अंत न होई कोई अपना

यह संसार भी विचित्र है। मनुष्य जन्म लेता है, तरह-तरह के संबंध जोड़ता है, फिर उनमें रम जाता है। जन्म-जन्मांतरों की स्मृति को बिसार कर सुख-दुःख से भरे इस जीवन को सत्य मानते हुए, वह मात्र इसी जन्म को सब कुछ मान बैठता है।

घर-परिवार, समाज की भूल-भुलैया में उलझता प्राणी जीवन के सवेरे से लेकर सांझ के दरवाजे तक आ पहुँचता है। बीच-बीच में प्रभु की याद आती रहती है, कथा-सत्संग भी चलता रहता है, लेकिन माया के बंधन इतने तीव्र होते हैं कि उनसे छूटते नहीं बनता।

प्राणी आशा के अंकुर बोता है, प्रीति के धागे बुनता है, उम्मीदों की कड़ियॉं जुड़ती हैं, खुशियों के सैलाब उमड़ते हैं। भविष्य की उड़ान सारे आकाश को ढक लेती है। माता-पिता संतान से अपेक्षा रखते हैं, संतान स्वयं से अपेक्षा रखती है और फिर स्वार्थ का जाल बनने लगता है। संबंधों की कसौटी पर खरे न उतरने पर वे बिखरने लगते हैं। आशा, निराशा में बदल जाती है, प्रीत से घृणा बनते देर नहीं लगती, दुःखों के पहाड़ सामने दिखायी देने लगते हैं। यही जीवन है।

सारी जिंदगी जिन संबंधों को अपना मानते रहे, जिनके बिना एक पल भी रहना असंभव प्रतीत होता था, जिनके विक्षोभ की कल्पना भी असहनीय थी, अंत समय में वे सब रिश्ते, वे सब नाते छूट जाते हैं। ये मेरी पत्नी है, ये मेरा पति है, ये मेरे बच्चे हैं, भाई, माता, चाचा, ताऊ कोई भी साथ नहीं जाता। मृत्यु के उपरांत जीव की यात्रा नितांत अकेली होती है। साथ रहते हैं तो केवल उसके कर्म। अपने कर्मों के प्रकाश में ही जीवात्मा सारा रास्ता तय करती है।

अगर जीतेे-जी शुभ कर्मों की बहुलता रही, तो मरने के बाद भी आत्मा को भटकना नहीं पड़ता और कहीं अशुभ कर्मों की बहुतायत हुई, तो फिर परमात्मा ही मालिक है। इसलिए अभी से सावधान हो जाओ और प्रभु-भक्ति में स्वयं को लीन कर लो।

यहॉं एक बात स्पष्ट रूप से कह दूँ कि धर्म की पालना या परमात्मा के मार्ग पर चलना या भक्ति करना किसी डर या भय के अधीन होकर नहीं किया जाता। ऐसा नहीं कि डर के कारण सुबह उठकर राम-नाम करने से लोक सुधरेगा या शुभ-कर्म बनेंगे। भगवान की भक्ति भयरहित होकर की जाती है। वहॉं तो केवल भाव की सत्ता है। भावों से ही इष्ट का श्रृंगार और पूजन होता है।

इस कर्मगति के रहस्य बड़े विचित्र हैं। इंसान जो बोता है, वही काटता है। उसी प्रकार कर्मफल की प्राप्ति होती है। एक अत्यंत भगवद्-भजन करने वाले दंपत्ति थे। उनकी सुशील सुंदर कन्या का विवाह नगर के प्रसिद्घ व्यापारी से हुआ। युवती कन्या ने अपने माता-पिता के घर धर्म का सम्यक्-दर्शन किया था। उसकी वृत्ति संसार से अधिक परमात्मा की ओर थी।

लेकिन भजन-पूजा के साथ-साथ वह पतिसेवा में कभी कोई कमी नहीं आने देती थी। बस एक ही दुःख था। वह जब कभी अपने पति को भजन करने को कहती, परमात्मा का नाम लेने को कहती तो उत्तर मिलता, “”अभी क्या जल्दी है? अभी तो बहुत समय है। संसार के कार्य निपट जायें तो भजन-पूजन भी कर लेंगे।”

एक दिन पति महोदय बीमार पड़े। वैद्य जी को बुलाया गया। उन्होंने नाड़ी देखी और दवा दे गये। पत्नी ने चुपचाप दवाई एक तरफ रख दी। जब दवा लेने का समय हुआ, तो पति ने पत्नी से दवा मॉंगी। पत्नी बोली, “”अभी क्या शीघ्रता है? अभी तो बहुत दिन पड़े हैं। दवा फिर ले लीजिएगा।” पति को गुस्सा आ गया, “”तब क्या दवा मरने के बाद खाने को दोगी?”

पत्नी ने दवा पकड़ाते हुए कहा, “”दवा तो अभी खाने की वस्तु है, लेकिन लगता है भगवान का नाम लेना आपने मृत्यु के बाद की वस्तु समझ लिया है, क्योंकि दवा का समय तो अब है यह पता है, लेकिन मृत्यु कब आयेगी यह तो किसी को नहीं पता।” पति को अपनी भूल पता लग गयी और फिर उसने कभी भजन को टाला नहीं। इसलिए मन से सोचो-विचारो। कितना पैसा कमाया, दुनियाभर की ऐश करने के लिए पानी की तरह उसे बहाया, बड़े-बड़े घर, सजावटी सामान, जगमगाती रोशनियॉं, दुनिया भर की चहल-पहल, हंसी-मजाक, चुटकुलेबाजी, मौज-मस्ती, लेकिन इसके बावजूद भी कहीं पर कोई शांति नहीं। जहॉं कहीं शोर-शराबे, नाच-गाने, तेज लाइट के बाद जब सब कुछ थम जाता है तब सन्नाटा भयानक हो उठता है। फिर वहॉं के अंधकार की ओर देखने से भी डर लगता है।

यही स्थिति जीवन की है। जब तक शरीर में प्राण रहे, तब तक सारे संबंध, जो उस शरीर से थे, सब प्रिय लगते थे। मरने के बाद मुर्दा शरीर को हाथ लगाने से भी डर लगता है। उसकी ओर देखने को भी मन नहीं करता। जब जीवन था तो उस शरीर से हाथ मिलाया, गले लगे, साथ बैठकर चाय पी, लेकिन अब मर गया तो छूने पर भी स्नान करना पड़ेगा। भावना बदल गयी।

फिर मर कर भी कोई साथ नहीं पत्नी तो घर की देहरी तक, मित्र तो शमशान तक, पुत्र तो मुखाग्नि तक साथ देगा, आगे जीव की यात्रा अकेली है। नितांत अकेली। सूक्ष्म शरीर के साथ केवल उसके कर्म हैं। इसलिए अपने कर्मों को श्रेष्ठ बनाओ।

याद रखो, यह लोक ही नहीं, परलोक भी सुधारना है। इसके लिए अपने सांसारिक-कर्म आसक्तिरहित होकर करो और जैसे रहो, स्वयं को परमात्मा के नाम स्मरण में लीन रखो। देखो हृदय से, सच्चे मन से, मुख से “राम’ शब्द नहीं निकलता। वहॉं वाणी या तो मौन हो जाती है या फिर वृथा प्रलाप करने लगती है।

संसार में रहो और सावधान होकर रहो। शुभकामना, शुभ कल्पना, शुभ प्रेरणादायक बनो। न किसी के संग दोस्ती, न किसी से बैर। सभी में उस परमात्मा के दर्शन करो। ठीक है, मन है तो अस्थिरता का भाव भी होगा और स्वाभाविक है फिर चंचलता भी मन में उतरेगी। इसके लिए सद्गुरु की शरण लो और अपना जीवन संवार लो…

– मुदुल स्वामी महाराज

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