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हम सभी डरते हैं। डर के प्रकार पृथक-पृथक होते हैं और कारण भी। हम तमाम चीजों से डरते हैं, तमाम कामों से डरते हैं। कई बार अपने डरने का कारण स्पष्ट नहीं होता, फिर भी डरते हैं। कोई पत्र आया तो भी हल्का-सा डर कुछ लोगों में पैदा हो जाता है कि न जाने पत्र में क्या होगा!

वैज्ञानिक कहते हैं कि हमारे दिमाग में डर का कीड़ा 7 माह की उम्र में ही पैदा हो जाता है, जब हम मां के पेट में होते हैं और जन्म के बाद धीरे-धीरे इसकी फसल लहलहाने लगती है। किशोरावस्था तक हम बहुत डरने लगते हैं।

व्यवहार विशेषज्ञों के मुताबिक डर बड़े स्तर पर सीखने को मिलता है। कीड़े-मकोड़े, सांप, छिपकली जैसे जहरीले जानवरों, कुत्ते जैसे हिंसक पशुओं का डर, तेज आवाज या जलने-कटने, छिलने का डर संसार के सभी मनुष्यों में पाया जाता है। भूत-प्रेतों के आस्तत्व में यकीन या कोई फोबिया भी डर का ही कारण हो सकता है। गलत काम करते हुए भी डर लगता है।

कुछ मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि डर अनावश्यक संवेदना है, जो अप्रिय स्थितियों से उभरती है, तो कुछ मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि डर बुरी स्थितियों का पूर्वाभास या चेतावनी है। डर को पूर्णतः प्राकृतिक संवेदना माना गया है और जोखिम की स्थिति की पहचान करने और उसके विरोध में प्रतििाया के काम आता है, जैसे किसी शत्रु या हमलावर से हम सतर्क रहते हैं, डरते भी हैं और प्रतिकार करने की भी सोचते हैं।

डर को अगर ठीक ढंग से कम न किया जाए तो यह व्यक्तिगत, पारिवारिक या सामाजिक परेशानियां उत्पन्न कर सकता है। यदि डर का असर गहरा हो जाए, तो उससे सही सोचने-समझने की क्षमता प्रभावित होती है। ऐसे में डरा हुआ व्यक्ति खतरनाक कदम उठा सकता है।

एक अध्ययन में दिमाग के उस हिस्से की पहचान कर ली गई है, जो डरते समय और डर से लड़ते समय सिाय होता है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार दिमाग के इस भाग को “एमिगडेले’ कहा जाना चाहिए। इसका वेंटल मेडियल प्रीफ्रंटल कॉरटेक्स, लंबे समय तक डर को बनाए रखता है। इसके सूक्ष्म अध्ययन से यह पता लगाया जा सकता है कि दिमाग में बैठे डर को कैसे बाहर किया जाए।

डर को दवाइयों से दूर किया जाना कारगर नहीं है। दवा के सहारे उन म़र्जों को ठीक किया जा सकता है, जो डर के परिणामस्वरूप पैदा हुए हों। इसे केवल मनोवैज्ञानिक तरीके से ही खत्म किया जा सकता।

मानसिक चिकित्सा विशेषज्ञ “बिहेवियरल थेरेपी’ अथवा “साइकोडायनामिक अप्रोच’ से डर के कारणों को खोजते हैं। यह कुछ ऐसा होता है कि डर लगने वाली चीज से अचानक सामना करा देना या डराने वाली चीज को दूसरे निडर व्यक्ति के सामने ला देना। जब व्यक्ति यह जान जाता है कि डराने वाली वस्तु वास्तव में हानिकारक नहीं है और वह उससे नाहक डर रहा था, तब उसके अंदर से डर कम होता है।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जो लोग डरावनी फिल्म या सीरियल देखते हैं, किताबें पढ़ते हैं या किसी डरावने दृश्य की कल्पना से रोमांच हासिल करते हैं, संभवतः अपने तंत्रिका-तंत्र को मजबूती प्रदान करते हैं। इस तरह वे अपने डर तथा तनाव से मुक्त होने का प्रयास करते हैं।

आज विज्ञान का युग है। आधुनिक मानव तमाम रहस्यों को जानने के बावजूद तमाम तरह से डरता है। मानव ने अपनी उत्पत्ति के बाद ही डरना शुरू कर दिया था और भयवश ही उसने देवी-देवताओं, ईश्र्वर और अन्य अदृश्य शक्तियों की कल्पना की। अदृश्य शक्तियों से डरना हमें विरासत में मिलता है। डर का कारण कुछ हद तक अज्ञानता और हिम्मत की भी कमी है।

सिकंदर ने एलेक्जेंडिया से चलकर भारत तक जीतने की कोशिश की। यह अलग बात है कि वह यहां विषम स्थितियों में फंस गया और बीमार हो गया। नेपोलियन बोनापार्ट ने एक देश पर हमले के लिए उसकी सीमा में प्रवेश किया, तो सीमा पर बहती नदी का एकमात्र पुल उड़वा दिया। सैनिकों ने पूछा, “”अगर ज्यादा मार पड़ी तो जाएंगे कैसे?” नेपोलियन ने कहा, “”जब जाने का विकल्प ही न होगा तो जीतने के इरादे से लड़ेंगे और जीतेंगे।”

नास्तिक लोग देवी-देवताओं के आस्तत्व में विश्र्वास नहीं करते हैं, इसलिए उन्हें भूत-प्रेत के प्रकोप की चिंता नहीं होती। कथित लोग अपशकुनों से भी भयभीत नहीं होते हैं। अनेक लोग बड़े-बड़े नुक्सान आराम से झेल जाते हैं और अधिक विचलित नहीं होते। वहीं बहुत से लोगों की छोटे नुक्सान में भी नींद उड़ जाती है, बहुतों को दिल का दौरा पड़ जाता है। निरंतर अनुभवों से हिम्मत बढ़ती जाती है, डर कम होता जाता है।

ईश्र्वर को, देवी-देवताओं को, भूत-प्रेतों को, कानूनों, नियमों, परंपराओं आदि को अधिकांश लोग भयवश मानते हैं। नफे-नुकसान के दृष्टिकोण से भी डर पैदा होता है। इस तरह डर एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है। डरना मानसिकता पर निर्भर करता है।

– अजय जैन “विकल्प’

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