अकाल का अंत

एक राजा था। उसका नाम सूरसेन था। उसके अच्छे शासन की ख्याति चारों तरफ फैली थी। उसकी प्रजा सुखी थी। राज्य में धन-धान्य की कमी नहीं थी। बहुत जरूरी होने पर ही प्रजा पर कर लगाया जाता था। सबसे बड़ी बात यह कि राजा का रहन-सहन साधारण नागरिकों जैसा था। उसका मानना था कि लोगों को कष्ट देकर कमाया गया धन, कन्या-धन की तरह पवित्र होता है। उसका दुरुपयोग करने वाला राजा पाप का भागीदार होता है। ऐसे सुविचारों के कारण दूर-दूर तक राजा की कीर्ति फैली हुई थी।

एक बार की बात है। बहुत समय तक राज्य में वर्षा नहीं हुई। तालाबों का पानी सूख गया। कुओं में जलस्तर गिर गया। पेड़ों से पत्ते लगातार गिरने लगे। हरियाली का नामोनिशां न रहा। पशुधन औने-पौने दामों में बेचा जाने लगा। तब राजा ने जनता के लिये शाही गोदाम के द्वार खोल दिये। राजकीय संकट की घोषणा की गयी और पड़ोसी राज्यों से मदद ली गयी।

इंद्रदेव को रिझाने के लिए राजमहल में प्रतिदिन हवन-पूजन किया जाता। जगह-जगह विशेष प्रार्थनाएँ होतीं। परंतु वर्षा की एक बूंद भी नहीं गिरी। सूखे खेत देखकर प्रजा दुःखी थी और प्रजा को दुःखी देखकर राजा निराश था। इसी दौरान राजा ने सपना देखा कि उसके राज्य में कोई ऐसा व्यक्ति है, जो वर्षा नहीं चाहता। उस व्यक्ति विशेष का पता लगाने का संकल्प लेकर राजा साधु वेश में राज्य भ्रमण पर निकल पड़ा। लोगों के अभिवादन के उत्तर में वह एक ही बात

कहता, “”दीर्घायु हो। इंद्रदेव प्रसन्न हों।”

एक स्थान पर एक वृद्घा से भेंट हुई तो उसने वही वाक्य दोहराया। वृद्घा ने रूखेपन से कहा, “”ऐसा मत कहिए महात्मा जी। बारिश हुई तो मैं बर्बाद हो जाऊंगी। मेरा छप्पर टूटा है। बारिश हुई तो बोरी-बिस्तर भीग जायेंगे। मुझ जैसी खांसी की मरीज को भला कौन शरण देगा?”

राजा ने उत्सुकता से कहा, “”बुढ़िया मां, बिन बारिश जान के लाले पड़ रहे हैं । ऐसे में बोरी- बिस्तर किस काम के? वैसे भी एक तुम्हारे पीछे सभी लोग क्यों तबाह हों?” वृद्घा ने गुस्सा जताते हुए कहा, “”सबके साथ तबाह होने का मुझे क्या गम। यहॉं तो मैं अकेली हूँ और अकेली जान पर कितनी मुसीबतें आती हैं, कोई मुझसे पूछे।” राजा ने धैर्यपूर्वक उसकी दीन दशा का कारण पूछा। उसने खुलासा किया कि अपनी संतान न होने के कारण उसने एक लड़का गोद लिया था। एक दिन उसके भरोसे अपना घर-बार छोड़कर जब वह तीर्थ पर गयी तो वह उसका सारा माल-मत्ता लेकर चंपत हो गया।

राजा का अगला प्रश्न था कि उसने राजदरबार तक खबर क्यों नहीं पहुँचाई? बुढ़िया ने दुःखी स्वर में कहा, “”बुरी घड़ी आई तो मुझे धोखा मिला। फिर राजा तक पहुंचने के लिये पैसा और सिफारिश भी तो चाहिए।”

राजा चौंका, “”सिफारिश? पैसा? मैंने सुना है, सूरसेन राजा प्रजापालक है। उसके दरबार के द्वार सबके लिये खुले रहते हैं?”

वृद्घा ने अनमनेपन से कहा, “”औरों के लिये खुले होंगें। मेरे लिये नहीं। एक बार हिम्मत की थी लेकिन द्वारपालों ने दुत्कार कर भगा दिया। जरूर वह भगोड़ा उनकी जेब गर्म कर गया होगा।” राजा ने गहरी सांस ली, “”मेरे दरबार में रिश्र्वत की दस्तक! मुझे खबर तक नहीं? मोटे वेतन के बावजूद द्वारपालों की नीयत में खोट? यह शुभ संकेत नहीं।”

बात पक्की करने के लिये उसने सहज भाव से कहा, “”बूढ़ी मॉं, बात सच है?” वह झल्लाकर बोली, “”महात्मा जी, आपके सामने झूठ बोलूं तो नरक में जाऊँ। राजा मेरी बोटी-बोटी करवा कर चील-कौवों को खिला दें।” उसकी बात राजा तक पहुँचाने का आश्वासन देकर उसने वृद्घा से विदा ली और महल में पहुँच कर घटनााम पर विचार करने लगा, “”लगता है, बुढ़िया की बात में दम है। एक-एक शब्द आत्मविश्र्वास से भरकर कह रही थी।”

उसने अपनी राजसभा की विशेष बैठक बुलवाई। सच्चाई का पता लगाने के लिए जासूसों की नियुक्ति की। थोड़े समय में उन्होंने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिखाया। द्वारपाल दोषी निकले। उन्हें देश-निकाला दिया गया। वृद्घा के लिये घर और घर में जरूरी सामान की व्यवस्था की गयी। राजा की जय-जयकार हुई।

तभी आकाश बादलों से घिर गया। मूसलाधार वर्षा होने लगी। लोग खुशी से चिल्ला उठे, “”अकाल का अंत हुआ!”

– कृष्णलता यादव

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