सवालों से घिरी एक जीत

संसद में मनमोहन सरकार द्वारा प्रस्तावित मतदान के कुछ पहले क्षणों तक विश्र्वास यही जताया जा रहा था कि पक्ष-विपक्ष का बलाबल लगभग समान है। ऐसी स्थिति में संभावना यही व्यक्त की जा रही थी कि हार-जीत का संख्या-गणित बहुत कम होगा। लेकिन जब परिणाम घोषित हुआ तो उसे हर किसी ने इस लिहाज से अप्रत्याशित माना कि संप्रग सरकार ने न सिर्फ विपक्ष की सम्मिलित ताकत को पराजित किया बल्कि 19 मतों के भारी अंतर से उसे शिकस्त दी। संप्रग सरकार के खाते में कुल 275 मत आये तो उसके खिलाफ़ सिर्फ 256 ही हासिल हुआ। दो लोगों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया और बाकी ने अनुपस्थित रह कर अप्रत्यक्ष मदद सरकार के हिस्से में डाली।

बहरहाल, सरकार विश्र्वासमत जीत गई है। लेकिन इस जीत के मुकाबले जिस तरह हमारा संसदीय लोकतंत्र पराजित हुआ है और जिस तरह इस दौरान लोकतंत्रीय परंपराओं का अनादर कर तमाम विसंगतियों और विद्रूपताओं को नंगा नाचते हुए देश ने देखा है, उससे किसी भी ़गैरतमंद का माथा शर्म से झुक सकता है। विपक्ष की ओर से, ़खास कर वामपंथी दलों की ओर से, यह आरोप सरकारी प्रबंधकों पर मढ़ा जा रहा था कि वे सरकार बचाने के लिए दूसरे दलों के सांसदों को ़खरीदने की कवायद में जुटे हैं। लेकिन उस समय तो सारा देश अवाक रह गया जब भाजपा के तीन सांसदों ने सदन में लाख-लाख रुपये की गड्डियॉं लहरानी शुरू कर दीं और आरोप लगाया कि यह एक करोड़ रुपये की धनराशि उन्हें सदन से अनुपस्थित रहने के लिए सरकारी प्रबंधकों की ओर से मुहैया करायी गई है। इस संदर्भ में उन्होंने सपा के तेजतर्रार नेता अमर सिंह और सोनिया गांधी के निजी सचिव अहमद पटेल को ़खास तौर पर लपेटा। लगे हाथ एक ़खबरिया चैनल ने यह भी दावा पेश कर दिया कि उसके पास इस घटना को दर्शाती सीडी भी है जिसे वह लोकसभाध्यक्ष की अनुमति के बाद प्रसारित करेगा। ़गौरतलब है कि अभी सब कुछ अप्रमाणित है और सिर्फ आरोप भर है। इसकी सत्यता किसी के भी पक्ष में जा सकती है और यह घटना सत्य भी सिद्घ हो सकती है तथा यह अपनी हार की खीझ मिटाने की दृष्टि से प्रायोजित भी हो सकती है। इसके सत्यासत्य के विषय में अभी लोकसभाध्यक्ष का निर्णय आना बाकी है जिन्होंने सदन को आश्र्वस्त किया है कि जॉंच के बाद दोषियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही होगी।

सही अर्थों में इस तरह के आरोप उगलते दृश्य जिसे एक पक्ष ने दूसरे पक्ष को अपमानित करने के लिए उछाला है, और किसी को घायल करते हों या न करते हों, हमारी लोकतांत्रिक अवधारणा तथा हमारी राष्टीय अस्मिता को अवश्य अपमानित कर घायल करते हैं। निश्र्चित रूप से से टीवी के जरिये सारी दुनिया ने देखा होगा और उसने ़जरूर यह सोचा होगा कि जिसकी बाबत भारत सीना ठोंक कर कहता है कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, वह लोकतंत्र यही है क्या? अगर इस तरह की पेशकश हुई है और ़खरीद-फरोख्त की बात में कोई सच्चाई है, तो सोचने की ़जरूरत यह भी है कि क्या सारा गुनाह सिर्फ खरीदने वाले के सर ही डाल दिया जाना चाहिए? वह जो बिकने को आमादा है, क्या वह निर्दोष और दूध का धुला है? सवाल यह भी है कि जिस देश के सांसद कथित तौर पर बिकाऊ हो सकते हैं, क्या उस देश की संसद बिकाऊ नहीं हो सकती? और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का यह शिखर संस्थान अगर बिकाऊ हो गया तो फिर देश को बिकने से कैसे बचाया जा सकता है?

संसद के बाहर जो खरीद-फरोख्त के आरोप लगे, वे मात्र आरोप भर हैं, जो आज की राजनीतिक प्रिाया के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ गये हैं। लेकिन संसद के भीतर इसके मुत्तलिक जो आरोप उछले, उनकी अवहेलना किसी मूल्य पर नहीं की जा सकती। उसका निराकरण हर मूल्य पर होना ही चाहिए क्योंकि अन्तर्राष्टीय स्तर पर इसने भारत की छवि को धुंधला किया है और यह संकेत दिया है कि भारत ऐसे ही बिकाऊ लोगों के गुणा-गणित पर आधारित लोकतंत्र है। संसद के पटल पर उभरी इस तथाकथित खरीद-फरोख्त की घटना ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की विजय को संदेहास्पद बना दिया है। विपक्ष इसे अनैतिकता का विजय ़करार दे रहा है। वामदल इसे लोकतंत्र का काला अध्याय सिद्घ कर रहे हैं और मायावती इसे दलित की बेटी को प्रधानमंत्री पद से वंचित करने के लिए कांग्रेस और भाजपा की साजिश करार दे रही हैं। विजयी खेमा इसे पराजित लोगों की खीझ और झल्लाहट साबित कर रहा है। लेकिन लोकतंत्र के हाशिये पर दर्ज हुई इस जय-पराजय ने स्वयं को कुछ ऐसे सवालों के घेरे में कैद कर लिया है, जिसका उत्तर तलाश करना शायद ही ये लोग गवारा करें। मतदान के समय जम कर ाास वोटिंग हुई है। अनैतिक तरीके से जीतने का आरोप लगाने वाले भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी क्या इस बात का स्पष्टीकरण देंगे कि इनमें सर्वाधिक संख्या भाजपा और राजग सांसदों की ही क्यों है? उनके द्वारा संसद के भीतर सांसदों की खरीद-फरोख्त का आरोप लगाया गया है। निश्र्चित रूप से उनसे यह सवाल पूछा जा सकता है कि पैसा लेकर संसद में सवाल करने का मामला हो, कबूतरबाजी का हो या विश्र्वासमत का, कथित तौर पर सबसे ज्यादा बिकाऊ लोग औरों से अलग चाल, चेहरा और चरित्र दर्शाने वाली पार्टी में ही क्यों पाये जाते हैं?

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