मैं आऊँगी नाजिमा

कई दिनों की लगातार बरसात के बाद कुदरत आज कुछ मेहरबान थी। धीरे-धीरे सूरज की किरणें धरती पर बिखरने लगी थीं। पहाड़ी क्षेत्र और ऊपर से सप्ताह भर की बरसात ने ठंड से सबका बुरा हाल कर दिया था। खिली धूप देखकर सबके चेहरे चमक उठे थे। जम्मू-कश्मीर का यह द्रास इलाका था।

द्रास से 20 किलोमीटर पश्र्चिम की ओर पाकिस्तान की सीमा के साथ लगने वाला ये छोटा-सा गांव था, जहां लोग ऊबड़-खाबड़ पहाड़ पर आधे-आधे किलोमीटर के फासले पर रहते थे। आजीविका के नाम पर इन लोगों के पास कुछ भेड़ें, कुछ बकरियां और घोड़े या खच्चर देखे जा सकते थे। नाजिमा का अब्बू जुम्मन अली भेड़ व बकरियां चराता था, जिससे दूध प्राप्त होता था। एक घाटी में अपनी छोटी-सी मैदानी जमीन पर वह अफीम और केसर की फसल भी उगाता था। इसके अतिरिक्त उसके दो बादाम, चार सेब, कुछ अखरोट और कुछ रीठे के वृक्ष थे, जिनके फल-बीज बेचकर अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करता था। इसके लिए उसे छोटे-से मैदानी कस्बे तक पहुंचने के लिए बीस किलोमीटर का आने-जाने का सफर तय करना पड़ता था।

नाजिमा की अम्मा नूर जमालो भी कोई कम मेहनती नहीं थी। ऊन के काम पर उसकी अच्छी पकड़ थी। शॉल, टोपी, कुर्ते, ओढ़नी पर बहुत ही अच्छी कसीदाकारी करती थी। नूर जमालो की मेहनत का असर नाजिमा पर भी गहरा था। रसोई-कढ़ाई में वह भी अपनी अम्मां से कई गुना आगे निकल गयी थी।

इस गांव के घर दूर-दूर तक फैले थे। इस कारण यहॉं के लोग आपस में जरूरत पड़ने पर या शादी-ब्याह में अथवा ईद-त्योहार के मौकों पर ही मिल पाते थे।

बरसात की वजह से नाजिमा का परिवार घर से बाहर नहीं निकल पाया था। धूप निकलते ही जुम्मन पशुओं को हांकने के लिए घर से चल पड़ा था। नूर जमालो खाना बनाने में जुट गयी थी। नाजिमा कई दिनों से पड़े गंदे कपड़े धोने के लिए नाले की ओर बढ़ गयी थी। पहाड़ी नाले का पानी बहुत ठंडा था, मगर नाजिमा बचपन से ही इस ठंडे पानी में मौज के साथ काम करती थी। कई बार तो देरी हो जाने पर अम्मा नाले तक चलकर आ जाती थी और नाजिमा को यह कह कर डांट लगाती थी, “”अरी नादान छोकरी, पानी से बाहर निकल, बीमार हो जाएगी।”

नाजिमा ने ढेर सारे गंदे कपड़े धोकर उन्हें सुखाने के लिए उबड़-खाबड़ ढलानों पर बिछा दिये थे। मौसम सुहावना था, इसलिए उसने नहाने का मन बनाया और रीठों से मल-मल कर अपने बालों को धोया, फिर बदन पर रीठे के छिलके रगड़-रगड़ कर मले। जब वह नहाकर बाहर निकली, तो उसका शरीर चांद की माफिक चमक उठा था। वह स्वयं अपने बदन को देखकर शरमा गयी थी। हवा बेशक ठंडी चल रही थी, मगर इन दो घंटों के अंतराल में आधे-अधूरे कपड़े सूख चुके थे। वह कपड़ों की गठरी को अपने सिर पर उठा कर घर की ओर बढ़ रही थी।

अचानक उसे सिर चकराता हुआ-सा लगा था। वह गिरते-गिरते बची थी। अगले दो क्षणों में जो हुआ, वह सारे विश्र्व भर के लिए दुःखदायी था। इतना जबरदस्त भूचाल आया था कि पाकिस्तान से दिल्ली तक इसके झटके महसूस किये गये थे। कई शहर जमीन के नीचे दब गये थे। सब कुछ धरती की गोद में समा गया था।

जैसे-तैसे वह घर पहुंची। बापू और अम्मां बाहर बैठे कुरान-ए-शरीफ की आयतें पढ़ रहे थे। वे दोनों हाथ फैलाए अल्लाह से रहम की दुआ मांग रहे थे। नाजिमा घबराई-सी खड़ी आकाश को निहार रही थी। तब एक और अप्रत्याशित घटना घटी थी। नाजिमा के लिए ये दुर्घटना भूकंप से भी भयंकर थी।

तीन पाक आतंकवादी वहां आ धमके थे। वे शक्ल-सूरत से बड़े खूंखार लग रहे थे। तीनों आधुनिक हथियारों से लैस थे। अम्मा और अब्बू खुदा की दुआ से अभी फारिग हुए थे। उन्हें समझने में देर नहीं लगी थी कि वे तीनों नेक इरादे से नहीं आये थे। नाजिमा को वे कामुक नेत्रों से घूर रहे थे। वह बहुत ही बुरी तरह से घबराई हुई थी।

अब्बू कुछ बोलते, उससे पहले ही एक ने तल्ख लहजे में पूछा था, “”ए बुढ़िया, घर में कुछ खाने को है?”

“”इस वक्त तो कुछ नहीं है, बेटा।”

“”खामोश बुढ़िया, खबरदार, जो हमको बेटा कहा! हमारी कोई मां नहीं। हमारी मां, हमारा बाप केवल आतंक है। हर हिन्दुस्तानी हमारा दुश्मन है।”

“”खैर, यह सब तो हम बाद में निबटेंगे, पहले हमें भूख मिटाने के लिए कुछ दो।”

“”इस वक्त कुछ तैयार नहीं है।” बूढ़ा हाथ जोड़ कर कहने लगा था।

“”हरामखोर!” चीखते हुए उनमें से एक ने जुम्मन की लंबी दाढ़ी खींच डाली थी, फिर क्रोध में अंगारे उगलता हुआ बोला था, “”हमें खिलाने के लिए कुछ नहीं है और हमारी जासूसी करके हिंदुस्तानी फौजियों को देने के लिए सब कुछ है तुम्हारे पास।”

“”नहीं-नहीं, हम ऐसा नहीं करते।” कहता हुआ बूढ़ा गिड़गिड़ाने लगा था।

“”तो हमारे पांच आतंकवादी साथी हिन्दुस्तानी फौजियों के हाथों कैसे मारे गये? कोई तो इस इलाके का आदमी उन तक खबर पहुँचाता है।”

“”पता नहीं, हरगिज नहीं। मगर एक बात कान खोलकर सुन लो तुम। एक सच्चा मुसलमान जिस देश का अन्न खाता है, नमकहरामी नहीं करता।”

“”अभी बताते हैं तेरी वफादारी।”

वह गुस्ताख नाजिमा की ओर बढ़ने लगा था। दूसरे अपनी राइफलें ताने बूढ़े-बुढ़िया को निशाना बनाए खड़े थे। बूढ़ा यह सब अपने जीते-जी नहीं देख सकता था। न जाने कहां से उसमें जोश आ गया था और उसने उछल कर उस आतंकवादी के हाथ से रायफल छीन ली थी, मगर दूसरे आतंकवादी ने जुम्मन की पीठ पर गोली दाग दी थी।

वह चीख मारकर धरती पर गिर पड़ा और मौत की गोद में सो गया था।

बुढ़िया भूखी शेरनी की तरह बिफर पड़ी थी। चीते की फुर्ती के साथ वह गोली मारने वाले की लंबी दाढ़ी अपने दोनों हाथों से पकड़ कर खींचने लगी थी। नाजिमा भी गुत्थमगुत्था हो गई थी, मगर आतंकवादी के दूसरे साथी ने रायफल की बट से उसके सिर पर प्रहार कर दिया था और वह बेहोश होकर गिर पड़ी थी। तीसरे आतंकवादी ने बुढ़िया को गोली मार कर ठंडा कर दिया था। इसके बाद वे तीनों हैवान बन गये थे। उन्होंने नाजिमा के साथ जो किया, वह इन्सानियत के लिए शर्मनाक था। जब दुश्कर्म करने के बाद भी जी नहीं भरा तो जाते-जाते उनमें से एक ने नाजिमा पर गोली दाग दी थी। गोली उसकी दायीं बाजू में लगी थी। खून से धरती लथपथ हो गयी थी। नाजिमा को मृत समझ कर वे पहाड़ों की घाटियों में भाग चले थे।

भूचाल प्रभावग्रस्त इलाके में राहत का कार्य शुरू हो गया था। भारतीय सेना की टुकड़ियां छोटे-छोटे दलों में पैदल निकल पड़ी थीं। पहाड़ों की ढलानों और ऊँचाइयों तक उन्हें वहां पहुंचना था, जहां किसी भी साधन द्वारा पहुंचा नहीं जा सकता था। सेना की एक टुकड़ी में केवल तीन जवान थे-शमशेर, दिलेर और सुमेर। कदम बढ़ाते ऊबड़-खाबड़, पथरीले रास्ते, कंटीले और गहरे घने पेड़ों के बीच रुकते-चलते उनकी हालत बुरी हो गई थी।

सहसा दिलेर की आंखें चमक उठी थीं। दूर एक टीले पर बना लकड़ी का मकान उसे दिखाई दिया था।

“”वहां अवश्य कुछ आबादी होगी। वहां भी भूकंप ने तबाही मचाई होगी, चलो चलकर खबर लेते हैं।” उसने उत्साहित होकर कहा और तीनों उसी दिशा में बढ़ चले। वे लगभग दो घंटे तक लगातार चलते रहे। उस मकान के पास पहुँच कर उन्होंने जो दृश्य देखा, तो दंग रह गये। तीन लाशें जमीन पर खून से लथपथ पड़ी थीं। घर का सामान इधर-उधर बिखरा पड़ा था। मकान को कोई क्षति नहीं पहुंची थी, केवल लकड़ी का एक खंभा टूटा था। यह बात समझने में उन्हें देर नहीं लगी थी कि यह कारनामा शत्रु का ही है।

“”किसी घुसपैठिये की करतूत लगती है। जरूर कहीं आसपास के खंडहर में छुपे होंगे। भूख मिटाने के लिए आये होंगे और ाोध में आकर इन लोगों की हत्या कर दी होगी।” सुमेर ने अंदाजा लगाते हुए कहा था।

शमशेर कहने लगा, “”बिल्कुल सही कहते हो तुम। चलो, पहले उनसे ही निबटते हैं।”

“”यदि मार गिराएं तो अवश्य हमें सरकार की तरफ से शौर्य पुरस्कार मिलेगा।” दिलेर कह ही रहा था कि इतने में नाजिमा के शरीर में कुछ हरकत हुई थी।

“”अरे, ये तो जिंदा है।” हैरानी के साथ सुमेर कहने लगा था।

औंधेमुंह पड़ी नाजिमा को जब सीधा पलटाकर देखा तो उसकी दायीं बाजू में गोली लगी थी। गोली अभी भी वहां धंसी हुई दिखाई दे रही थी, खून रिसकर कई जगह पर जम गया था। सांस अभी भी चल रही थी। दिलेर ने जोर से उसके मुंह पर पानी के छींटे मारे थे। लगभग आधे घंटे की मेहनत के बाद नाजिमा ने आँखें खोलीं थीं। दर्द से उसका बुरा हाल था। वह कराते हुए कह रही थी, “”रहम-रहम, मुझ पर रहम करो। हमने आपका क्या बिगाड़ा है?” वह बहुत ही डरी हुई लग रही थी।

“”हम तुम्हें मारने नहीं, बचाने आये हैं। उठो-शबाश।” कहते हुए सुमेर ने सहारा दिया था।

“”आप कौन हैं?” उसने संशय भरी दृष्टि से तीनों को देखा तो पूछने लगी थी।

“”हम भारतीय सेना के सिपाही हैं, भूकंप पीड़ितों की सहायता के लिए निकले थे। खैर छोड़ो, पहले तुम्हारी बाजू में फंसी गोली निकालते हैं।” दिलेर और शमशेर ने कसकर नाजिमा की बांह को पकड़े रखा था। सुमेर ने चाकू को गर्म करके उसकी नोक से बाजू में धंसी गोली बाहर निकाल दी। फर्स्ट एड बॉक्स खोलकर जख्म को साफ कर पट्टी कर दी गयी थी और एक पेनकिलर खाने के लिए दिया गया, तो उसने निगल लिया था।

धीरे-धीरे जब नाजिमा ने आपबीती का खुलासा किया, तो वे तीनों बदला लेने के लिए तड़प उठे थे। लिहाजा निर्णय लिया गया कि दिलेर नाजिमा की देखभाल के लिए रुकेगा और वे दोनों छिपे दुश्मनों की तलाश में निकलेंगे। नाजिमा ने समझाया भी था कि कुछ देर आराम करें, मगर वे रुकने वाले कहॉं थे!

दिलेर और नाजिमा दो दिन तक उनके आने का इंतजार करते रहे। वे कहां भटक गये? मुठभेड़ में उनका क्या हुआ? कोई पता नहीं चल पाया।

 

अचानक बर्फीला तूफान आया। सब कुछ सफेद चादर में लिपट गया। दिलेर बर्फ की कालकोठरी में नाजिमा के साथ बंद हो गया था। मकान की खिड़कियां, किवाड़, रोशनदान सभी बंद कर दिये गये थे। इस गुफा में एक लम्बा समय दोनों साथ बिताने के लिए विवश थे।

धीरे-धीरे नाजिमा सामान्य हो चुकी थी। उसकी सेहत अब पहले जैसी चमकने लगी थी। घर में खाने की कमी नहीं थी, खुश्क मेवे, मांस व अचार सर्दियों के लिए रखे गये थे।

सर्दियों की रातें और संयम इनसान के वश की बात नहीं थी। बाहर सर्दी और भीतर की आग कहीं झुलसाकर राख न कर दे। “”तुम बहुत अच्छी हो नाजिमा” कहते हुए, दिलेर नाजिमा की ओर देखने लगा। नाजिमा एक गहरी सांस भरते हुए कहने लगी, “”अच्छी थी, मगर अब तो गंदगी का ढेर हूं।”

“”क्यूं-क्यूं?” दिलेर ने पूछा।

“”सब कुछ जानते हुए भी अनजान मत बनो बाबू…. ” कहते हुए दो मोटे-मोटे आंसू उसकी आंखों से रेंगकर सेब जैसी गालों पर फिसल गये।

“”इसमें तुम्हारा क्या दोष है नाजिमा? जब मुझे कोई एतराज नहीं, तो तू काहे को परेशान होती है?”

नाजिमा उसका इरादा समझ गयी।

नाजिमा के चेहरे पर चमक आ गई थी और होंठों पर मुस्कान। उसकी आंखों में प्यार का निमंत्रण था। दिलेर ने उसे बाहों में भरकर अथाह प्रेम किया। नाजिमा ने उसका कोई विरोध नहीं किया। हंसते-हंसते समय कैसे पर लगाकर उड़ गया, पता ही नहीं चल पाया। दोनों जवान दिल एक-दूसरे से सहमत थे, मगर भावावेश में उन्होंने मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया था। वह उसे दुल्हन की तरह ले जाना चाहता था, मान-सम्मान के साथ।

मौसम ने एक बार फिर अंगड़ाई ली, परिंदे चहचहाने लगे। आकाश निर्मल हो गया।

सेना का एक हेलीकॉप्टर पहाड़ों के ऊपर से उड़ता दिखाई दिया। दिलेर जानता था, उसे अब तक मरा या लापता घोषित कर दिया होगा। एक डंडे पर बड़ा-सा रूमाल बांधकर उसने हवा में लहराया। चालक की नजर उस रूमाल पर पड़ी। हेलीकॉप्टर नीचे उतारा गया। दिलेर ने अपना पहचान-पत्र उसे दिखाया। दोनों कुछ देर वहां बैठे। दिलेर ने सारा किस्सा कह सुनाया। नाजिमा ने खुश्क मेवे की प्लेट उनके आगे रख दी।

थोड़ी देर के बाद चालक ने दिलेर को हेलीकॉप्टर में बैठने का आदेश दिया। वह नाजिमा को साथ ले जाता, परंतु ऐसा संभव नहीं था। वह जाते-जाते कहे जा रहा था, “”मैं आऊँगा नाजिमा, मैं आऊँगा नाजिमा”, और हेलीकॉप्टर हवा में ऊपर उड़ता चला गया। नाजिमा उदास मन से हाथ हिलाकर दिलेर का अभिवादन किये जा रही थी, जैसे कह रही हो- “”मैं इंतजार करूंगी।”

– गोपाल शर्मा फिरोजपुरी

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