इतिहास की सरहदों के मूक सिपाही

महाराष्ट में 350 से ज्यादा किले हैं; जो इतिहास के मूक पहरेदारों के मानिंद खड़े हैं। समुद्र की लहरों से बेपरवाह, तूफानी बारिश से अप्रभावित और आग उगलते सूरज से बेखबर इन किलों की दीवारें इतिहास की महान गाथा के रूप में सिर उठाए खड़ी हैं। ये किले महाराष्ट के महापरााम की कहानी कहते हैं।

पूरे देश में इतने विविध भौगोलिक भूखंडों में बने किले और कहीं नहीं हैं। कोई किसी समुद्री द्वीप में बना है, जैसे- मुर्द जंजीरा या सुवर्ण दुर्ग और समुद्र की पहरेदारी कर रहा है तो कोई सायाद्रि पर्वत श्रृंखला के शिखर में स्थित है, जैसे- तोरणा और राजगढ़, जिसकी दीवारें पर्वत श्रृंखला की चट्टानें हैं।

यूं तो पूरा हिन्दुस्तान ही भव्य किलों और इन किलों की हैरतंगेज कहानियों से भरा पड़ा है, लेकिन महाराष्ट की तो बात ही कुछ और है। यह महावीरों की धरती है। इसलिए यहां के किले भी कुछ खास हैं। आइए सभी की तो नहीं, पर कुछ सबसे मशहूर किलों की एक अंतरंग यात्रा पर चलते हैं। यह किला दौलताबाद है। बिल्कुल कॉपीबुक स्टाइल का किला यानी लगता है कि इसके नक्शे को दर्जनों बार तमाम वास्तुकारों द्वारा परखा गया है और फिर इसे अंतिम रूप दिया गया है। देवगिरि की पहाड़ियों में बसे इस किले को राजा भीलामाराज ने बनवाया था, जो इस भूखंड में यादव राजवंश के महान राजाओं में से रहे हैं। इस किले का निर्माणकाल 11वीं सदी है। यह एक निर्जन पहाड़ी में समुद्र तल से 600 फीट ऊंचाई पर स्थित है। यह उत्तर-पश्र्चिम औरंगाबाद में पड़ता है। शताब्दियों बाद मुहम्मद बिन तुगलक नामक मुस्लिम शासक ने सभी हिन्दू किलों को तहस-नहस कर दिया था। जी, हां! हम उसी मुहम्मद बिन तुगलक की बात कर रहे हैं जिन्होंने दिल्ली की समूची जनता को दरबदर कर दिया था, अपने एक सनक भरे फैसले के चलते। लेकिन दौलताबाद का किला बचा रह गया। यह मध्ययुग के उन कुछ अद्भुत किलों में से एक है, जिसका वास्तुशिल्प और भव्यता रोमांचित करती है।

यह दुनिया के सबसे शानदार संरक्षित किलों में से एक है। दौलताबाद के इस किले के तमाम आंतरिक भागों को अब सैलानियों को देखने के लिए खोल दिया गया है, जो सालों-साल छिपे हुए थे। इस किले को सिर्फ धन के लालच से ही जीता जा सकता था। इसमें दर्जनों ऐसे सर्पाकार गुप्त मार्ग हैं, जो किसी अजगर की केंचुली के मानिंद पूरे किले में पसरे हैं। यहां एक जमाने में दुश्मन के सिपाहियों को यातनाएं दी जाती थीं। सर्पाकार सुरंगों में खौलता तेल बहा दिया था या सुरंगों में दुश्मन के सिपाहियों की मौजूदगी पर सुरंग के एक मुंह में धुआं कर दिया जाता था, जिससे गर्मी और धुएँ की घुटन से दुश्मन के सिपाही मर जाते थे। किले के चारों तरफ मौजूद गहरी खाई में खूंखार आदमखोर मगरमच्छ होते थे। भला इतनी खतरनाक जगह पर उन दिनों कौन दुश्मन हमला करने का दुस्साहस कर सकता था।

किला दौलताबाद के बाद अब आइए चलते हैं गाविलगढ़। गाविल आदिवासियों के किले गाविलगढ़ के बारे में कई तरह के मिथक और कहानियां प्रसिद्घ हैं। अब यह किला मेलघाट टाइगर प्रोजेक्ट के अंतर्गत आता है। किंवदंती के मुताबिक महाबली भीम ने यहीं पर कीचक निशाचर को मारा था और उसके शरीर को नीचे घाटी में फेंक दिया था। उसी पहाड़ी के ऊपर यह किला बना हुआ है। गाविलगढ़ का खूनी इतिहास है। यह किला 12वीं-13वीं सदी में गाविल या गाय चराने वाले ग्वाल शासकों द्वारा बनवाया गया था। बाद में ताकतवर गोंड इसके मालिक बन गए। अंत में यह किला मुगलों के पास चला गया। यूरोप में जब नेपोलियन का सूरज चढ़ रहा था तो उसकी पहली गर्मी यहां महसूस की गई। ड्यूक ऑफ वेलिंगटन यानी कर्नल अर्थर वेलेजली ने इस किले की सुरक्षा मराठा सैन्य टुकड़ी को सौंप दी। यह वही ड्यूक ऑफ वेलिंगटन हैं, जिन्होंने नेपोलियन को वाटरलू में हराया था। आज इस किले में इतिहास के छीना-झपटी वाले दौर के कोई चिह्न नहीं हैं। मगर इसकी दीवारें अभी भी गर्व से सीना तानें खड़ी हैं, मौसम और युद्घों से घायल होने के बावजूद। इस किले में प्रवेश करते ही ठंडी हवा आपका स्वागत करती है। इसमें सुरंगें नहीं हैं। यहां तक कि बगल में महज 3,500 फीट की दूरी पर स्थित एक और महान किले गोंड फोर्ट को आपस में जोड़ने के लिए भी कोई सुरंग नहीं है। गोंड किले को देखने के लिए घने जंगल से गुजर कर आगे जाना पड़ता है।

सिंहगढ़, यह वही सिंहगढ़ है जो कि माना जाता है, रक्त आलूदा सरजमीं पर खड़ा है और खून से लाल हुई मिट्टी, दिल दहला देने वाले युद्घों में बहा खून था। इतिहास में पीछे लौटकर जाएं तो इस किले को बनवाने वाले कोली जनजाति के लोग थे। माना जाता है कि कोली सेनापति नाग नाईक ने सन् 1328 में मुहम्मद बिन तुगलक से 9 महीने तक युद्घ करते हुए, इस किले की रक्षा की थी। औरंगजेब के सेनापति जसवंत सिंह ने किले के सिपाहियों से बदला लेने के लिए अपनी बंदूक उठा ली थी ताकि साइस्ता खां के साथ किए गए शिवाजी के प्रतिघात की भरपाई की जा सके। इसी किले में शिवाजी के सेनापति तान जी ने किले पर फिर से कब्जा करने के लिए गुरिल्ला हमला बोला था और 3,000 फीट की ऊंचाई पर हुए इस अचानक के हमले में प्रतिद्वंदी टिक नहीं पाए थे। हालांकि तान जी इस किले को जीतते हुए मारे गए, तब दुःखी शब्दों में शिवाजी ने कहा था,””गढ़ आला पन सिंह गेला” यानी किला तो जीत लिया, पर शेर मारा गया। इसी वजह से इस किले का नाम सिंहगढ़ पड़ा। आजादी के महान सेनानी लोकमान्य बालगंगाधर तिलक इस किले के ऊपर रहा करते थे और कहते हैं जब गांधीजी यहां से 25 किलोमीटर दूर पुणे में जेल में बंद थे तो वह यहां के देव ताका से पानी मंगाया करते थे।

…और अब चलते हैं राजगढ़ जो कि मराठा देश के दिल में बसा है। राजगढ़ यानी शिवाजी के राज्य की राजधानी। रणनीतिक दृष्टि से यह उस जगह स्थित है, जहां पश्र्चिमी घाट का कोना है। अगर पत्थर बोलते होते तो यहां का हर पत्थर एक से बढ़कर एक वीरता और खौफ की कहानी कहता। शिवाजी के पुरखों ने कभी यहां शासन किया था, तभी उन्होंने इसे अपनी राजधानी बनाया था। राजगढ़ के पठार में ही सन् 1674 में वह छत्रपति बने थे। राजगढ़ के बाद अब आइये देखें मुर्द जंजीरा को। मुर्द जंजीरा महाराष्ट के ऐसे विख्यात किलों में से है, जिसके चारों तरफ समुद्र है। इस किले की प्रारंभिक दीवारें 40 फीट ऊंची हैं। मुर्द जंजीरा का समूचा आकर्षण मायावी है। इसे कभी किसी दुश्मन ने नहीं जीता। इसका निर्माण 350 साल पहले मलिक अंबर ने किया था, जो कि अहमद नगर के राजा का रियासतदार था। इसे कभी भी कोई नहीं जीत सका, न तो पुर्तगाली और न ही ब्रितानी। यहां तक कि मराठा भी नहीं। कहते हैं कि शंभाजी ने इस किले में प्रवेश करने के लिए समुद्र में सुरंग बनाने की योजना बनाई थी। हालांकि अब यह किला समुद्र के थपेड़ों और मौसम की मार से कमजोर होता जा रहा है। लेकिन सीढ़ियों के अलावा इस किले में प्रवेश के लिए कभी किसी और रास्ते का दुश्मन तोड़ नहीं खोज पाया।

महाराष्ट के सभी किलों की यात्रा कर ली जाए और सिंधु दुर्ग न जाया जाए तो सब बेकार है। सिंधु दुर्ग महान मराठा वीर शिवाजी की किलों में गहरी रुचि और उनके निर्माण की लाजवाब तकनीक का गवाह है। कहते हैं शिवाजी ने सिंधु दुर्ग के निर्माण में खुद भी काम किया था और अपने हाथों से इस महान किले की नींव रखी थी। किले के बुर्ज और दीवारों को उन्होंने अपनी देख-रेख में बनवाया था और किले के चारों तरफ ताड़ के पत्तों और सूखे घोंघों की मजबूत दीवार बनवाई थी ताकि कभी कोई उस दीवार में छेद तक न कर सके। महाराष्ट के ये किले अद्भुत हैं। सिंधु दुर्ग कोल्हापुर से 152 किलोमीटर दूर है और बेलगाम से 164 किलोमीटर। इसे उस जमाने में 6,000 से ज्यादा कारीगरों और मजदूरों ने बनाया था। यह किला सन् 1664 में शिवाजी द्वारा व्यक्तिगत रूप से जगह तलाश कर और अपनी देखरेख में बनवाया गया था।

– नयनतारा

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