बैरकों से फिर निकल सकती है सेना

रखरखाव के रिश्ते अधिक समय तक कायम नहीं रहते हैं, पाकिस्तान में भी यही हुआ। पूर्व राष्टपति परवे़ज मुशर्रफ के विरुद्घ साझा दुश्मनी पाकिस्तान की दो मुख्य राजनीतिक पार्टियों-पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और मुस्लिम लीग (नवा़ज) को एक मंच पर रोके हुए थी, लेकिन जैसे ही मुशर्रफ से मुक्ति मिली, इन दोनों दलों के पास साथ चलने के लिए कोई और मुद्दा बाकी नहीं बचा। इसलिए बीती 25 अगस्त को नवाज शरीफ गठबंधन सरकार से अलग हो गए और पाकिस्तान में राजनीतिक संकट उत्पन्न हो गया। अब सवाल यह है कि आगे आने वाले दिनों में पाकिस्तानी सियासत का क्या रुख रहेगा?

पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और मुस्लिम लीग (नवा़ज) हमेशा ही एक-दूसरे की राजनीतिक प्रतिद्वंदी रही हैं। मुशर्रफ पर दोनों का गुस्सा और बेऩजीर भुट्टो की आकस्मिक हत्या जैसे हंगामी हालात ने दोनों को एक मंच पर आने के लिए मजबूर कर दिया था, लेकिन सवाल तब भी यही था कि यह बेमेल जोड़ी कितने दिन साथ रहेगी? यह मुमकिन था कि इनका सियासी साझीपन अभी कुछ दिन और चलता, लेकिन पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सह-अध्यक्ष आसिफ अली ़जरदारी की महत्वाकांक्षा और डर ने रिश्तों को समय से पहले ही तोड़ दिया। महत्वाकांक्षा इस लिहाज से कि अपनी पार्टी का प्रधानमंत्री बनाने के बाद अब ़जरदारी, राष्टपति अपनी ही पार्टी से बनाना चाहते हैं बल्कि स्वयं बनना चाहते हैं। डर इसलिए कि अगर सुप्रीम कोर्ट के बर्खास्त न्यायाधीशों की पुनर्बहाली हो गई तो कहीं उनके ही खिलाफ बंद किए गए मुकदमे फिर से न खोल दिए जाएं। गौरतलब है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाल करने के उद्देश्य से मुशर्रफ ने राष्टपति रहते हुए ़जरदारी को आम माफी दे दी थी और उनके खिलाफ जो भ्रष्टाचार के मुकदमे थे, उन्हें इस वायदे के साथ वापस ले लिया था कि उन्हें फिर नहीं खोला जाएगा। लेकिन इस आम माफी को कई मानवाधिकार संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है। ़जरदारी को डर है कि अगर बर्खास्त मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को फिर बहाल कर दिया गया, तो वे इन मुकदमों को खोल सकते हैं।

दरअसल, नवा़ज शरीफ बार-बार जो बर्खास्त न्यायाधीशों की बहाली पर जोर दे रहे हैं, तो उसका असल मकसद भी ़जरदारी की सियासी घेराबंदी करना ही है। हालांकि इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तानी अवाम के लिए बर्खास्त न्यायाधीशों की पुनर्बहाली भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई है और मियां नवा़ज शरीफ सियासी लाभ के लिए इस भावना का इस्तेमाल करना चाहते हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो ़जरदारी और नवा़ज की आपसी राजनीतिक चालों ने गठबंधन सरकार को संकट में डाल दिया है। इस संकट के बढ़ने के ही आसार हैं क्योंकि ़जरदारी के खिलाफ राष्टपति के चुनाव में नवा़ज ने भी अपने उम्मीदवार पूर्व न्यायाधीश सईदउ़ज़्जमा सिद्दीकी को मैदान में उतार दिया है। राष्टपति का चुनाव आगामी 6 सितंबर को होगा जिसमें राष्टीय असेंबली के अलावा पाकिस्तान के चारों सूबों की असेंबलियां मतदान करेंगी। इनमें पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी व उसके सहयोगी दलों को जो समर्थन प्राप्त है, उसके आधार पर यह अनुमान लगाना गलत न होगा कि ़जरदारी आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन इससे भी पाकिस्तान की राजनीतिक समस्या का समाधान होना कठिन है। इसलिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि पाकिस्तान में अब राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठेगा?

गठबंधन से नवा़ज के अलग होने पर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार को कोई खास खतरा नहीं है और मध्यावधि चुनाव होने की भी संभावना कम है। ऐसा इसलिए क्योंकि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी राष्टीय असेंबली में इतना समर्थन जुटा लेगी कि उसे सरकार चलाने के लिए बहुमत प्राप्त हो जाए। यह अलग बात है कि संविधान में संशोधन करने के लिए आवश्यक दो-तिहाई बहुमत अब वह नहीं जुटा पाएगी। लेकिन बहुमत हासिल करने से सरकार पर मंडरा रहा खतरा टलेगा नहीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि बर्खास्त न्यायाधीशों की बहाली के लिए वकीलों ने फिर से संघर्ष शुरू कर दिया है। गौरतलब है कि हाल फिलहाल में पाकिस्तान ने लोकतंत्र की तरफ जो कदम बढ़ाए हैं, उनमें वकीलों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। अब ़जरदारी व्यक्तिगत कारणों से बर्खास्त न्यायाधीशों को बहाल नहीं करना चाहते, इसलिए टकराव बढ़ेगा ही। टकराव इसलिए भी बढ़ेगा क्योंकि अब नवा़ज विपक्ष में होंगे और खुलकर सरकार की घेराबंदी करने का प्रयास करेंगे। दूसरा अहम मुद्दा यह है कि संसद को भंग करने की शक्ति जो फिलहाल राष्टपति के पास है, उस पर विराम लगाया जाए या नहीं? नवा़ज सहित बाकी विपक्ष चाहता है कि राष्टपति का पद सिर्फ सजावटी रहे और राष्टपति को ऐसे अधिकार प्राप्त न हों कि वह अपनी मर्जी से संसद को भंग कर सकें। जबकि ़जरदारी की पार्टी का इस संदर्भ में ढुुलमुल रवैया है।

बहरहाल, पाकिस्तान में इस वक्त राजनीतिक आस्थरता का जो माहौल है और संकट व टकराव बढ़ने की जो आशंकाएं हैं, उनसे यह डर उत्पन्न हो गया है कि सेना फिर सियासत में हस्तक्षेप करके सब कुछ अपने कब्जे में कर सकती है। सेना प्रमुख अश्फाक कियानी ने जिस तरह हाल ही में मुशर्रफ का साथ देने से इन्कार कर दिया था, उससे उनकी महत्वाकांक्षाएं किसी से छुपी हुई नहीं रहीं। अब नवा़ज और ़जरदारी आपस में लड़कर सेना के लिए ही रास्ता बना रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि नवा़ज के अलग होने से कमजोर हुई सरकार में न तालिबान से लड़ने की क्षमता है, न ही इस्लामी अतिवादियों पर लगाम कसने की हिम्मत और न ही आतंकवाद को नियंत्रित करने की ताकत है। जब वकीलों का आंदोलन तेज होगा और इस्लामी चरमपंथी अपने दबदबे को फिर से स्थापित करने की कोशिश करेंगे तो अहमद ऱजा गिलानी की सरकार में इतनी ताकत नहीं होगी कि कानून व्यवस्था को बनाये रखा जा सके। दूसरे शब्दों में सियासी बेवकूफियों के कारण सेना के लिए ही ़जमीन तैयार हो रही है।

हालांकि हाल-फिलहाल के दिनों में पाकिस्तान में जो नए सियासी समीकरण उभरे हैं, उनमें अमेरिका के राष्टपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ़जरदारी के समर्थन में ही खड़े नजर आ रहे हैं, लेकिन नवा़ज शरीफ जिस चतुराई से अपने पत्ते चल रहे हैं, उससे वह ही जबरदस्त राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरते प्रतीत हो रहे हैं। नवाज को मालूम है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र की मंजिल तक वकीलों के गलियारे से ही पहुंचा जा सकता है, इसलिए वे न सिर्फ बर्खास्त न्यायाधीशों की बहाली पर जोर दे रहे हैं बल्कि उन्होंने एक पूर्व न्यायाधीश को भी राष्टपति चुनाव में अपनी पार्टी का उम्मीदवार बनाया है। यह सब प्रतीकात्मक ही है क्योंकि ़जरदारी का राष्टपति बनना तय है, लेकिन सियासत में प्रतीकों का जबरदस्त महत्व होता है। खासकर जब अवाम उन्हीं की वजह से आप से जुड़ रही हो। इस लिहाज से यह कहना गलत न होगा कि अगर सेना बैरकों में ही रही तो पाकिस्तान की सियासत जल्द ही नवाज शरीफ के इर्द-गिर्द ही घूमेगी।

 

– डॉ. एम.सी. छाबड़ा

 

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