व्यथा की बिम्बहीनता से साक्षात्कार

पुस्तक : बिम्बहीन व्यथा

लेखिका : डॉ. साधना सिन्हा

मूल्य : 125 रुपये मात्र

प्रकाशक : मिलिन्द प्रकाशन, सुल्तान बा़जार, हैदराबाद।

मन की पीड़ा, कसक, अन्तर्द्वन्द्व, लौकिक-पारलौकिक अनुभूतियों को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम है- कविता। दो पंक्तियॉं लिख कर कोई अपनी-परायी पीड़ा के भार से अपने को कुछ विनिर्मुक्त-सा महसूस कर सकता है। काव्य सारे जहॉं के दर्द को समेटने की शक्ति रखता है। कविता अब पहले की तरह सिर्फ तुकांत, छंदोबद्घ नहीं रही। उसने भी अब एक नया रूप ले लिया है, जो कमोबेश किसी भी सहृदय को अपने दिल की बात कहने का अवसर प्रदान करता है। इसी ाम में डॉ. साधना सिन्हा की कृति “बिम्बहीन व्यथा’ में मन के उलझे तारों को सुलझाने की कोशिश और अन्तहीन पीड़ा से कहीं मुक्ति की छटपटाहट झलकती है तो कहीं रिश्तों की घुटन और अजनबीपन भी सालता-सा लगता है।

जब परस्पर अहं का टकराव होता है तो एक ही छत के नीचे लोग एक-दूसरे के लिए कितने अजनबी हो जाते हैं-

और हम

अपने एकाकीपन के साथ

एक ही शय्या पर

आह्लाद, अवसाद से

अनछुये

पड़े रहते हैं

नयी सुबह होने तक।

(पृ. सं. 9)

कवयित्री अनन्त यात्रा में उस अगम, अगोचर परमात्मा से एकाकार के लिए उद्यत ऩजर आती हैं। सच भी है, इस जीवन का चरम लक्ष्य या अन्तिम बिन्दु वही ईश्वर है, तो उससे मिलने की कामना भी प्रबल होनी चाहिये-

शतदल

पत्रों में

इन्द्रधनुषी रंग समेटे

चली मैं

ऊर्ध्वगामी

सहस्त्रार से मिलने

एकाकार हुई

रंग रहा न मेरा

गति हुई अदृश्य।

(पृ.सं. 16)

मनुष्य और पीड़ा, इन दोनों का साथ बहुत ही गहरा होता है। कोई और भले ही साथ छोड़ दे, पर पीड़ा एक अनन्य संगिनी की तरह हमेशा साथ चलती है-

पीड़ा से

जब बातें की

लगी कहने-

अच्छा लगता है

संग तुम्हारा

(पृ.सं. 26)

भौतिकता की अंधी दौड़ में मनुष्य ने मनुष्यता छोड़ राक्षस का रूप अख्तियार कर लिया है। ऐसे में संग्रहवृत्ति, अधिक से अधिक पाने की लालसा ने बा़जारवाद का भले ही भला किया हो, लेकिन इन्सानियत कहीं गायब-सी हो गई है। कवयित्री की यह सोच- कि वस्तुओं के विनिमय से ही यदि दुनिया का काम चलता तो कितना अच्छा होता- सच प्रतीत होती है।

आम, अमरूद

खुद खाते

औरों को भी बॉंटते

कितना अच्छा होता-

भावनाओं से

सारा व्यापार

चलता।

(पृ. सं. 56)

यह संसार नश्वर है और हम सबको अन्त में पाप-पुण्य की गठरी उठाए उस परमात्मा से मिलने के लिए जाना है- यही एकमात्र सत्य है। फिर भी मनुष्य का मन दिग्भ्रमित हो इधर-उधर भटकता है। ऐसे ही पागल मन को सम्बोधित करते हुए कवयित्री कह उठती हैं-

तोड़ो मोह

समेटो जाल का फैलाव

नाव खड़ी है

जाने को तैयार

उस पार।

(पृ. सं. 69)

वहीं दूसरी ओर इसी अदृश्य परमात्मा के दर्शन को कवि-प्राण उत्सुक है और वह प्रश्न कर उठता है-

कातर पंछी की

रक्त सनी

तीर चुभी देह

पर झुके

बुद्घ के

मन प्राण में हो

यदि तुम हो…

देखने तुम्हें फिर

तरसता क्यों मन?

यदि तुम हो।

(पृ. सं. 71)

बढ़ते अन्याय, आतंकवाद, काले धंधों के प्रति कवयित्री के मन का आाोश कुछ इस प्रकार शब्दों का जामा पहनता है-

चरम सीमा अन्याय की

काला धंधा, स्वार्थान्धता

घूसखोरी की दलदल

फॅंस रहे हैं हम

रो़ज

लाशों से बंधे

दल बल

(पृ. सं. 80)

कवयित्री चारों तरफ से जागरूक हैं, कहीं रिश्तों की कसक तो कहीं दहशत से नफ़रत, कहीं कालाबा़जारी से आंदोलित तो कहीं परमात्मा को पाने की ललक कविताओं में स्पष्ट ऩजर आती है।

कविताएँ भाव-प्रधान हैं और संवेदनाओं को झकझोरती हैं। आधुनिक युग के रिश्तों के बढ़ते सिमटाव पर प्रश्न भी उठाती हैं। मन के भावों, उद्वेगों को झकझोरने में पूरी तरह सक्षम हैं। काव्य-संग्रह पठनीय है।

 

– अनिता श्रीवास्तव

 

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