सियासी घोड़ामंडी

भले यह जुलाई का उमस भरा मौसम हो, लेकिन राजधानी दिल्ली में सियासी पारा बहुत ऊपर चला गया है। सियासी लू के थपेड़े चल रहे हैं। सरकार बचेगी या नहीं बचेगी, सब्जी वाले से लेकर संसद सदस्य तक सभी फिलहाल इसी अनुमान में व्यस्त हैं। दो हफ्ते पहले जिस तरह लग रहा था कि सरकार आसानी से सब कुछ व्यवस्थित कर लेगी वैसा होता नहीं दिख रहा। अचानक कहानी में ट्विस्ट आ गया है और सस्पेंस अपने चरम की तरफ बढ़ रहा है। यह विरोधाभासी माहौल की चरम परिणति है कि एक तरफ जहां सियासी पारा ऊपर चढ़ता ही जा रहा है वहीं दूसरी तरफ सेंसेक्स नीचे लुढ़कता ही जा रहा है।

यह सब कुछ समर्थन की कहानी पर अचानक आये उस ट्विस्ट से हुआ है जिसमें शिरोमणि अकाली दल ने साफ कर दिया है कि सिख प्रधानमंत्री के नाम पर वह मनमोहन सिंह सरकार को समर्थन नहीं देगा, तेलंगाना राज्य समिति ने घोषणा कर दी है कि वह संसद में सरकार के विरुद्घ मतदान करेगी और झारखंड मुक्ति मोर्चा सहित कई सिंगल और डबल डिजिट वाली पार्टियों ने अभी तक अपने पत्ते न खोलने का रुख अपना लिया है। एक हफ्ते पहले जब वामपंथियों ने अंतिम रूप से सरकार से समर्थन वापस ले लेने की घोषणा कर दी और ठीक उसी समय समाजवादी पार्टी ने मनमोहन सरकार का दामन थाम लिया, तो लगा था कि सब कुछ आसानी से मैनेज हो जायेगा। मनमोहन सिंह सरकार अपना बचा हुआ कार्यकाल पूरा कर सकने का समर्थन जुगाड़ कर लेगी। लेकिन जैसे ही यह कहानी आगे बढ़ी कि पल-पल में अपने रंग बदलने को मशहूर राजनेताओं ने वाकई ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि सोनिया गांधी, प्रकाश करात और लालकृष्ण आडवाणी तीनों के तीनों सियासी महारथी चौंकन्ने हो गये हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक स्थिति यह है कि दावे के साथ कोई भी नहीं कह सकता कि सरकार बचेगी या जायेगी।

यहां तक कि सट्टा बाजार में भी मिश्रित-सा माहौल है। पहले जहां सट्टा बाजार मान कर चल रहा था कि सरकार हर हालत में बच जायेगी, इसीलिए सरकार के बचने पर महज 4 पैसे का दांव था वहीं अब यह बढ़कर 20 से 25 पैसे तक पहुंच गया है। हालांकि सट्टा बाजार में अभी भी बहुमत यह मानने वाले लोगों का ही है कि सरकार बच जायेगी। लेकिन जिस तरह से वोटिंग के एक हफ्ते पहले का परिदृश्य सनसनीखेज ढंग से बदल चुका है, उसके मद्देनजर कोई भी निष्कर्ष एडवांस में निकाल लेना जल्दबाजी ही नहीं, खतरनाक भी हो सकता है। भारत में ाास वोटिंग का इतिहास रहा है। संसद से लेकर विधानसभाओं तक में भी कई बार हैरान कर देने वाली ाास वोटिंग हुई है। जब वाजपेयी सरकार एक वोट से हारी थी तब भी वह ाास वोटिंग ही थी और जब उत्तर प्रदेश विधानसभा में राजीव शुक्ला को संभावित 20 की बजाए 50 वोट मिले, तो वह भी जबरदस्त ाास वोटिंग ही थी। इसलिए ऐन मौके पर क्या हो, कुछ नहीं कहा जा सकता। बस क्या-क्या हो सकता है, इसका कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है और यह अंदाजा पक्ष-विपक्ष की पार्टियों और प्रमुख राजनेताओं द्वारा एक-दूसरे पर खरीद-फरोख्त के लगाये जा रहे चौंकाने वाले आरोप-प्रत्यारोप हैं।

इसकी शुरुआत भी वामपंथियों की तरफ से हुई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ए.बी.वर्धन ने एक प्रेस कान्फ्रेंस में यह आरोप लगाया कि संसद में बहुमत हासिल करने के लिए 25-25 करोड़ रुपये में वोट खरीदे जा रहे हैं। तो इसका पलटवार करते हुए कांग्रेस की तरफ से मोर्चा समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह ने संभाल लिया। उन्होंने प्रत्युत्तर में प्रेस कान्फ्रेंस करते हुए आरोप लगाया कि मायावती सांसदों की खरीद-फरोख्त के लिए 30 करोड़ रुपये का ऑफर दे रही हैं। उन्होंने बाकायदा नाम लेकर रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया के छोटे भाई अक्षय प्रताप सिंह के बारे में यह दावा किया। पत्रकार अक्षय प्रताप से यह सफाई मांगने जाते, इसके पहले खुद ही उन्होंने प्रेस कान्फ्रेंस करके इसकी पुष्टि की और कहा कि उन्हें इसके लिए उत्तर प्रदेश की सरकार यानी मुख्यमंत्री की तरफ से फोन आया था कि अगर हम उनके साथ जाएं तो पोटा के तहत लगे तमाम आरोप वापस ले लिये जाएंगे और आर्थिक रूप से भी फायदा होगा। लगभग इसी तरह की पुष्टि पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर के बेटे और समाजवादी पार्टी के सांसद नीरज शेखर ने भी कर दी। गौरतलब है कि नरसिम्हा राव की सरकार को बचाने के लिए तत्कालीन झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों पर 25-25 लाख रुपये घूस लेने का आरोप लगा था और उसमें दोषी तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को बनाया गया था। सन् 1993-94 के मुकाबले 2007-08 हर मामले में काफी तरक्की कर चुका है। यही वजह है कि सांसदों की खरीद-फरोख्त के लिए उस समय जहां 25 लाख की रकम काफी थी वहीं आज यह रकम बढ़कर 25 करोड़ हो चुकी है। सोनिया गांधी शायद इस कदर चिंतित नहीं होतीं और प्रकाश करात इस कदर सिाय नहीं होते अगर शिबू सोरेन, टीआरएस, महबूबा मुफ्ती, नेशनल कान्फ्रेंस, राष्टीय लोकदल और पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी.देवगौड़ा की पार्टी जनता दल (एस) ऐन मौके पर गोल-मोल बातें न करने लग जाती। दरअसल इन पंक्तियों के लिखे जाने तक का, या कहें कि मतदान के तीन दिन पहले तक का जो गणितीय आंकड़ा है, उसमें सरकार के पक्ष में 260 और उसके विरोध में 263 वोटों की संख्या दिख रही है। यानी 18 वोट ऐसे निर्णायक वोट के रूप में सामने आने वाले हैं जो 22 तारीख को विश्र्वास-मत के दौरान नतीजा कुछ भी कर सकते हैं। इसमें 4 निर्दलीय हैं। 4 एक-एक सांसदों वाली पार्टी हैं, 1 दो सांसद की और 2 तीन सांसदों की पार्टियां हैं। जाहिर है, इन 18 सांसदों ने सिर्फ सरकार की ही दहशत नहीं बढ़ा दी है बल्कि सियासी मंडी के दामों को अब तक के इतिहास में सबसे ऊंचे कर दिये हैं।

पिछले चार सालों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता का सुख भोग रहे झारखंड मुक्ति मोर्चा ने अचानक यह कहकर सरकार के हाथ-पांव फुला दिये हैं कि हम लोग मतदान के दो दिन पहले अंतिम रूप से निर्णय करेंगे कि वाकई सरकार के पक्ष में जाना राष्टहित में होगा या नहीं। गुपचुप खबरें जो छनकर आ रही हैं उनके मुताबिक भारतीय जनता पार्टी ने जेएमएम के अध्यक्ष शिबू सोरेन को झारखंड के मुख्यमंत्री पद की पेशकश की है, अगर उनकी पार्टी सरकार के विरुद्घ मतदान करती है। हालांकि इसकी पुष्टि नहीं हुई लेकिन गठबंधन के पक्ष में वफादारी के कसीदे पढ़ने वाले शिबू सोरेन ने जिस तरह से इस मामले में विकल्पों के खुले रहने का विकल्प अपनाया है, वह सरकार को चिंतित करने वाला है। देवगौड़ा भी अभी कुछ दिन पहले तक भाजपा को देश के लिए सबसे खतरनाक साम्प्रदायिक पार्टी मान रहे थे लेकिन मौके का फायदा भला कौन राजनेता छोड़ता है। सो, वह भी अभी फैसला न करने की बात कर रहे हैं ताकि अच्छी कीमत हासिल करने के लिए मौके मौजूद रहें। तृणमूल कांग्रेस भी अनिश्र्चित है। वह एनडीए की सैद्घांतिक सदस्य होते हुए भी फिलहाल निर्णय नहीं कर पा रही कि सरकार के साथ जाए या वामपंथियों के साथ। सबसे ज्यादा मजे तो उन निर्दलियों के हैं जिनके न आगे नाथ न पीछे पगहा है। उन्हें अपने निर्णय के लिए किसी से न पूछना है, न किसी से सलाह लेनी है और सियासी गलियारों की गहमागहमी बता रही है कि सबसे ज्यादा पूछ इस समय इन निर्दलियों और सिंगल डिजिट वाली पार्टियों की ही है।

बहरहाल, 22 जुलाई को जो भी हो, यह तो तय है कि इस देश में लोकतंत्र की परंपरा बाधित नहीं होगी। मगर यह डराने वाली हकीकत है कि 60 साल पुराना होने के बावजूद भी हमारा लोकतंत्र परीक्षा की घड़ी में सियासी घोड़ामंडी में तब्दील हो जाता है। यह राजनीतिक पार्टियों के लिए ही नहीं, देश के लिए भी एक सबक है।

 

– लोकमित्र

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