आत्म सम्मान

mamshekha-storyमाशेंका-एक युवती, जिसने अपनी पढ़ाई समाप्त करने के पश्र्चात कुशकिन परिवार में गवर्नेस के रूप में पदार्पण किया था। एक शाम वह सैर से घर लौटी तो लगा कि भीतर कोहराम मचा हुआ है। बरामदे के द्वार पर ही नौकर मिहैलो का सुर्ख चेहरा मिला। उसे देखते ही माशेंका को शंका हुई कि भीतर कुछ गंभीर हलचल हो रही होगी। उसने सोचा कि मादाम कुशकिन को फिर झगड़े का दौरा पड़ा होगा और वह अपने पति निकोलय पर सारा ऩजला उतार रही होंगी। हॉल में पहुँची तो देखा कि नौकर-चाकर मुँह लटकाए खड़े हैं। इतने में निकोलय माशेंका के कमरे से निकल कर हॉल में बड़बड़ाते हुए आए “”क्या…क्या बेवकूफी… कितना घृणित.. हद होती है” और रोष में दनदनाते हुए सीढ़ियों की ओर बढ़ गये।

माशेंका अपने कमरे में पहुँची तो चकित रह गई। जीवन में पहली बार उसने अनुभव किया कि आश्रित व्यक्ति जिस अमीर की रोटी के टुकड़े तोड़ता है, वह कितना असहाय होता है, देखकर भी अपने अपमान पर मुँह बंद रखता है। उसके उस छोटे-से कमरे की तलाशी ली जा रही थी और तलाशी ले रही थी एक मोटी, भद्दी, चौड़े कंधों वाली औरत, जिसके लम्बे चेहरे पर मोटी घनी भौंहें कम्बल कीड़ों की तरह लग रही थीं। पहली बार देखने वाला इस महिला को घर की मिसरानी समझेगा, परन्तु थी वह घर की मालकिन- मिसेज फिरदौसिया कुशकिन। माशेंका ने देखा कि मिसेज कुशकिन एक थैली में हाथ डालकर कुछ टटोल रही थीं और सारे कमरे में कागज, कपड़े आदि इधर-उधर बिखरे थे।

माशेंका को देखकर मिसेज कुशकिन कुछ झिझकीं, फिर अस्पष्ट शब्द उनके मुख से निकले, “”माफ करना, मेरा हाथ इस थैली में अटक गया।” इसी तरह कुछ और बड़बड़ाते हुए, वह कमरे से बाहर निकल गईं। माशेंका चकित खड़ी कमरे में बिखरे पड़े अपने सामान को देखती रही। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि इस तलाशी का कारण क्या है? इसका मतलब यह तो नहीं कि उस पर संदेह किया जा रहा है, कोई गंभीर आरोप लगाया जा रहा है। तो क्या..? उसका चेहरा पीला पड़ गया।

इतने में नौकरानी ली़जा कमरे में आई। उसकी आँखों में आँसू थे। उसने बताया कि “”मालकिन का सोने का ब्रोच खो गया है और वह सबकी तलाशी ले रही हैं। मालिक निकोलय भी असहाय से केवल कुढ़ रहे हैं, परन्तु कुछ करने में असमर्थ हैं। मालकिन का यह रवैया हम सबके लिए अपमानजनक है, पर हम कुछ कर भी तो नहीं सकते, नौकर जो ठहरे। मालिकों का जुल्म सहना तो पड़ेगा ही।”

माशेंका शोक में डूब गई। उस पर बिना किसी आधार के आरोप लगाया जा रहा था, अपमानित किया जा रहा था और वह मन मसोस कर खामोश थी। अपने मन की भड़ास निकालते हुए उसने कहा, “”पर लीजा, यह तो घटियापन है। किसने उन्हें यह अधिकार दिया है, जो मेरा सामान उलट-पलट करके बिखेर दिया गया?”

“”आप भले ही पढ़ी-लिखी हैं, किंतु इस घर की नौकर ही तो हैं।”

ठीक ही तो कह रही थी लीजा। माशेंका आक्रोश और बेबसी की हालत में पलंग पर लुढ़क गई और फफक-फफक कर रोने लगी। जीवन में उसने ऐसे अपमान का सामना कभी नहीं किया। उसके माता-पिता गरीब थे, लेकिन मेहनत करके उन्होंने माशेंका को शिक्षित बनाया, ताकि वह एक सम्मानजनक जीवन जी सके। पर आज….?

उसकी आँखों के सामने एक चलचित्र चलने लगा। उस पर चोरी का इल्जाम लगाया जाएगा….पुलिस आएगी…। गिरफ्तार कर तलाशी ली जाएगी। प्रताड़ित किया जाएगा। जेल में बंद किया जाएगा, जहॉं चूहे और खटमल उसके साथी होंगे। कौन देगा सहारा उसे? उसे लगा कि वह इस सहरा में अकेली खड़ी है, जहॉं उसका कोई साथी नहीं, संगी नहीं, सहारा नहीं।

रात्रि-भोज की घंटी बजी। माशेंका सोच में पड़ गई कि उसे भोजन के लिए जाना चाहिए या नहीं। नहीं गई तो…? वह उठी, हाथ-मुँह धोकर डिनर-टेबल पर पहुँची तो देखा कि सब लोग बैठ चुके हैं और सब मौन हैं। केवल प्लेटों, चम्मचों और छूरियों की आवा़जें आ रही हैं।

“”और क्या है?” मालकिन ने पूछा।

“”जी, मछली का शोरबा।”

“”किसने कहा था, यह बनाने को?” कहते हुए वह झल्लाईं।

निकोलय ने सकुचाते हुए धीमे-से कहा, “”इसमें क्या है, यदि मन न चाहा तो कुछ और ले लो।”

वास्तव में मिसेज कुशकिन नहीं चाहती थीं कि उसकी आज्ञा के बिना इस घर में पत्ता भी हिले। वह बड़बड़ाने लगीं, “”पहले ही मेरा ब्रोच खो गया है। सवाल दो हजार का नहीं है, बल्कि मेरे ही घर के लोग मेरा खाकर मेरा ही माल चोरी करने लगे हैं। मैं यह सहन नहीं कर सकती। आखिर हद होती है मेरी दया का लाभ उठाने की भी।”

सब लोग सिर झुकाए खा रहे थे। माशेंका ने कहा, “”क्षमा करें, मेरे सिर में ते़ज दर्द है। मैं जा रही हूँ।” और वह उठकर सीधे अपने कमरे में चली गई।

“”तुमने नाहक उस पर शक किया, क्या जरूरत थी उसके कमरे की तलाशी लेने की?” निकोलय फुसफुसाया।

“”मेरा ब्रोच खो गया तो मैंने तलाशी ली। क्या तुम उसकी ओर से पैरवी कर रहे हो? वैसे भी, मुझे इस पढ़ी-लिखी भिखारिन के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। तुम चुपचाप अपना भोजन करो और जाओ। तुम्हें इन सब पचड़ों में पड़ने की जरूरत नहीं है।”

माशेंका अपने कमरे में बिस्तर पर लुढ़क कर रोने लगी। रोते-रोते जब जी हल्का हुआ तो उठी और अपना सामान बॉंधने लगी। उसने निश्र्चय कर लिया कि अब उसे यहॉं नहीं रहना है। जहॉं सम्मान नहीं, आत्म-सम्मान से जीने का ह़क नहीं, ऐसी जगह तो जानवर भी रहना पसंद नहीं करते, वह तो मनुष्य है। माशेंका अपने कपड़े थैली में भर रही थी और मन ही मन सोच रही थी कि वह इतनी रात में कहॉं जाए? इतने में निकोलय दरवाजे पर दस्तक देकर कमरे में आया। उसने देखा कि माशेंका सामान बॉंध रही है।

“”ये क्या? सामान बॉंध रही हो? जा रही हो?”

“”मुझे क्षमा करें मिस्टर कुशकिन, मैं यहॉं नहीं रह सकती।”

“”मैं समझ सकता हूँ। उसने तुम्हारा सामान टटोल कर तुम्हारा अपमान किया है। इसके लिए मैं शर्मिंदा हूँ। तुम कहो तो मैं क्षमा भी मांगूंगा, पर तुम घर छोड़कर मत जाओ। इस घर के सारे जमावड़े में एक तुम ही तो इन्सान हो, जिससे मैं खुलकर बात कर सकता हूँ। कम से कम मेरी खातिर यह घर मत छोड़ो।”

माशेंका ने कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप अपना सामान बॉंधती रही। निकोलय ने फिर कहना शुरू किया, “”अगर तुम्हें ठेस पहुँची है तो उसकी ओर से मैं क्षमा मांगता हूँ। क्या तुम चाहती हो कि तुम्हारे जाने के बाद मेरी आत्मा मुझे कचोटती रहे? तुम रो रही हो? तुम्हारा आत्म-सम्मान आहत हुआ है, यह मैं जानता हूँ। पर मेरा ़जमीर भी तो मुझे कचोटता रहेगा। ठीक है, मैं ही तुम्हें बताता हूँ, वह बात जो मैं बिशप के सामने अपने अपराध-स्वीकरण में भी कभी नहीं कहूँगा, मरते दम तक भी नहीं, लेकिन तुम से कह रहा हूँ कि वह ब्रोच मैंने चुराया है।” माशेंका फिर भी चुप रही।

“”तुम सुन रही हो ना, वह ब्रोच मैंने चुराया है। करता भी क्या? वो मुझे पैसे नहीं देती और मुझे पैसों की जरूरत है। यह घर और सारी जायदाद मेरी है, जिस पर उसने अपना अधिकार जमा रखा है और अब मुझे तंग करती है। वह ब्रोच मेरी मॉं का है और उस पर मेरा हक है। है ना? क्या अब भी तुमने अपना निर्णय नहीं बदला? ठीक है, मैं समझता हूँ तुम्हारी मनःस्थिति। तुममें आत्म-सम्मान है और आज वह आहत है, ईश्र्वर तुम्हारी रक्षा करे। मेरा क्या है? आत्म-सम्मान तो कब का बिक चुका है, एक स्त्री के हाथों उसी की स़जा भुगतता रहूँगा।”

“”निकोलय” एक कर्कश आवाज उभरी। निकोलय का चेहरा पीला पड़ गया। उसका हाथ माशेंका के सिर पर था और अलविदा कह कर वह चला गया। माशेंका ने अपना थैला उठाया और दरवाजे की ओर चल पड़ी।

मूल-एन्टोन पावलोविच चेखव

अनुवाद-चंद्रमौलेश्र्वर प्रसाद

You must be logged in to post a comment Login