रिकवरी ऑर्डर

जिलाधिकारी कार्यालय के सम्मुख फरियादियों का जमावड़ा नई बात नहीं थी। जिले भर के पीड़ित अपनी-अपनी उन समस्याओं के समाधान की गुहार लेकर उपस्थित थे, जिन्हें क्षेत्रीय अधिकारियों व कर्मचारियों ने अनसुना कर दिया था। जिलाधिकारी कार्यालय के पूर्वी ओर से साइकिल स्टैण्ड के पीछे का खुला मैदान विशेष रूप से फरियादियों के लिए ही रख छोड़ा गया था, जहां इक्का-दुक्का दलाल पीड़ितों से सहानुभूति दिखाते नजर आते थे। वे उनके प्रार्थना-पत्र यथास्थान जमा कराने के नाम पर कुछ ठगी कर लेते, कुछ भेंट-पूजा के नाम पर, कुछ पेट-पूजा के नाम पर।

जब से लोकतंत्र में पारदर्शिता की दुहाई देकर “सूचना का अधिकार’ को सर्वसुलभ बनाया गया है, तब से छुटभैयों की पौ-बारह हो गई है, जहां देखो वहां दस रुपये की पर्ची कटवाई और अधिकारियों को परेशान करने की नियत से कोई भी सूचना मांग ली। चाहे उस सूचना का संबंध संबंधित आवेदक से है या नहीं, पर सूचना के अधिकार का सवाल जो ठहरा। अधिकार है तो अधिकारों का प्रयोग करना सीखने में क्या बुराई है!

घमंडी नाई का लड़का नेमपाल इस अधिकार के चलते चपरासी से अधिकारी बन गया, राजपत्रित नहीं, अपने अधिकारों के साथ-साथ औरों के अधिकारों की पैरवी करने वाला अधिकारी। बांके हलवाई ने बाजार में बीस लीख की दुकान खरीदी, रजिस्टी कार्यालय में सर्किल रेट के आधार पर छः लाख रुपये की सरकारी कीमत पर बैनामा करा लिया। भनक नेमपाल को लग गई, सो सीधा बांके हलवाई की दुकान पर पहुंच गया और सूचना के अधिकार से बैनामे की प्रमाणित प्रतिलिपि बांके हलवाई को दिखाकर बोला, “”आप शहर के मशहूर हलवाई हैं, आपने दुकान बीस लाख में खरीदी है, बैनामा छः लाख रुपये का कराया है। इस प्रकार आपने सरकार को स्टाम्प ड्यूटी कम दी है।”

बांके हलवाई सच जानता ही था, फिर भी बोला, “”जो सरकारी रेट था, मैंने उस पर सरकार को टैक्स दिया है, पर आप कौन…?”

“”आप मुझे नहीं जानते! मैं सामाजिक कार्यकर्ता हूँ। सरकार को अधिक से अधिक आय कराना मेरा काम है। जो सरकार को चूना लगाते हैं, मैं उनके खिलाफ हूं। या तो बचत का कुछ हिस्सा मुझे दो, अन्यथा मैं शिकायत करूंगा।” अपने मकसद पर आ गया नेमपाल।

“”सीधी-सी बात है। आप मुझे ब्लैकमेल करना चाहते है।”

“”यह ब्लैकमेलिंग नहीं, “सूचना के अधिकार’ का कमाल है। मुझे अधिकार है कि मैं जनहित और सरकार के हित को देखूं।”

“”यह अधिकार आपको किसने दिया?”

“”सरकार ने…।”

बांके हलवाई भी कम खेले-खाए नहीं थे। शहर के विधायक का उन पर वरदहस्त था, सो उन्हें अपनी शक्ति का स्मरण हो आया। वह बोले, “”महाशय, आपने जो सुना है, गलत सुना है। मैंने दुकान छः लाख रुपये की ही खरीदी है। सही तरीके से बैनामा कराया है। आप सज्जन व्यक्ति हैं बैठिए। खाइये-पीजिए, दुकान खरीदने की खुशी में मुंह तो मीठा कीजिए।”

“”डेढ़-दो लाख रुपयों की बचत करके मुंह मीठा करा रहे हैं। मुझे कुछ नहीं खाना, यदि आप श्रीमान् जी सत्य को नहीं स्वीकरते हैं तो मैं कल ही राजस्व विभाग में आपके विरुद्घ शिकायत दर्ज करा देता हूँ। मुझ गरीब के पेट पर तो आप लात मार सकते हैं, पर जब सरकारी दफ्तर के बाबू जोंक की तरह आपसे चिपटेंगे तो छुटाना भारी पड़ जाएगा।” नेमपाल ने पैंतरा बदलकर शिकायत के उपरांत होने वाली कार्रवाई का भय दिखाया।

बांके हलवाई घाघ था, तुरंत पांच सौ का नोट नेमपाल को पकड़ाकर एक मिठाई का डिब्बा पैक करा दिया, “”लो भाई साहब, ाोध मत करो। हम मान गए आप समाजसेवी हैं, हमारी ओर से तुच्छ भेंट स्वीकार करें।”

नेमपाल ने पांच सौ का नोट लपकने में देर नहीं लगाई। तदुपरांत बोला, “”सेठ जी, आप हमें पटा रहे हैं। हम तो आपकी रियाया हैं। आप हमारा ख्याल रखेंगे तो हम भी आपका ख्याल रखेंगे, पर ये पैसे बहुत कम हैं। पहली किश्त समझकर रख रहा हूं। आगे भी खर्चा-पानी आपसे ही चलाना है।”

बांके हलवाई भुनकता रह गया, “”स्साले न जाने कहां-कहां से चले आते हैं। जैसे किसी का कर्जा लेकर खा रखा हो, कह रहा था पहली किश्त है।”

सप्ताहभर भी न बीता था कि नेमपाल पुनः बांके हलवाई की दुकान पर जा धमका, “”सेठ जी, खाने-खर्चे के लिए और पैसे चाहिए, जो तुमने दिए थे, खत्म हो गए।”

“”श्रीमान् जी, मैंने कोई खैरात बांटने का ठेका नहीं ले रखा, जो चले आए मुंह उठाकर।”

बांके हलवाई ने तंज किया।

“”ठेका नहीं ले रखा, कोई बात नहीं, पर मेरे पास तो सूचना का अधिकार है, जैसे मैं सूचना लेता हूं… वैसे ही देता भी हूं। बस सूचना देने की देर है कि आपने दुकान बीस लाख की खरीदी है और सरकार को छः लाख पर ही स्टाम्प चुकाया है।” सहज भाव से कहा नेमपाल ने।

“”बहुत बकवास हो गई, जाता है या पुलिस को बुलाऊं, मान न मान मैं तेरा मेहमान।” बांके हलवाई ताव खा गया। दुकान के नौकरों ने नेमपाल को धकिया कर भगा दिया।

नेमपाल के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। जहां से पैसा आने की उम्मीद हो, वहां के अपमान का कोई मलाल नहीं था। जाते-जाते कह गया, “”लाला, तुमने अच्छा नहीं किया। अब अंजाम भुगतने को तैयार रहना।”

बांके हलवाई ने कोई परवाह नहीं की। धन की खींचतान में न जाने कैसे-कैसे लोगों से पाला पड़ता रहता है। यही सोचकर इस घटना को उसने रोजमर्रा की बात माना।

महीना भर बीत गया। दुकान खरीद में कम स्टाम्प के लिए कोई बुलावा किसी अदालत से नहीं आया। बांके हलवाई निश्र्चिंत थे, उस दिन को कोस रहे थे कि जब नेमपाल उन्हें घुड़क कर पांच सौ रुपये और मिठाई का डिब्बा ले गया था।

तीन महीने बीत गए। बीच बाजार में बांके हलवाई की दुकान खूब चल रही थी। एक दिन दोपहर को तहसील का अमीन दुकान के सम्मुख आकर खड़ा हो गया, और पूछने लगा “”इस दुकान का मालिक कौन है..?”

“”क… क… क… क्यों… कहो क्या बात है…?”

“”मैं पूछ रहा हूं, लाला बांकेलाल किसका नाम है…?”

“”म… म… मेरा… किस्सा क्या है..?”

“”कुछ खास नहीं, दो लाख पिचहत्तर हजार की वसूली आपके नाम है।”

“”वसूली! कैसी वसूली..?” बांके हलवाई हड़बड़ा गया।

“”सरकारी वसूली है, राजस्व विभाग की।” अमीन ने स्पष्ट किया।

बांके हलवाई अमीन को दुकान के भीतर ले गया। स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाई थी, दो लाख पिचहत्तर हजार का नाम सुनकर शरीर में कम्पन उत्पन्न हो गई थी। नौकर दो गिलास पानी सामने रख गया। लाला ने एक सांस में पूरा गिलास गटक लिया, फिर बोला, “”भैया कैसी वसूली है? कोई कागजात…।”

“”कागजात कोई नहीं है, रिकवरी आर्डर हैं। बाकी बात तहसील में आकर मालूम करना। भलाई इसी में है कि पैसे जमा कर दो, वरना बड़े बकायादारों के लिए तहसील में जेल बनी है।” अमीन ने बांके हलवाई को जेल का भय दिखाया।

“”जेल..।” बांके हलवाई की सांस जैसे हलक में अटक गई।

“”लाला, तुम तो जेल के नाम से डर गए। मुझे बताओ, क्या कह रहे हो, पैसा जमा कर रहे हो या…?” अमीन ने रुख कड़ा किया।

“”भइया, तुम भी बाल-बच्चेदार हो, अभी तो मुझे यह नहीं पता कि इतनी बड़ी वसूली मेरे नाम पर कैसे निकल आई…।”

“”वसूली स्टाम्प केस की है। कुछ जमीन-मकान खरीदा होगा, उसमें ही सरकार ने रिकवरी निकाली है…।”

“”अ… ह… ऐसा कैसे हो सकता है? न मुकदमा, न सुनवाई, सीधे वसूली!” बांके हलवाई की रुलाई फूटने को तैयार थी।

“”राज रोग है, मुझे कुछ नहीं पता। कुछ पैसे जमा करो। पूरा पैसा जमा करने के लिए पांच-सात दिन तो मैं दे सकता हूं, ज्यादा नहीं…।” अमीन ने कहा।

“”भइया, ऐसा नहीं कि महीना भर का समय दे दो। मैं भी कुछ हाथ-पांव मार लूं।”

बांके हलवाई ने अनुनय-विनय की।

“”बिल्कुल नहीं। लाला इतने अमीर आदमी हो। बीच बाजार में दुकान चल रही है, फिर भी पैसों का बंदोबस्त नहीं। सरकारी रिकवरी है, पीछा नहीं छूटेगा…।” अमीन ने अपना तर्क दिया।

“”तुम सब जानते हो, पीछा कैसे छूटेगा। ऐसा करो रिकवरी आर्डर को फाड़कर फेंक दो। समझो पीछा छूट गया।” बांके हलवाई ने समाधान सुझाया।

“”लाला क्या बच्चों वाली बात कर रहे हो?”

“”भइया, सब तुम्हारे हाथ में है। दान- दक्षिणा लो, मेरा पीछा छुड़वाओ।”

“”पीछा तो पैसा जमा कराने से ही छूटेगा। रिकवरी का रिकॉर्ड कई जगह है, बड़ी रिकवरी है, खुद तहसीलदार ने अपनी डायरी में नोट कर रखी है।” अमीन ने कहा।

“”अरे, तहसीलदार साहब का भी मुंह बंद कर देंगे। अपने शहर विधायक हैं न, वो किस काम आएंगे!” शहर विधायक का नाम लेकर बांके हलवाई ने जता दिया कि उनका शहर विधायक से भी खास संबंध है।

“”तुम्हारी मरजी…”

“”लो ये रख लो, मामला रफा-दफा करो।” बांके हलवाई ने मुट्ठी में बंद करके सौ रुपये का नोट अमीन की जेब में सरकाया।

“”य…. य…. ये क्या कर रहे हो लाला..?” अमीन ने बांके हलवाई द्वारा जेब में रखे गए पैसे निकाले। खोलकर देखते ही वापस बांके हलवाई की ओर फेंक दिए। “”लाला भिखारी समझा है क्या? पौने तीन लाख की वसूली है, सौ रुपल्ली दिखा रहे हो। रक्खो इन्हें। अब तहसीलदार खुद जीप लेकर आएगा, तब बात समझ में आएगी।” अमीन चला गया।

बांके हलवाई की धड़कनें तेज हो गईं। तुरन्त वकील को फोन मिलाया, “”वकील साहब, तहसील से अमीन आया था, पूरे पौने तीन लाख की रिकवरी है, बताइए क्या करूं..?”

“”करना क्या है, शाम को डिटेल लेकर मुझसे मिलिए। देखता हूं, क्या करना है।” वकील ने फोन पर इतना ही कहा तथा फोन काट दिया।

“”सब स्साले जेबकतरे बैठे हैं। कोई तसल्ली की बात नहीं करता। कहां जाऊं, किससे गुहार करूं।” बांके हलवाई बुदबुदा रहा था। उसे सूझ नहीं रहा था कि क्या किया जाए, इस बीच वह कई नौकरों पर अपना गुस्सा उतार चुका था, “”हराम का माल समझ रखा है! स्सालों, सही तरीके से काम करो, गैस बर्बाद कर रहे हो।”

शाम को बांके हलवाई वकील के घर गए। अमीन से जो बातचीत हुई, ब्यौरेवार सुनाई। वकील साहब खिलखिलाकर हंसे “”अरे सेठ जी, अमीन तो मामूली कारिंदा है, मामला रफा-दफा करना उसके वश का काम नहीं…।”

“”तो फिर…?”

“”अरे! हम किसलिए बैठे हैं? सारे मर्ज की दवा हमारे पास है। लाओ रिकवरी आर्डर की डिटेल दिखाओ, फाइल का मुआयना कराते हैं।” वकील साहब ने सहज भाव से कहा।

“”वो तो मेरे पास है नहीं। वो मोटा-सा अमीन आया था।” बांके हलवाई अपनी बेवकूफी पर सहम गया।

“”अमीन से बात भी हुई, आपने उसका नाम तक नहीं पूछा?”

“नहीं …।’

“अच्छा, हुलिया तो बता सकते हो..?”

“”हां… मोटा-सा था…”

“”मोटे तो सब हो जाते हैं खा-खाकर, गोरा-काला… नाटा, लम्बा कुछ तो खासियत होगी… कोई खास पहचान…?” वकील साहब ने बांके हलवाई की आंखों में झांका।

“”बस मोटा-सा था, गोरा-सा था…।” बांके हलवाई ने कहा।

“”भूरी आंखें थीं क्या..?”

“”हां… हां.. कंजी-सी आंखें थीं…।” बांके हलवाई को पहचान स्मरण हो आई।

“”अरे जरूर गोविन्द होगा! अरे मुंशी जी, जरा गोविन्द अमीन को फोन तो लगाना।” वकील साहब ने अपने मुंशीजी को आदेश दिया।

लगभग आधा घण्टे में ही गोविन्द अमीन वकील साहब के घर पर हाजिर था। बांके हलवाई को देखते ही बोला, “”लालाजी, सही जगह आए हो। वकील साहब ही तुम्हारी समस्या का समाधान करा सकते हैं।”

बांके हलवाई झेंपता-सा हंसा, “”अब तो इन्हीं का सहारा है।”

वकील साहब ने गोविन्द से रिकवरी आर्डर का ब्यौरा नोट किया, बदले में बांके हलवाई ने पांच सौ का नोट दिया।

गोविन्द ने टिप्पणी की, “”यदि दुकान पर ही पांच सौ दे देते, तो ब्यौरा अपने हाथ से लिखकर दे आता, वहां तो सौ रुपल्ली दिखा रहे थे।” अमीन के जाने के बाद हलवाई ने पसीना पोंछते हुए वकील से पूछा, “”वकील साहब, इस आफत से छुटकारा मिलेगा भी या नहीं…।”

“”सेठ जी, अब आप मेरे पास आए हैं, तो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। ऐसा कीजिए, मुंशी जी के पास खर्चे के एक हजार जमा करा दीजिए। कल फाइल का मुआयना करके देखेंगे कि क्या हो सकता है।” वकील साहब ने गम्भीरतापूर्वक कहा।

“”जी अच्छा…।” बांके हलवाई ने एक हजार रुपये जमा कराने में तनिक भी देर न की। “”ठीक है, कल शाम को मिल लीजिएगा। तब तक मैं गोविन्द अमीन से कह दूंगा, आपको तंग न करे…।” वकील साहब ने बांके हलवाई को आश्र्वस्त किया।

बांके हलवाई घर लौट गए, किन्तु उनकी रात की नींद उड़ चुकी थी। बैठे-बिठाए, नई मुसीबत सामने आ गई थी। सरकारी रिकवरी है। यदि पैसे नहीं भरे तो तहसीलदार जीप लेकर आएगा, सीधा हवालात में।

एक-दो किस्से बांके हलवाई की नजरों से गुजर चुके थे। कुछ मामलों में तो व्यक्ति को पता भी नहीं चला था कि रिकवरी किस बात की है। कुछ में सिर्फ नाम की एकरूपता के कारण एक-दो व्यक्तियों को हवालात की हवा खानी पड़ी थी, चौदह दिन से पहले कोई सुनवाई नहीं…।

स्मरण आते ही बांके हलवाई की रूह कांप गई, “”दो लाख पिचहत्तर हजार कम नहीं होते, एकदम जुटाए भी तो नहीं जा सकते।”

अगली सायं बांके हलवाई, वकील साहब के यहां पहुंचे तो सारा किस्सा समझते देर न लगी कि स्टाम्प कमी का वाद उनके विरुद्घ निर्णीत हुआ था तथा वाद की आधारशिला नेमपाल का शिकायती-पत्र था। जिसमें उसने लिखा था कि बांके हलवाई ने जितनी धनराशि का बाजारी मूल्य मानकर स्टाम्प अदा किया है, उससे तीन गुने मूल्य पर उस संपत्ति के ोता उपलब्ध हैं। बांके हलवाई ने स्टाम्प शुल्क की भारी चोरी की है।

तीन माह के भीतर ही राजस्व अधिकारी ने तारीख-दर-तारीख लगाकर सूचना प्रतिवादी के घर पर चस्पा दिखाई थी। प्रतिवादी को अनुपस्थित दर्शाकर एक पक्षीय निर्णय दिया गया था। वकील साहब ने भी बांके हलवाई से खासी फीस वसूल ली तथा मुकदमे पर पुनर्विचार हेतु राजस्व अधिकारी से अनुरोध किया।

मुकदमे की पैरवी गुणवत्ता के आधार पर की गई। कानूनी दलीलें दी गईं। समर्थन में राजस्व परिषद तथा उच्च न्यायालय द्वारा निर्णीत अनेक फैसलों का सन्दर्भ दिया गया। वकील साहब ने अपना अनुभव एवं ज्ञान पैरवी में उंडेल दिया, फिर भी मुकदमा मानक पर नहीं सुना गया। मुकदमे का फैसला होने में खासी बंदरबांट हुई। कुछ हिस्सा नेमपाल को मिला, अधिकारी, कर्मचारी, वकील सभी तर गए। पौन तीन लाख की रिकवरी से बचने के लिए एक लाख का खर्चा आया। बांके हलवाई की बनिया सोच से यह भी मुनाफे का सौदा रहा।

वकील साहब प्रसन्न थे, राजस्व विभाग के अधिकारी व कर्मचारी प्रसन्न थे। शाम को वकील साहब और राजस्व विभाग के अधिकारी का पेशकार महानगर के विख्यात रेस्तरां में थे। किसी अन्य केस के बारे में सलाह-मशविरा करना था कि नेमपाल भी आ गया। उसे देखते ही दोनों लपक पड़े, “”आओ-आओ नेमपाल जी… और सुनाओ, कमाई कैसी चल रही है?”

“”जी बाबूजी, मुझसे क्या पूछते हो…? मैं तो आपका सेवक हूं। बताने वाले तो आप ही हैं… मुझे सटीक जानकारी देते रहिए… सबका भला होता रहेगा..।” नेमपाल हाथ जोड़कर सामने बैठ गया।

बेयरा रोडा-व्हिस्की टेबिल पर रख गया, साथ में स्नैक्स भी। तीनों भविष्य की योजना बनाने में जुट गये।

-डॉ. सुधाकर आशावादी

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