सुख के सब साथी

जन्म जरा मरण भयर-भिद्रुते,

व्याधि वेदना ग्रस्ते।

जिनवर वचनादन्यत्र,

नास्ति शरणं क्वचिल्लोके।।

जन्म, जरा एवं मरण के भय से व्याप्त, व्याधि और वेदना से ग्रस्त संसार में प्रभु-वचन शांतिदायक है। प्रभु वाणी ही तारणहार है। जिनवाणी के सिवा जन्म-मरण में विश्रांति और शांति कहीं भी मानव को मिल नहीं सकती।

उद्घरण है- गुण सुंदर कुमार के शरीर में भयानक दाह रोग उत्पन्न हुआ। दाह रोग से समूचे शरीर में अत्यंत वेदना होने लगी। बृहद् परिवार उसके चारों ओर इकट्ठा हो गया। सभी उसकी सेवा करने लगे। उनके पिता का नाम धन संचय था। नाम के अनुसार ही उन्होंने अपार धन एकत्रित कर रखा था।

अपने पुत्र को रोग-मुक्त करने के लिए उन्होंने पैसा पानी की तरह बहाया। किन्तु उसका रोग कोई मिटा नहीं पाया। कर्मजन्य रोगों को कोई मिटा नहीं सकता। कर्मक्षय से ही वे मिट सकते हैं।

प्राणप्यारी पत्नी भी रोग की वेदना में सहभागी नहीं बन सकती। उसने पत्नी से भी रोग से मुक्त करने को कहा। माता से भी वेदना दूर करने हेतु प्रार्थना की। स्वजन एवं परिजन कोई भी उसे रोग से बचा नहीं सके।

सैकड़ों सदस्यों का परिवार भी पास खड़ा है। किन्तु वह भी दुःख बटा नहीं सकता।

ज्ञानी कहते हैं, “”यदि तुम किसी का दुःख नहीं ले सकते, तो दूसरों को दुःख भी मत दो। यदि तुम दूसरे को दुःख नहीं दोगे, तो तुम्हें भी दुःख प्राप्त नहीं होगा।”

गुण सुन्दर युवक ने सोचा, “”माता की ममता एवं पिता का अपार वात्सल्य मेरे प्रति है, फिर भी मैं अनाथ हूँ। प्राणप्रिय पत्नी भी सेवा में अहर्निश तत्पर है, फिर भी मैं अनाथ हूँ।”

रोग का शमन नहीं हो रहा है। रात को निद्रा भी नहीं आती है। पलंग पर बैठा-बैठा वह सोचता है, “”यह मेरा रोगी-जीवन व्यर्थ है। अब यह अपार धन-वैभव भी मेरे लिए किस काम का।”

वह चिंतन की धारा में बहने लगा, “”यदि प्रातःकाल तक मैं रोग मुक्त हो गया तो संयम ग्रहण कर लूंगा। संसार का त्याग कर संयममय जीवन अपना लूंगा। शेष जीवन-साधना में बिताऊँगा। दीक्षा यह जीवन का सर्वश्रेष्ठ पथ है।”

अनेक लोग रोगों से दुःखी होकर आत्महत्या कर लेते हैं। इससे आत्मा की दुर्गति होती है।

युवक ने मन ही मन संकल्प किया, मन ही मन धर्म की शरण ली। उसके जीवन में चमत्कार हुआ कि एक रात में वह स्वस्थ हो गया। वह रोग मुक्त बन गया।

प्रातःकाल उसने माता-पिता एवं परिवार को अपना निर्णय बताया। दीक्षा अंगीकार कर ली। बिना विलम्ब किए संयम ग्रहण कर लिया और साधना में लग गया।

नगर बाहर उद्यान में पेड़ के नीचे वह ध्यान में लीन हो गया। श्रेणिक महाराज ने उसे देखा। उसकी युवावस्था एवं अपार सौन्दर्य युक्त शरीर को देखकर वे चकित एवं दुःखी होकर पूछने लगे, “”महाराज, अपार सौन्दर्य के धनी होने पर भी आप तरुण अवस्था में मुनि क्यों बन गए? आप को क्या दुःख था?

क्या धन का अभाव था? माता एवं पिता नहीं थे? किस कारण इस साधना मार्ग को अपनाया?”

अनाथी मुनि ने कहा, “”मेरा कोई नाथ नहीं था, अतः मैं मुनि बन गया हूं।”

श्रेणिक, “”अरे! तुम अनाथ हो, तुम्हारा कोई परिवार एवं माता-पिता नहीं हैं?”

“”हे राजन! माता व पिता, रूपवान पत्नी आदि परिवार एवं अपार धन-वैभव था। किसी बात की कमी नहीं थी, किन्तु असाध्य एवं असह्य रोग से मुझे कोई बचा न सका। मैं अशरण अनाथ बन गया।”

श्रेणिक राजा ने कहा, “”मैं मगध देश की प्रजा का नाथ हूं। मैं आपका भी नाथ बन जाता हूं। आपको संभालूंगा। आपकी सभी मनोकामनापूर्ण करूंगा।”

अनाथ मुनि ने कहा, “”राजन, जब आप स्वयं ही अनाथ हो तो दूसरों के नाथ कैसे बनोगे?”

श्रेणिक बोला, “”मगध देश की प्रजा का मैं नाथ हूँ। फिर भी तुम मुझे अनाथ कहते हो? पुत्र एवं सैकड़ों रानियों का मेरा विशाल परिवार है। मेरे वैभव का, ऋद्घि-सिद्घि का कोई पार नहीं है और मुझे तुम अनाथ कहते हो।”

अनाथी मुनि, “”राजन, इतना सब कुछ होते हुए क्या तुम्हें रोग नहीं आएंगे? क्या तुम्हारी मौत नहीं होगी?”

“”रोग, दुःख एवं मृत्यु से ये तुम्हें बचायेंगे? क्या मौत के मुख जाते हुए ये तुम्हारी रक्षा करेंगे?”

श्रेणिक ने कहा, “”मुनिजी, वे मेरी रक्षा करने में असमर्थ हैं। आपकी बात बिल्कुल सही है। मैं अनाथ हूं, अब आप सनाथ बन गये हैं।”

संसार में सभी पदार्थ अनित्य एवं क्षणिक हैं। अशरण रूप है। रोग, शोक, मृत्यु में न धन बचा सकता है, न परिवार। प्रभु एवं गुरु की सेवा का शरण ही तारणहार है।

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