मर्यादाएँ भूलने की आदत अच्छी नहीं

बरसों पुरानी बात है, “इलेस्टेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ में छत्रपति शिवाजी के बारे में एक लेख छपा था, जिस पर कुछ लोगों को आपत्ति थी। मामला महाराष्ट विधानसभा में भी गूंजा था और तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उस लेख को बिना पढ़े ही विधानसभा में घोषणा कर दी थी कि वीकली के खिलाफ मुकदमा चलाया जाएगा। मुकदमा दायर भी हुआ। लेकिन उस मुकदमे का नतीजा क्या निकला? नतीजे की बात छोड़िए, आज शायद ही किसी को यह याद भी हो कि मुकदमा दायर हुआ था। इस तरह की बातें हम अकसर भूल जाते हैं। कुछ दिन बाद शायद हम यह भी भूल जाएंगे कि लोकसत्ता के संपादक के घर पर हमला हुआ था। यह सही है कि अभी मामला गर्म है, कुछ लोगों की गिरफ्तारी भी हुई है, लेकिन क्या यह संभव नहीं कि वीकली वाले मामले की तरह उसे भी भुला दिया जाएगा?

कुमार केतकर के घर पर हुए हमले के आसपास ही अहमदाबाद में एक उच्च पुलिस अधिकारी ने एक राष्टीय अखबार के स्थानीय संपादक के खिलाफ “देशद्रोह’ का मामला दायर किया था। संपादक का कसूर यह था कि उसने उस अधिकारी के खिलाफ लिखा था। इस मामले में भी लोग अभी से भूलने लगे हैं।

यह सवाल तो अपनी जगह है ही कि इन तीनों मामलों में “अपराध’ किसका था, लेकिन इससे कहीं महत्वपूर्ण सवाल यह है कि हम ऐसे मामलों को भुला क्यों देते हैं? यह तीनों उदाहरण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से ही नहीं जुड़े हैं, इनका रिश्ता इस बात से भी है कि जनतंत्र में मीडिया को एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका भी निभानी होती है। बरसों पहले इलेस्टेटेड वीकली वाले मामले में भी यह सवाल उठा था कि कोई सरकार किसी पत्रिका को इस तरह न्यायालय में कैसे घसीट सकती है और अब अहमदाबाद के अखबार तथा मुंबई के केतकर वाले मामले में भी यह सवाल उठ रहा है कि सरकार अथवा जनता का कोई वर्ग विशेष इस तरह सेंसरशिप कैसे लगा सकता है?

“वीकली’ वाले मामले में भी बात शिवाजी महाराज के कथित अपमान की थी और लोकसत्ता वाले मामले में भी ऐसा ही आरोप है। दोनों ही मामलों में जनता को या जनता के प्रतिनिधियों को अपनी नारा़जगी और अपना विरोध प्रकट करने का पूरा अधिकार है। यदि कोई दोषी है तो उसे दंड भी मिलना चाहिए। लेकिन दोषी करार देने और स़जा सुनाने का जो तरीका इन उदाहरणों में सामने आया है, वह न केवल गलत है बल्कि जनतांत्रिक प्रणाली के मूल आधारों पर भी हमला करता है। अहमदाबाद वाले मामले में एक पुलिस कमिश्र्न्नर ने अपनी आलोचना को “देशद्रोह’ मान लिया और मुंबई में एक संगठन ने यह मान लिया कि शिवाजी महाराज के सम्मान की चिंता सिर्फ उसे ही है। शिवाजी पूरे राष्ट के नायक हैं, उनका अपमान कोई भी नहीं सहेगा। लेकिन जिस तरह से कथित अपमान का बदला लेने के नाम पर कानून हाथ में लिया जा रहा है, उसकी चिंता प्रबुद्घ समाज को होनी चाहिए। इस तरह के प्रकरण भुलाये नहीं जाने चाहिए, जनतांत्रिक समाज को इन पर गंभीर चिंतन करना चाहिए।

जिस जनतांत्रिक व्यवस्था को हमने अपने लिए स्वीकारा है और जिसे सबसे कम कमियों वाली शासन व्यवस्था कहा गया है, उसमें विरोध को पूरा महत्व दिया गया है। परस्पर विरोधी विचारों के लिए जनतंत्र में पूरी जगह होनी चाहिए। सच तो यह है कि विरोधी विचार प्रकट करने की आ़जादी और अधिकार ही जनतांत्रिक व्यवस्था को विशिष्ट और सारगर्भित बनाते हैं। यह आजादी और अधिकार सिर्फ राजनीति से जुड़े लोगों का ही नहीं है। इस कार्य में कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका बुद्घिजीवियों एवं मीडियाकर्मियों की है। वस्तुतः ये जनतांत्रिक व्यवस्था के चौकीदार होते हैं। ये गफलत करें या उन्हें झपकी लग जाए तो इस बात की पूरी आशंका है कि स्थिति का गलत फायदा उठाने वाले सफल हो जाएंगे।

जब हम गलत फायदा उठाने वालों की बात करते हैं तो इसमें वो सब शामिल होते हैं जो अपने स्वार्थों के लिए समाज और राष्ट के हितों की अवहेलना करते हैं। राजनीतिक दल या वक्त की सरकारें अकसर गलत फायदा उठाने के लालच से बच नहीं पातीं। इसलिए जरूरी हो जाता है कि मीडिया या संचार माध्यम चौकीदारी की अपनी भूमिका की महत्ता और जिम्मेदारी को समझें। यही दायित्व-बोध अहमदाबाद के किसी संपादक को पूरी व्यवस्था से जूझने की ताकत देता है। और अपनी भूमिका के प्रति यही जागरूकता किसी कुमार केतकर को वैयक्तिक खतरे उठाने का साहस देती है। कतई आवश्यक नहीं कि किसी लेखक-पत्रकार की हर बात से हर कोई सहमत हो ही। जो असहमत हैं उन्हें भी अपनी असहमति दर्ज कराने का पूरा अधिकार है। अपना विरोध जताने का अवसर उन्हें मिलना ही चाहिए। लेकिन विरोध का वह तरीका किसी भी सभ्य एवं कानून का आदर करने वाले समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता जो केतकर की बात का विरोध करने वालों ने अपनाया था। किसी की भावनाओं को आघात पहुँचाना अच्छी बात नहीं है, लेकिन भावनाओं के नाम पर कानून हाथ में ले लेना भी तो सही नहीं कहा जा सकता। कुमार केतकर के घर पर हमला करने वाले उनके के दफ्तर के बाहर भी तो प्रदर्शन कर सकते थे। यही उचित होता और जनतांत्रिक मर्यादाओं के अनुकूल भी।

जनतंत्र की मर्यादा का एक पैमाना यह है कि हम यह समझ अपने भीतर पैदा करें कि दूसरे से असहमत होते हुए हम अपनी बात कहने के उसके अधिकार की रक्षा करेंगे। दूसरा पैमाना यह है कि मीडिया को अपना दायित्व पूरा करने का अवसर और सुविधा दी जाए। इसका तात्पर्य यह है कि मीडिया भी अपना काम ईमानदारी और निष्ठा से करे तथा व्यवस्था और समाज उसके काम में बाधक न बनें। अहमदाबाद के पुलिस कमिश्र्न्नर को पूरा हक है कि किसी पत्रकार से शिकायत होने पर उसके खिलाफ कार्रवाई करने का लिखित जवाब मांगें। लेकिन पुलिस कमिश्र्न्नर या सरकार की आलोचना करने को “राष्टद्रोह’ मान लिया जाए, तो यह शक होना स्वाभाविक है कि व्यवस्था अपनी रक्षा के नाम पर किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार है। जनतंत्र में व्यवस्था की रक्षा का मतलब व्यवस्था से जुड़े व्यक्तियों की रक्षा नहीं होता, इस व्यवस्था का मतलब होता है कुछ मूल्यों-आदर्शों के अनुरूप आचरण। जब-जब इस आचरण में कहीं कोई खामी ऩजर आये, मीडिया का दायित्व बनता है कि वह उसे उजागर करे। व्यवस्था और समाज का दायित्व यह है कि वह मीडिया के दायित्व निभाने में मददगार बने। यह बात सभी संबंधित पक्षों को याद रखनी होगी-प्रकरणों को भुलाकर कोई जनतांत्रिक समाज सावधान रहने की भूमिका ईमानदारी से नहीं निभा सकता।

– विश्वनाथ सचदेव

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