इज्जत का प्रश्न

सिगरेट पीते-पीते ऐश-टे कब भर गयी थी, नरेंद्र को पता ही नहीं चला। उठा और वाशबेसिन से आंखों पर पानी के छींटे मार कर बाल संवारने लगा।

बेटे राधू की शादी का बीता दशक उंगली पकड़कर चलने वाली संतान न दे पाया था उसे। कोई मंदिर या दरगाह नहीं छूटी थी, जहां सपरिवार मन्नत न कबूली हो।

सादगी की मूरत, मिलनसार, बच्चे के प्रति हमदर्दी रखने वाले और मान-सम्मान पाने वाले नरेंद्र बाबू का गांवभर में सानी न था। हर गली-कूचे की राह उनके लिये नजरें बिछाने को बेचैन रहतीं। सार्वजनिक गंभीर समस्याओं का हल आला व्यक्तियों के होते नरेंद्र के बिना संभव न था। इतना होते हुए भी घर की चारदीवारी के भीतर वे सुनते सबकी और करते अपने मन की।

राधू ने पत्नी को संग ले कर अपना कारोबार अन्यत्र जमा लिया था। हॉं, कभी-कभी यहॉं खाना खाने के लिए जाता था। मझले शुभम को सरकारी नौकरी मिले छः महीने पूरे हो रहे थे। छुटके ने जमा दो के बाद महाविद्यालय में प्रवेश लिया था। पत्नी सोना लंबी बीमारी के कारण चारपाई तक सिमट गयी थी। सो नरेंद्र का ज्यादा वक्त उसकी देखभाल में बीतने की वजह से सरगर्मियों में मंथर गति आना स्वाभाविक था।

“”चिंता क्यों करती हो? बहू चली गयी तो क्या हुआ? वे मिलने तो आते रहेंगे ही…। तुम्हें बहू की याद आती है?”

यह सवाल सोना को भीतर तक कुरेद गया। आंसुओं की लुढ़की बूंदें हाल बयां करने को हुईं तो वह उठ कर बैठ गयी।

“”देखो जी, इतनी ठंड में बहू चार बजे उठ कर पानी गर्म कर मुझे नहलाती। रोटी का एक-एक कोर मुंह में डालती। समय-समय पर दवा पिलाया करती। मजाल कि किसी काम में चूक हो।

ऐसे में भला याद नहीं आयेगी उसकी?”

“”एक बात पूछूं? शुभम की शादी कर देते हैं।”

“”क्या …?”

“”लड़की पढ़ी तो नहीं है, हॉं अच्छे खानदान की सुन्दर व सुशील संतान है।”

“”लड़के से पूछे बिना शादी की हामी न करना।”

“”क्या बात करती हो…? उसकी कौन परवाह करता है।”

“”अपनी तो उम्र कट गयी। अनपढ़ गले मढ़ने से पूर्व सोच लेना। राधू के बापू।” सोना बोली।

“”मैंने कहा न…?”

इस चर्चा को सुन कर शुभम तिलमिला गया। “”पिता जी, बड़े भैया के यहां कोई संतान हो जाने दो। वह दूर गया तो क्या हुआ? कहलाएँगे तो दादा आप ही। फिर मुझे कोई एतराज नहीं होगा।”

जीजा जी के आते ही शुभम ने अपनी फरियाद उन्हें सुनायी। वे नरेंद्र के पास जाकर बोले, “”पिता जी, एम.ए., बी.एड. लड़के के साथ अशिक्षित लड़की निभ नहीं पायेगी। सर्विस वाली न सही, ग्रेजुएट होगी तो एडजस्ट करने की क्षमता तो रखेगी।

“”बेटा, अनपढ़ लड़की बुढ़ापे में सेवा-बाड़ी कर देगी। लेकिन पढ़ी-लिखी के नाज-नखरे आसमानी होते हैं।” प्रत्युत्तर में नरेंद्र बोले।

“”जी नहीं, समय बदल गया है इसकी धार में बहना सीखें।”

“”यह नहीं हो सकता…”

“”मैं किसी को जुबान दे चुका हूं, जो अब मेरी इज्जत का प्रश्र्न्न बन गया है।”

“”संतान की खातिर माता-पिता अपने सुख त्यागते हैं और आप हैं कि…?”

“”मैंने कह दिया ना…।”

“”फिर अंजाम भुगतने को तैयार रहिएगा” कहकर दामाद ने अपनी राह ली।

नातेदारी की उपेक्षा कर “चट मंगनी पट ब्याह’ अनुसार नरेंद्र बाबू वर-वधू चुनरी ओढ़ा लिवा लाया।

वही हुआ, जिसका भय था। चंद रोज में वैचारिक विषमता से घरेलू सुख-शांति के सूर्य को राहु ग्रसने लगा। यहां तक कि तू-तू मैं-मैं के चलते बहू धनी बाप की बेटी होने की धौंस जताती।

पंद्रहवें दिन ही घर में रणभेरी बजने लगी। हद पार तब हुई, जब बीमार सोना के बीच में बोलने पर बहू का हाथ उठ गया था। यदि मौके पर देवर राजू न आता तो जो नहीं होना चाहिए वह हो जाता।

इस अपमान का बदला लेने की ठान कर बहू ने तुरूप की चाल खेली। युवा देवर के सिर जोर-जबरदस्ती करने का लांछन मढ़ दिया। इस बात को बर्दाश्त न कर के राजू ने अपनी जीवन-लीला समाप्त कर ली। सोना भी बेटे के असह्य गम से अलविदा कह गयी।

“”दो जिंदगियों की भीख मेरी झोली में डाल दो बहू।” नरेंद्र गिड़गिड़ाया।

चोट खायी नागिन की फुंकार से भयभीत नरेंद्र लॉन में आकर बैठे ही थे तभी फोन बजा।

“”हैलो…?”

“”सिटी नर्सिंग होम से डॉ. कौशल। आप शुभम के पिता मि. नरेंद्र ऽऽ….”

“”जी, कहिए।”

“”शुभम सीरियस है। प्लीज कम सून।”

रिसीवर हाथ से छूटा। आनन-फानन में बहू के संग अस्पताल पहुँचे नरेंद्र को उसने प्रश्र्न्न-सूचक दृष्टि से देखा और सदा के लिये ….।

मृत-देह से लिपट नरेंद्र जोर-जोर से रोये। घर पहुंचते ही शोक की लहर दौड़ पड़ी। तीन सदस्यों का अपने हाथों अंतिम संस्कार करने वाले नरेंद्र की आंखों का नीर सूख चुका था। पूत से निपूत हुए नरेंद्र को तेरहवीं पर अपनी इज्जत के प्रश्र्न्न को दूसरे घर की इज्जत बनाने की खातिर समधी के साथ बहू को विदा करते हुए दूर खड़ा मैं भी देख रहा था।

– अनिल कौशिक

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