उच्च शिक्षा की चुनौतियॉं

जिस देश में प्राथमिक शिक्षा ही सामान्य जन के लिए कठिन हो, वहॉं उच्च शिक्षा विशिष्ट मामला है। शिक्षा हमारे सर्वांगीण विकास का हेतु है। उच्च शिक्षा हमें परिपूर्णता की तरफ ले जाने में मदद करती है। हमारी रुचि के क्षेत्र को वह गहराई से समझाती है। इसीलिए उच्च शिक्षा के लिए शिक्षा-प्रविधि का नवाचारी (इन्नोवेटिव) बने रहना अति आवश्यक है। उच्च शिक्षा में नव दृष्टि बोध उसे प्रासंगिक व औचित्यपूर्ण बनाएगा। पुरानी राहों से आज की शिक्षा का सफर नहीं काटा जा सकता। अब अन्तर्विषयक अध्ययन का समय है। चूंकि दुनिया व विषयों की अंतरंगता बढ़ रही है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि इससे अपने समय को समझने में अधिक मदद मिलती है। अक्सर यह स्पष्ट नहीं होता कि जिस विषय में हमें प्रोस्ट ग्रेजुएशन करना है, उसके भविष्यत् अर्थ क्या हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद लोग कई बार समाज के पारम्परिक तंतुओं से या तो संबंध नहीं रख पाते या वे उनके लिए महत्वहीन हो जाते हैं।

उच्च शिक्षा में ऐसी गुंजाइश होनी चाहिए कि व्यक्ति का समाजिक व सांस्कृतिक जुड़ाव बेहद सिाय व ऊष्मा संपन्न हो। वह समाज का टापू न लगे। यदि टापू भी हो तो सिाय सर्जनशीलता का मन लिए हो जिसमें कॉमन मैन भी बसा हो! मानविकी के विषयों में संवेदन, तर्कणा शक्ति, प्रेक्षण, विवेचन की क्षमता बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए। इनके बगैर ये महज सैद्घांतिक खामखयाली या वायवीय बन जाएँगे। यदि इतिहास पढ़ते हुए हम अपने पुरखों से लेकर आज के समय का विश्र्लेषण नहीं कर सकते, तो इतिहास महज घटनाओं का संपुंजन है। उसके निहितार्थ के विवेचन का माद्दा विकसित करना धर्म होना चाहिए। इसी तरह यदि साहित्य से रससृष्टि, संवेदन तथा दृष्टिबोध संभव न हुआ तो उसका क्या अर्थ है। समाज को भी चाहिए कि ऐसे विषयों के प्रति उदासीनता न बरते तथा कॅरियर के साथ-साथ इन्हें भी समान महत्व दे, ताकि समाज व व्यक्ति के संबंध और सुदृढ़ हों और व्यक्ति का मानसिक विकास संभव हो। इस अर्थ में संवेदन भी बढ़े।

यदि थोड़ी बारीकी से देखें तो पाएँगे कि विश्र्वविद्यालयों में अध्ययन करने के उपरांत भी भारी मात्रा में विद्यार्थी बेरोजगार बने रहते हैं। कुछ को छोड़ दें तो ज्यादातर विषयों का जीवन की वास्तविकताओं से लगाव कम ही होता है। इस तरह यह शिक्षा ज्यादातर एक टेजडी ही रचती है। इसमें दो स्तरों पर बदलाव की जरूरत है – एक – एकेडमिक्स में नवाचार (इन्नोवेशन), दूसरा-विषयों को जीवन से जोड़कर आजीविका पक्ष की मजबूती। शिक्षा के पाठ्याम को समकाल का सहचर होना चाहिए तथा उसमें हमारे आंतरिक सौंदर्य को प्रतिबिम्बित करने की क्षमता भी हो। पाठ्यामों में समयानुकूल बदलाव आवश्यक है। इसके लिए प्रतिभाशाली विद्वानों, चिंतकों तथा विषय पर गहरी पकड़ रखने वालों को जोड़े रखना चाहिए। तेजस्वी व सहृदय ही बड़ा परिवर्तन का साथी व साक्षी बन सकता है। विभिन्न चिंतन सरणियों तथा धाराओं के प्रति समभाव हो। यह प्रयत्न होना चाहिए कि हर विषय का आजीविका पक्ष भी तलाशा जाए। ऐसा भी संभव है कि विषय का अध्ययन करते हुए विद्यार्थी स्वयं समर्थ हो जाएँ। विषय के अनुषंगी विषय भी सहकारी रूप में पढ़ाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए कुछ लोगों का मत है कि साहित्य के साथ अनुवाद व पत्रकारिता भी जोड़ दिए जाएं तथा तुलनात्मक अध्ययन संभव हो तो उसे आजीविका का संबल बनाया जा सकता है। इस तरह समाजशास्त्र की एप्लाइड स्टडी फलदायी सिद्घ हो सकती है। इतिहास का समकालीन अध्ययन बेहद रोचक तथा रोजगारपरक हो सकता है। संस्कृति को सूचना प्रौद्योगिकी तथा मेडिकल से जोड़कर स्थानीय सर्वे के आधार पर नयी संभावनाएँ तलाशी जा सकती हैं। उपर्युक्त बातों को कहीं सैद्घांतिक व एकेडमिक अध्यन की शिथिलता से न जोड़ा जाए। प्रयोजन सिर्फ यह है कि नए क्षितिज खोज कर संभावनाएँ विकसित की जाएँ।

विश्र्वविद्यालयों का प्रबंधन अकादमिक तथा प्रशासनिक पक्षों का मिला-जुला रूप है। सरकारी तंत्र के अलावा यदि विश्र्वविद्यालय स्वयं में भी आत्मनिर्भरता प्राप्त कर लें, तो यह बड़ी उपलब्धि होगी। लेकिन ध्यान रखिए, उच्च शिक्षा को एलीट क्लास का विषय नहीं बनाया जा सकता। यह सामान्यजन के विरुद्घ है। इसका उलट यह भी कि सरकार पर अतिनिर्भरता औचित्यपूर्ण नहीं। इसलिए कोई बीच का रास्ता निकालना चाहिए। कुलपति का अकादमिक क्षमता से संपन्न होना शिक्षा के हित में है। अंततः विश्र्वविद्यालयों का कार्य अकादमिक जगत में हस्तक्षेप करना है। विश्र्वविद्यालयों के बोझिल, दमघोंटू वातावरण का निस्तारण कर उसे सुरुचिपूर्ण, आह्लादक तथा विचारप्रधान बनाना चाहिए। शिक्षकों व विद्यार्थियों की स्वायत्तता को बहुत सम्मान देना चाहिए, क्योंकि इसके बाद ही बड़ा कार्य संभव है। वे इस बात के लिए प्रेरित किए जा सकते हैं कि मर्यादित रहना भी एक कला है। परिसर में बढ़ती हिंसा व दुर्व्यवहार के पीछे आत्मीय संबंधों के अभाव का मनोविज्ञान है। यदि यहां पर एक पारिवारिक वातावरण विकसित किया जा सके तो अनेक अप्रिय प्रसंग घटित ही न हों। प्रतिभाशाली व तेजस्वी अध्यापक विद्यार्थियों को दृष्टिसंपन्न बना सकते हैं। इसलिए अध्यापकों की ब्रिलिएंसी व गुणवत्ता शिक्षा के हित में है। विजनरी अध्यापकों को अवश्य स्थान देना चाहिए। इस पर ध्यान न देना, शिक्षा को स्तरहीन बना देना है।

विश्र्वविद्यालय परिसर में शैक्षिक संस्कृति का विकास करना चाहिए, जो शिक्षकों तथा विद्यार्थियों को सर्वांगीण फलश्रुति दे। बेहतर हो कि परंपरा और नयी दृष्टि का सम्मिलन रखा जाए। अपने समय को अलक्षित नहीं किया जा सकता। आधुनिकता की दौड़ में शाश्र्वत विचारों व साहित्य से वंचित होना उचित नहीं, उसी तरह धुर पारंपरिकता से समकाल को पहचाना नहीं जा सकता। परंपरा का औचित्यपूर्ण अवगाहन तथा समकाल की चेतना का वाजिब स्वीकार – दोनों का संतुलन उच्च शिक्षा व विश्र्वविद्यालय को नया संबल दे सकते हैं। विश्वविद्यालयों में विचारों की गहमा-गहमी व पारम्परिक संवाद बना रहना चाहिए। ज्ञान के नवीनतम क्षेत्रों के प्रति उत्सुकता ही किसी विश्र्वविद्यालय को प्रासंगिक बनाए रख सकती है। परन्तु ध्यान रखिए, विचारों की नवीनता, पारस्परिकता, कर्मठता, प्रयोगशीलता, दृष्टिगत खुलापन और आत्मीयता से उच्च शिक्षा ही नहीं, जीवन की चुनौतियों का भी सामना किया जा सकता है। हम विश्र्व में हैं और विश्र्व हमारे अंतस् में है। यह विद्या की पारस्परिकता है।

– डॉ. परिचय दास

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