स्वस्थ रहने का विज्ञान

पुस्तक : मन का सहज विज्ञान

लेखक : बी. के. चन्द्रशेखर

अनुवादिका : रचना भोला “यामिनी’

प्रकाशक : फ्युजन बुक्स, नई दिल्ली.

इक्कीसवीं सदी में आदमी की जिन्दगी अति जटिल हो गई है । एक तो वह अपने जीवन का प्राकृतिक-विन्यास लगातार खोता जा रहा है, दूसरे तथाकथित “प्रगति और विकास’ की उसकी स्वकल्पित अवधारणा ने उसे बहुत कुछ कम समय में पा लेने की एक प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ में ढकेल दिया है। इस अवस्था में उसके मनस-तंत्र के तनावग्रस्त होने की संभावना को किसी आधार पर ़खारिज नहीं किया जा सकता। मन यदि तनावग्रस्त है तो शरीर के भी स्वस्थ रहने की आशा नहीं की जा सकती। ठीक यही बात दूसरी तरफ से भी है, अर्थात् यदि शरीर विकारग्रस्त है तो मन भी उसी स्तर तक पीड़ित रहेगा। ऐसा इसलिए है कि दोनों का संबंध अन्योनाश्रित है। अक्सर लोग शरीर और मन की अवस्थाओं को बॉंट कर देखते हैं, जो हर स्तर पर एक भ्रामक अवधारणा है। हालॉंकि मन शरीर का कोई ठोस अवयव नहीं है, लेकिन उसकी स्थिति शरीर के साथ ही है। कहा जा सकता है कि मन का स्थूलतम रूप शरीर है और शरीर का सूक्ष्मतम रूप मन है। दोनों एक-दूसरे के साथ तालमेल बिठाकर ही िायाशील होते हैं। एक अगर विकारग्रस्त होता है तो दूसरा भी उसके प्रभाव से अपने को बचा नहीं पाता है। संपूर्णता में मनुष्य एक जैविक इकाई के रूप में मन और शरीर का समवाय ही है।

भारतीय चिन्तन “स्वास्थ्य’ की परिभाषा इसी अर्थ में करता है। स्वस्थ होने का मतलब ही है – “स्व’ में स्थित होना। यह परिभाषा आध्यात्मिक भी है और भौतिक भी है। अतः यह मानकर चलना होगा कि पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त करने के लिए जितना आवश्यक शरीर को निरोग और स्वस्थ रखना है, उतना ही आवश्यक मन को स्वस्थ रखना भी है। सही अर्थों में पूर्ण स्वास्थ्य उसी अवस्था का नाम है- जब मन और शरीर एक-दूसरे के साथ तालमेल बिठाकर चलते हैं और हम प्राकृतिक जीवन जीते हैं। हमारा खान-पान, रहन-सहन और हमारा स्वयं के जीवन के प्रति दृष्टिकोण, मन और शरीर को संतुलन में रखने का काम करता है। भारतीय चिकित्सा विज्ञान ने, जिसे आयुर्वेद के नाम से जाना जाता है, इसके प्रति एक पूर्ण दृष्टिकोण और पद्घति का विकास किया है और उसकी मान्यता है कि आहार-विहार और विचार की शुद्घता से मनुष्य स्वस्थ रहता है। अशुद्घता और अशौच ही उसे विकारग्रस्त करते हैं। मन को स्वस्थ रखने के लिए ध्यान और योग को भारतीय चिन्तनधारा ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना है।

पुस्तक “मन का सहज विज्ञान’ के लेखक बी.के. चन्द्रशेखर ने इसी अवधारणा को संपुष्ट करने का प्रयास किया है। पुस्तक मूल रूप में अंग्रे़जी में लिखी गई थी, जिसका हिन्दी अनुवाद रचना भोला “यामिनी’ ने बड़ी बोधगम्य भाषा में किया है। अब तक तो विज्ञान और मनोविज्ञान की मान्यता यही रही है कि मानव शरीर प्रकृति की अत्यंत जटिल संरचना है। लेकिन माना यह गया है कि शरीर से कहीं अधिक जटिल मन है। अगर मन के सहज विज्ञान की खोज कर ली जाय, तो इसका महत्व सृष्टि का रहस्य जान लेने के बराबर ही माना जाना चाहिए। लेखक ने इस जटिलता को पेंच दर पेंच खोलने का प्रयास किया है। किस हद तक और किस सीमा तक उसे इसमें कामयाबी मिली है- इसे अंतिम रूप से रेखांकित नहीं किया जा सकता। यह ़जरूर कहा जा सकता है कि उसके प्रयास की अंतिम निष्पत्ति यही है कि एक स्वस्थ जीवन जीने के लिए हमें सहजता को अंगीकार करना पड़ेगा। सहजता का सीधा मतलब यही निकाला जा सकता है कि जीवन शरीर और मन के स्तर पर अविभाजित हो। उसकी यह भी मान्यता है कि प्रकृति ने मनुष्य को यह सहजता उसके जन्मकाल से ही दे रखी है, लेकिन सामाजिक जीवन की द्वैतवादी व्यवस्था के कारण वह धीरे-धीरे असहजता को ओढ़ लेता है। इस ाम में उसका पूरा व्यक्तित्व कई खंडों में बॅंट जाता है और वह जीवन के प्राकृतिक स्रोत से विच्छिन्न होकर अपने अखंड व्यक्तित्व की मर्यादा को खो देता है। व्यक्तित्व की इस अखंडता की उपलब्धि ही दरअसल लेखक के लिए “मन के सहज विज्ञान’ की खोज है।

लेखक चन्द्रशेखर इस पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं- “मनुष्य के पास एक ऐसी खासियत है, जो संसार के दूसरे जीवों के पास नहीं है। यह सोचने की शक्ति है। ़जमीन पर काम कर रहा कम्प्यूटर ह़जारों कि.मी. दूर स्थित उपग्रह को नियंत्रण में रखता है। यह एक दास की तरह मनुष्य की सारी हिदायतों पर अमल करता है, लेकिन यह सोच नहीं सकता। इस पृथ्वी पर जीवित प्राणियों में सिर्फ मनुष्य के पास ही सोचने-समझने की शक्ति है।’ लेखक का कथन यथोचित है। मनुष्य पृथ्वी पर चेतना का शिखर बिन्दु है। उसकी अन्तरात्मा में समस्त शक्तियॉं संग्रहीत हैं, जो ब्रह्मांड की रचयिता और नियामक हैं। इसके साथ ही उसके भीतर मूल प्रवृत्तियों से निर्देशित होने वाला पशु भाव भी है। इन सबका धारणकर्त्ता भी उसका मन ही है। उसका शरीर, मन में उत्पन्न होने वाली भाव और विचारतरंगों के आधार पर िायाशील होता है। संस्कार और साधना से उसके भीतर की पशुता को तिरोहित कर उसकी आत्मा की दिव्यता को प्रकाशित किया जा सकता है। लेखक ने राजयोग की भारतीय परंपरा को इसके लिए सर्वाधिक श्रेयस्कर स्वीकार किया है।

साधना के इन सारे आयामों से गुजरने के लिए आवश्यक है कि इसके लिए एक विशिष्ट जीवनशैली का निर्माण किया जाय। प्रयास शरीर से होकर ही मन तक पहुँचता है। इसके लिए यह भी ़जरूरी है कि मनुष्य कठोरतापूर्वक अपने आहार-विहार में संयम बरते। सहज रूप से मनुष्य की इंद्रियॉं विभिन्न भोग्य पदार्थों की ओर भागती हैं। भोग की यह अदम्य इच्छा उसके मन को अनियंत्रित कर देती है। साथ ही भोग उस अग्नि के समान है जो आहुतियों पर आहुतियॉं ग्रहण करती जाती है, लेकिन कभी परिशांत नहीं होती। अतः ़जरूरी है कि मनुष्य ज्ञानपूर्वक अपनी भोग की इच्छाओं को समझे और आत्मनियंत्रण के उपायों के जरिये इन्हें एक सीमा में रखे। भोग की उतनी ही आवश्यकता है जो जीवन की गति को संचालित करने में सहायक हो। अतएव इंद्रिय-निग्रह आत्म साधना में गुजरने की पहली सीढ़ी है। इसके लिए यह भी ़जरूरी है कि मनुष्य सात्विक आहार ग्रहण करे और अन्य भोगों की उपयोगिता को भी उसके यथार्थ रूप में समझे।

चन्द्रशेखर की यह पुस्तक एक ही साथ वैज्ञानिक भी है और आध्यात्मिक भी। इसमें आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की मनुष्य की मानसिक संरचना संबंधी शोधों और व्युत्पत्तियों का भी आकलन किया गया है, साथ ही भारतीय परंपरा की योग और तंत्र-साधना का भी सहारा लिया गया है। लेखक ने अपनी ओर से भी कुछ प्रयोगों और स्थापनाओं को पुस्तक में निरुपित किया है। उसकी निर्देशित विधियॉं और स्थापनायें किस सीमा तक असरकारक हैं- यह तो िाया रूप में गुजरने के बाद ही बताया जा सकता है, लेकिन मानवीय प्रवृत्तियों, विचारों और भावों का उसने जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है, वह वैज्ञानिक है। इस आधार पर पुस्तक को उपयोगी सिद्घ किया जा सकता है। मूल पुस्तक अंग्रेजी में लिखी गई थी लेकिन उसका यह हिन्दी अनुवाद कहीं से भी ऐसा आभास नहीं देता कि यह मौलिक रूप से हिन्दी में लिखी गई पुस्तक नहीं है। बहरहाल पुस्तक पठनीय ही नहीं है, उपयोगी भी है।

– रामजी सिंह “उदयन’

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