रेकी के जनक : डॉ. मिकाओ उसुई

रेकी जापानी शब्द है। इसका मतलब है ब्रह्मांड की ऊर्जा। दो हजार साल पहले यीशु इसी तरह की किसी ऊर्जा से लोगों को रोगमुक्त करते थे। लोग कहते थे कि उनके हाथों में कोई दैवीय शक्ति है या कोई शफा है। बहुत बाद में मिकाओ उसुई ने ऐसी ही एक दैवीय शक्ति को खोजा।

मिकाओ उसुई पेशे से डॉक्टर थे। जापान के क्योतो शहर में सन् 1801 में उनका जन्म हुआ था। उनके पिता बौद्घ और मॉं ईसाई थीं। वह क्योतो के एक कॉलेज में डीन हो गये थे। वहां ईसाइयत पढ़ाई जाती थी, इसीलिए कॉलेज में आध्यात्मिक सेशन होते रहते थे। एक दिन ऐसे ही किसी सेशन में डॉ. उसुई से किसी छात्र ने पूछा, “सर, बाइबिल में आता है कि यीशु के महज छूने, बोलने या आशीर्वाद देने से ही लोगों की गंभीर बीमारियां ठीक हो जाती थीं। क्या ये हकीकत है या महज कहानियां हैं?’

डॉ. मिकाओ उसुई ने कहा, “नहीं, नहीं, ये कहानियां नहीं हैं। ये हकीकत है। बाइबिल में यीशु कहते हैं- इसमें करिश्मे जैसा कुछ नहीं है। मैं ये सब इसलिए दिखा रहा हूँ कि आप लोगों को प्रभु की शक्ति और अच्छाई में बेहद कम भरोसा है। …मेरे बाद भी और लोग आएंगे, जो मुझसे भी ज्यादा काम करेंगे।’

तब छात्रों ने कहा, “सर, यीशु जो और लोगों की बात करते थे, उनमें से हम एक होना चाहते हैं, ताकि हम औरों की और अपनी मदद कर सकें। हम अपनी जिंदगी लोगों की बेहतरी के लिए समर्पित करना चाहते हैं। हमें वह सिखाओ।’

डॉ. मिकाओ उसुई कुछ देर सोचते रहे। फिर बोले, “मेरे प्यारे छात्रों, तुमने बहुत अच्छी बात की है। लेकिन मैं तुम्हें क्या सिखा सकता हूँ? मैं खुद उसके बारे में नहीं जानता। …और भी महान लोग हुए हैं, जिन्होंने इस अंदाज में हील किया है। यीशु से पहले बुद्घ ने इस तरह का करिश्मा किया था। हो सकता है कि क्योतो मठ में मेरे बौद्घ दोस्त इस बारे में कुछ जानते हों। मैं वहां जाता हूँ।’

डॉ. उसुई तब बौद्घ मठ गये। लेकिन वहां से कोई ़जवाब नहीं मिला। वह लौटे और कॉलेज से इस्तीफा दे दिया। छात्रों ने उन्हें बहुत रोकने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं माने। उसुई अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर निकल पड़े। दुनियाभर में वह घूमते रहे, लेकिन कोई हल नहीं निकल रहा था। फिर वह हिंदुस्तान आये और सोचा – यह बुद्घ का देश है, बौद्घों की तमाम पवित्र और गुप्त विद्याओं का देश। क्यों न मैं यहां कुछ खोज करूं। उन्होंने बड़ी लगन से संस्कृत सीखी। अपना खर्चा चलाने के लिए अनुवाद करते रहे। वह यहां से तिब्बत भी गये। वहां लोटस सूत्र पढ़ा। फिर लौट कर आये। यहां उन्हें अथर्ववेद पढ़ते हुए दो श्लोक मिले। इन्हीं श्लोकों से उनकी यात्रा आगे बढ़ी। इन रहस्यमय सूत्रों को लेकर वह जापान लौट गये। अब सूत्र उनके पास थे, लेकिन उन्हें कैसे इस्तेमाल करना है- यह समस्या थी।

अंतरात्मा की आवा़ज पर वह कुरियामा पर्वत की ओर चल दिये। वहां उन्हें एक गुफा मिली। वह 21 दिन की साधना का संकल्प लेकर गुफा में चले गये। धीरे-धीरे वह अपने शरीर से दूर होने लगे। उनकी चेतना एक अलग स्तर पर चली गयी थी। लेकिन वह नहीं मिला, जिसकी तलाश थी। आखिर इक्कीसवीं रात भी आ गयी। कुछ घंटे में ही सुबह होने वाली थी। वह बेहद कम़जोर महसूस कर रहे थे। लेकिन कुछ अलग किस्म का अनुभव हो रहा था।

उनका अहम पूरी तरह से खत्म हो गया था। वह अंदर से रीते हो गये। बची सिर्फ चेतना- अमर, अपरिवर्तनीय, शाश्वत आत्मा। वह बेहोश हो गये। उस समय वह अपने भीतर अद्भुत प्रकाश महसूस कर रहे थे। इन्हीं क्षणों में उन श्लोकों का अर्थ खुलने लगा। “भूलो मत, याद रखो’ – ये शब्द उनके कानों में गूंजने लगे। अगले दिन जब वह सुबह जागे, तो उन्होंने देखा कि सूरज बहुत ऊपर है, हालांकि हर तरफ बर्फ ही बर्फ थी। वह बेहद गरम महसूस कर रहे थे। वह दौड़े-दौड़े कुरियामा पर्वत पहुंचे।

भागते हुए उनके पैर का नाखून टूट गया था। उससे खून बह रहा था। उन्होंने उस पर हाथ लगाया, वह नाखून खट से जुड़ गया। यह पहला हीलिंग अनुभव था। डॉ. मिकाओ उसुई रेकी की ओर बढ़ गये थे।

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