महालक्ष्मी की पूजा का त्यौहार

भारत देश सनातन वेदकालीन संस्कृति संपन्न देश है। तपस्वी संतों ने इसे सुसंस्कृत और सुसंपन्न बनाया। वेद-पुराण की रचना कर मानव-जाति का कल्याण किया। भारत में विभिन्न भाषाएं, धर्म-पंथ व जातियां होने के उपरांत भी उन सबमें एकता झलकती है। और यह एकता त्योहारों व पर्वों के अवसर पर दिखाई देती है। हिन्दू-धर्म में हर तीज-त्योहार का अपना महत्व व रीति होती है।

ऐसा ही एक त्योहार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी, अष्टमी और नवमी को महाराष्ट में मनाया जाता है। इस त्योहार में लक्ष्मी की पूजा की जाती है। महाराष्ट के पंचांग के अनुसार अमावस्या के बाद नव-मास का आरंभ होता है। इसीलिए श्रावण मास की अमावस्या के पश्र्चात प्रतिपदा से भाद्रपद मास शुरू होता है।

प्राचीन समय की बात है- पृथ्वी पर दानवों का प्रभाव था। वे देवताओं को भी परेशान किया करते थे, जिससे देवताओं की अर्धांगिनियों को भी अपने सौभाग्य की चिंता बनी रहती थी। इसीलिए सभी देवियों ने एकत्र होकर महालक्ष्मी की पूजा-आराधना करने का प्रण लिया। पूजा में एक मटके पर लक्ष्मी जी का चेहरा बनाकर, उसका विभिन्न अलंकारों से श्रृंगार कर अनेक प्रकार के पकवानों का भोग लगाया गया। महालक्ष्मी ने पूजा-आराधना से प्रसन्न होकर सोलह वलयों का एक-एक कवच उन सब देवी-देवताओं को प्रदान किया, जिससे सभी रक्षित हो गये। सबका जीवन सुरक्षित हो गया।

इस घटना के पश्र्चात से ही श्रीमहालक्ष्मी देवी की पूजा-पद्घति का शुभारंभ हुआ। ये पद्घति समस्त भारत में भिन्न-भिन्न तिथियों व विधियों में प्रचलित है। महाराष्ट में जिस प्रकार से इस त्योहार को मनाया जाता है, वह पद्घति अलग है।

शुक्ल भाद्रपद मास की सप्तमी को मटके के ऊपर हल्दी-चंदन का लेप कर पलाश के फूलों के रंग से आँख, नाक, कान बनाये जाते हैं। ऐसे दो मटके बनाये जाते हैं, जिनका नाम जेष्ठा और कनिष्ठा होता है। ये दोनों महालक्ष्मी के ही रूप होते हैं और इन दोनों की बहनों के रूप में पूजा की जाती है। छोटे मटके पर नाक-आंख बनाकर लड़का और लड़की के प्रतीक रूप में इनके बच्चे बनाये जाते हैं। सप्तमी की संध्या के समय मंडप में इन्हें स्थापित किया जाता है। मंडप को आम के पत्ते व फूल-मालाओं से सुसज्जित किया जाता है। चावल और जवारी से मंडप के अंदर चौकोर बनाया जाता है। घर-आंगन को रंगोली से सजाया जाता है। गृहलक्ष्मी भी नये वस्त्र व आभूषण धारण करती है। एक छोटी-सी थाली में हल्दी और रोली का पेस्ट बनाया जाता है। गृहलक्ष्मी मुख्य-द्वार से एक हाथ रोली का और एक हाथ हल्दी का जमीन पर रखते हुए, हाथ के निशान बनाती हुई मंडप तक पहुंचती है। जब वह थापे (निशान) लगाते हुए आगे बढ़ती है, तो घर के लोग मंजिरे बजाते हुए उससे पूछते हैं -“”कौन आ रहा है?” वह कहती है-“”सोने और चांदी के पांव से लक्ष्मी आ रही है। जेष्ठा-कनिष्ठा आ रही है।” बच्चों को भी जेष्ठा-कनिष्ठा के सामने बिठाया जाता है। पीले कपड़ों पर रुई की बात्ती से हाथ का आकार बनाया जाता है। ऐसा लगता है कि महालक्ष्मी भूमि पर उतर आयी है। दूसरे दिन पूरा घर-आंगन बुहारा जाता है। यही दिन आष्टमी का प्रमुख होता है। तागे से सोलह- सोलह भाग बना कर कवच बनाया जाता है और घर में जितने भी लोग होते हैं, उतने लोगों के लिये और छोटे बच्चों के लिये पांच-पांच भागों का कवच बनाया जाता है। उसे हल्दी में डूबोकर महालक्ष्मी के सिर पर रखकर पूजा की जाती है।

इस दिन भोग में सोलह किस्म की साग-सब्जी, पुरणपोली, गुझिया, खीर, पकोड़ी, पापड़ बनायी जाती है। घर के पुरुष-वर्ग का काम पूजा का होता है, क्योंकि गृहलक्ष्मी तो पकवान में रहती है। पूरा पकवान तैयार करने के बाद भोग लगाया जाता है जिसके लिये बड़ी-बड़ी थालियां होती हैं। आरती व प्रसाद-भोजन होने के बाद अष्टमी के दिन की पूजा पूरी हो जाती है। नवमी के दिन सुबह जल्दी-जल्दी घर की गृहिणी स्नान करके लक्ष्मी को हल्दी, रोली से पूजती है और फलों व दूध का भोग लगाती है। कवच के धागे में सोलह-सोलह गांठें लगाई जाती हैं और घर के हर सदस्य के कंठ व हाथों में ये धागे बांधे जाते हैं। घर के सब परिवार के लोग उस दिन जल्दी स्नान कर लक्ष्मी के पास आते हैं। जब तक ये गांठें नहीं बांधी जाती हैं, तब तक पैसों का लेन-देन का व्यवहार नहीं होता है। ऐसी मान्यता है कि धागे में गांठें लगाने से पहले पैसों का लेन-देन करने से लक्ष्मी चली जाती है। ये कवच एक महीने के बाद उतारे जाते हैं और तिजोरी में संभाल कर रखे जाते हैं। इसे यहां-वहां फेंकना नहीं चाहिए। वैसे ही लक्ष्मी का लगाया भोग भी किसी को नहीं देना चाहिए। यही नियम होता है। महालक्ष्मी का यह त्योहार पूरे महाराष्ट में व भारत के विभिन्न प्रांतों में मनाया जाता है।

– लता मुकिम

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