिनय। श्रेयस व अमृता का अभिनय तो लाजवाब है और सहायक कलाकार भी अपनी छाप छोड़ जाते हैं। शंातनु मित्रा के संगीत के बारे में कुछ दर्शकों को लग सकता है कि फिल्म में गाने कम होते तो अच्छा रहता। श्याम बेनेगल ने फिल्म में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा अन्य मुद्दों को बड़ी खूबी के साथ उजागर किया है, जिन पर विचार करना लाभप्रद रहेगा।

 

–     अनिल एकबोटे

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