अवध में शासकों के काल में “मोहर्रम’

 

moharram-shashak-kal-meइमाम हुसैन की शहादत की यादगार के रूप में मनाया जाने वाला पर्व “मोहर्रम’ अवध के शासकों के काल में शिया व सुन्नी मुसलमानों के अलावा हिन्दुओं द्वारा भी उतनी ही श्रद्घा, भक्ति और उत्साह से मनाया जाता था। मोहर्रम के कारण ही तब से मुसलमानों के अन्य त्योहारों की रीतियों को हिन्दुओं में भी निभाने का चलन शुरू हो गया।

वैसे तो अवध क्षेत्र में मोहर्रम अवध की सरकार की स्थापना से पहले भी मनाया जाता था, किन्तु अवध में बुरहानुल मुल्क की सरकार की स्थापना के बाद मोहर्रम के आयोजन, विस्तार एवं प्रसार तथा इसके वैभव और उत्साह को जो बढ़ोत्तरी मिली वह पूर्व में नहीं थी। मोहर्रम मुसलमानों के अलावा हिन्दुओं और अन्य सम्प्रदाय से संबंध रखने वालों का पर्व हो गया था। अवध के शासकों तथा धनी एवं विशिष्ट वर्ग के लोगों द्वारा बनवाये गये इमामबाड़ों में मोहर्रम का आयोजन एवं प्रबंध भारी उत्साह होती थी। विभिन्न प्रकार के जुलूस निकलते और लगन से होता था। मोहर्रम की धूमधाम का ाम उस काल में मोहर्रम मास की पहली तारीख से शुरू हो जाता था और दसवीं तारीख को खत्म होता था। मोहर्रम का चॉंद देखने के बाद लोग हरे एवं काले रंग के वस्त्र धारण करते थे। जगह-जगह पर मजलिसों का आयोजन किया जाता था। प्रत्येक घर में ताजियादारी थे। मजलिसों एवं जुलूसों में शामिल होने और ताजियों का दर्शन करने के लिए मातमी वस्त्र धारण किये हुए लोगों की भीड़ हर ओर दिखाई पड़ती थी। हिन्दू और मुसलमान महिलाएँ एकत्र होकर शोकपूर्ण लय में दोहे गाती थीं। इन दोहों या गीतों में इमाम हुसैन एवं उनके अनुयायियों को शत्रुओं ने कितनी निर्दयता के साथ शहीद किया, इसका वर्णन अवधी भाषा में होता था। अजादारी और मातम करने वालों के लिए हिन्दू-मुस्लिम दोनों सम्प्रदाय के लोग जगह-जगह पर सबीलें लगाते थे तथा शर्बत व संतरे का प्रबंध करते थे।

अवध के शासकों के काल में मोहर्रम के दिनों में इमाम बाड़ों में प्रकाश की विशेष व्यवस्था की जाती थी। कंदीलें और लाल एवं हरी मोमबत्तियॉं जलायी जाती थीं। इस प्रकाश एवं कारचोबी के काम की चमक-दमक, सोने-चॉंदी के अलमों और पंजों की जगमगाहट और उनके पटकों की सजावट, जरदोजी के काम पर गंगा-जमुनी किरन की झालर की सजावट तथा दरों-दीवार की चमक-दमक, से इमामबाड़े प्रकाशपुंज बन जाते थे। खासकर शबे आशूर (दस मोहर्रम की रात्रि या कत्ल रात) को इमामबाड़ों की सजावट व रोशनी का प्रबन्ध इतना अधिक शानदार होता था कि देखने वालों की आँखें चकाचौंध हो जाती थीं।

उस काल में मोहर्रम पर इमामबाड़ों में प्रतिदिन दो बार मजलिसें आयोजित की जाती थीं, जिनमें तत्कालीन अवध के शासकगण भी शोकपूर्ण वस्त्र धारण करके एवं अपने सिर पर ताऊस (मोर) के पर (पंख) का ताज धारण करके बैठते थे। उस समय अवध के सभी शासक मोहर्रम के लगभग सभी आयोजनों में उत्साह एवं उमंग के साथ भाग लेते थे। नवाब शुजाउद्दौला बड़ी श्रद्घा एवं सम्मान के साथ अजादारी किया करते थे। आसिफ उद्दौला बड़ी धूमधाम से ताजियादारी किया करते थे और प्रायः ऐसा होता था कि वह स्वयं मातम करते-करते लहूलुहान हो जाते थे। वह जब ताजियों का दर्शन करते थे तो उन पर पॉंच रुपये से लेकर हजार रुपये तक की भेंट चढ़ाते थे। वाजिद अली शाह मोहर्रम का चांद दिखने के पश्र्चात् हरा वस्त्र धारण कर लिया करते थे तथा अजादारी के प्रत्येक कार्य को पूर्ण रूप से सम्पन्न करते थे। दस मोहर्रम की रात्रि में वह जनसाधारण के घरों में जाकर ताजियों का दर्शन करते थे। वे प्रत्येक स्थान पर कुछ न कुछ चढ़ावा (भेंट) अवश्य चढ़ाते थे। इसके अलावा मोहर्रम के जुलूस में वह स्वयं ताशा (एक बाजा) बजाया करते थे।

वैसे तो उस काल में महोर्रम के अवसर पर अजादारी (शोक मनाना) इस माह के प्रारंभिक दस दिनों तक बराबर चलती रहती थी, लेकिन पहली से लेकर दस तक की तिथियों में से कुछ तिथियॉं कुछ विशेष रीतियों एवं जुलूस के लिए सुरक्षित थीं। जैसे पॉंच तारीख को बच्चों को इमाम हुसैन के नाम पर फकीर बनाया जाता था। यह रीति जनसाधारण में अत्यधिक प्रचलित एवं मान्य थी तथा बहुत से घरों में इसको मनाया जाता था। कहा जाता है कि मोहर्रम के अवसर पर इस रीति को मनाया जाना हिन्दुओं के प्रभाव के कारण हुआ था।

अवध के शासकों के समय में सातवीं मोहर्रम को हजरत कासिम की (मेंहदी) शादी का जुलूस निकलता था, जो मेंहदी का जुलूस कहलाता था। इसमें सबसे आगे हाथियों एवं ऊँटों की पंक्तियां रहती थीं, जिन्हें इमामबाड़े के बाहर ही रोक दिया जाता था। सिपाही, जुलूस ढोने वाले मजदूर तथा बाजे वाले इमामबाड़े के सदन में बायीं ओर उचित ढंग से इस प्रकार खड़े हो जाते थे कि बीच में रास्ता बन जाता था। सबसे पहले अंदर प्रवेश पाने वाले सामान में चांदी की कश्तियों (टे अथवा परात) में मिठाईयॉं, सूखे मेवे एवं फूलों के हार होते थे। इसके पश्र्चात् चमकते झलझल करते वस्त्र धारण किये हुए सेवक सिरों पर मसहरी रखे तथा कुछ व्यक्ति हाथों में गुलदस्ते लिए हुए आते थे। इनके पीछे दुल्हन की चांदी की पालकी होती थी, जिसके संग सुंदर वर्दी धारण किये हुए मशालची कुमकुमों में प्रज्ज्वलित मशालें लिये चलते थे तथा इनके साथ-साथ “करना’ और “नफीरी’ बजाने वालों की चौकियॉं हुआ करती थीं। दुल्हन की इस पालकी पर रुपये और चांदी के अन्य सिक्के न्योछावर किये जाते थे। कुछ लोग हजरत कासिम का ताबूत कंधों पर उठाये होते थे। पीछे-पीछे मातमी दस्ते मातमी वस्त्र धारण किये हुए प्रवेश करते थे। इस ताबूत के संग जरी के छत्र के नीचे घोड़ा होता था, जिस पर हजरत कासिम का अमामा (पगड़ी), खंजर, धनुष एवं भरा हुआ तरकश रखा जाता था। जब यह घोड़ा इमामबाड़े में प्रवेश करता था तो इस पर चांदी एवं सोने के फूल न्योछावर किये जाते थे। अन्त में शोक की मजलिस होती थी।

जिस प्रकार से मोहर्रम की सात तारीख हजरत कासिम से संबंद्घ कर दी गयी थी, उसी प्रकार से मोहर्रम की आठ तारीख हजरत अब्बास से जोड़ दी गयी थी। इस तारीख को हजरत अब्बास का अलम निकलता था तथा इसमें विशेष बात यह होती थी कि सल्तनत के अमीर, रईस व जनसाधारण सभी के जुलूस में हजरत अब्बास के अलम का पंजा तांबे का होता था। दसवीं मोहर्रम को ताजिये उठते थे। ताजिया भी हिन्दुस्तानी वस्तु है, इसका आविष्कार भारत में ही हुआ तथा इसी देश में इसको लोकप्रियता भी मिली।

कहते हैं कि शहंशाह तैमूरलंग प्रतिवर्ष मोहर्रम के अवसर पर इमाम हुसैन की मजार पर श्रद्घावश दर्शन हेतु जाया करता था। जब उसने भारत पर आामण किया तो युद्घ के काल में ही मोहर्रम का चांद दिखाई पड़ा और चूँकि उस समय उसके लिए कब्रे हुसैन पर पहुँचना असम्भव था, इसलिए उसने अपने सलाहकारों की सलाह पर इमाम हुसैन के रौजे की शबीह (प्रतिमूर्ति) बनवायी और उसके सम्मुख शोक प्रकट करके अपनी श्रद्घा और भक्ति को संतुष्ट किया। वही शबीह ताजिये की नींव (आधार) बनीं। तैमूर ने जो शबीह बनवायी थी, वह इमाम हुसैन के रौजे की हू-ब-हू नकल रही होगी, लेकिन आगे चलकर ताजिये के आकार एवं प्रकार में बदलाव आया और इसकी बनावट में हिन्दू शैली स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होने लगी।

अवध में प्राचीन समय में जो ताजिये प्रचलित थे, उनका ऊपरी भाग अर्थात गुम्बद हिन्दुओं के मंदिर से मिलता-जुलता होता था। नीचे के खण्ड में तुरबत की तरह एक नमूना अलग से बनाकर रख दिया जाता था। ताजिये की इस सूरत के जन्म के विषय में यह अनुमान है कि जब हिन्दुओं ने मोहर्रम में भाग लेना शुरू किया होगा तो उन्होंने प्रारंभ में इसी प्रकार का ताजिया बनाया होगा और फिर इसी का साधारणतया प्रचलन हो गया। अवध के शासकों के समय में साधारण रूप से इसी आकार के ताजियों का चलन था। इस काल में विभिन्न स्तर के लोग विभिन्न प्रकार के और विभिन्न वस्तुओं के ताजियों का निर्माण करवाते थे। उस समय दसवीं मोहर्रम यानी आभूरा के दिन सूर्योदय के साथ ही ताजिये उठने लगते थे। हर वर्ग के लोग ताजियादारी करते थे और ताजिये उठाते थे। चांदी से लेकर लकड़ी और कागज के ताजिये बनते थे। कुछ लोग हाथी दंत और चंदन की लकड़ी के ताजिये भी बनवाते थे।

अवध के शासकों के काल में मोहर्रम के पर्व में भारतीय प्रभाव एवं हिन्दुओं के प्रभाव की छाप स्पष्ट रूप से पड़ी तथा इसकी तमाम परंपराओं में धार्मिक प्रथाओं पर हिन्दुओं में सम्मिलित होने से इसका संयुक्त सांस्कृतिक रंग-रूप एक चमकते हुए दिन की तरह स्पष्ट है। उस समय हिन्दुओं और मुसलमानों द्वारा मोहर्रम को मनाने का जो ढंग था उसने एक ओर तो खुद इस पर्व के संयुक्त सांस्कृतिक रूप को निखारा तथा दूसरी ओर इससे अवध की सांझी संस्कृति को भी बड़ी शक्ति मिली।

 

– निर्विकल्प

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