एक से ही हों एकाकार

जीवन-ऊर्जा के चा के अव्यवस्थित हो जाने से जन्मे विघ्नों को समाप्त करने का समाधान महर्षि अपने सूत्र में बताते हैं-

तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः।। 1/32।।

अर्थात् – उनको (साधना में आने वाले सभी विघ्नों को) दूर करने के लिए एक तत्त्व का अभ्यास करना चाहिए।

महर्षि पतंजलि का यह सूत्र अपने अर्थों में अतिव्यापक है। वह इस सूत्र में एक तत्त्व के अभ्यास को सभी विघ्नों के निराकरण के रूप में तो प्रस्तुत करते हैं, परन्तु वह एक तत्त्व क्या हो? इसका चुनाव योग-साधक पर ही छोड़ देते हैं। अब यह योग-साधक की साधना के स्वरूप व स्तर पर निर्भर करता है कि वह एक तत्त्व के रूप में किसे चुनता है। परन्तु इतना जरूर है कि वह जिसे भी चुने, उसी में उसके मन-प्राण घुलने चाहिए। वहीं पर उसके विचार व भाव केन्द्रित होने चाहिए। यानी इस एक तत्त्व को उसके साधना-जीवन में चरम आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित होना चाहिए। इसकी स्मृति में उसकी जीवन धारा बहनी चाहिए।

भक्त के जीवन में यह एक तत्त्व उस भगवान का होता है। उसका हृदय सदा अपने आराध्य की स्मृति से स्पन्दित होता है। अपने आराध्य के प्रति उसकी भावनाएँ इतनी सघन होती हैं कि उसे यह अभ्यास करना नहीं पड़ता, बल्कि अपने आप बरबस होता चलता है। ध्रुव हो या प्रह्लाद, मीरा हो या रैदास इनके मन-प्राण, विचार-भावनाएँ सदा अपने भगवान् में रमे रहते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस को मॉं कहते ही भाव समाधि घेर लेती थी। सच तो यह है कि भक्तों के लिए बड़ा सहज होता है, अपने भगवान में रमना। वह अपने भगवान में इतनी प्रगाढ़ता से रमता है कि सभी अवरोध अपने आप ही विलीन होते जाते हैं।

बात मीरा की करें तो उनके कृष्ण-प्रेम की डगर सहज नहीं थी। इस डगर पर चलने वाली मीरा को राणा जी कभी सांप का पिटारा भेजते थे तो कभी विष का प्याला, लेकिन इन विघ्नों से मीरा को कभी घबराहट नहीं होती थी। वह तो सदा यही कहती रहतीं, “मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ सच तो यह है कि भक्त के जीवन का दर्शन ही “दूसरो न कोई’ है। किसी और का चिन्तन उसे सुहाता नहीं है। तभी तो गोपियां ज्ञान सिखाने आए उद्घव को समझाने लगती हैं – “ऊधौ मन नाहीं दस-बीस, एक हुतो सो गयो स्याम संग को आराधै ईस।’

भक्त के लिए बड़ा सहज होता है- तत्त्व का अभ्यास। क्योंकि वही जानता है “एक’ में छिपा सत्य। बात है तो खरी, पर कहे बिना रहा भी नहीं जाता। प्रेम की रीति को भक्त ही जानता है। जिसे दुनिया प्रेम या प्यार का नाम देती है, वह तो वासनाओं की गंदेली कीचड़ में लिपटने-लिपटाने के सिवाय और क्या है। देखा यही जाता है कि सारी उम्र प्यार-प्रेम का राग अलापने वाले अपने हठ, जिद एवं अहं को थामे रहते हैं। अब हठ, जिद एवं अहं के विषधरों को पालने वाले भला क्या जानेंगे कि प्रेम तो “सीस उतारै भुंई धरै’ का सौदा है। कबीर ने जाना था इस सच को तभी तो उन्होंने कहा कि “प्रेम गली अति सांकरी, जामे दुइ न समाहिं।’ यानी प्रेम की गली अति संकरी है, इसमें दो आ ही नहीं सकते।

बड़ा गहरा अर्थ है इस बात में। जो प्रेम में जीता है, वही इस रहस्य को जानता है। जब प्रेम शुरू होता है, तब दो होते हैं- एक भक्त, दूसरा भगवान। लेकिन भक्त की दीवानगी अपने भगवान के लिए इतनी गहरी होती है कि वह अपने आपको मिटाने के लिए ठान लेता है। उसकी कोशिश होती है कि मेरा अस्तित्व भगवान में विलीन हो जाए। भक्त रहे ही नहीं, भगवान ही बचे। और होता भी यही है कि भगवान ही बचता है।

भगवान से प्रेम संसार में बड़ी विरल घटना के रूप में सामने आता है। बड़ी बड़भागी होती हैं वे आत्माएँ, जो मीरा बनकर प्रकट होती हैं। पर एक प्रेम – एक भक्ति की शुरूआत थोड़ी आसान है। और वह है- गुरुभक्ति, अपने गुरु से प्रेम। पतंजलि प्रणीत एक तत्त्व के अभ्यास का यह बड़ा सरल एवं अनुभूत उपाय है। गुरुदेव श्री राम शर्मा आचार्य ने स्वयं अपने जीवन में यही सच साधा था। आज उनके शिष्यों के सामने भी यही सुपथ है। अपने गुरु का ध्यान, उन्हीं का चिन्तन, उनकी ही कथा, वार्ता और उन्हीं का ही काम। जो ऐसा करते हैं, उनके जीवन में एक तत्व का अभ्यास स्वयं ही होने लगता है और इसके परिणाम स्वरूप योग-साधना के विघ्नों का निराकरण भी होता जाता है। यह कथन न तो कोरी कल्पना है, और न ही किसी तार्किकता का निष्कर्ष। यह तो अनुभूति में सनी-पगी बात है, पढ़ने वाले चाहे तो वे भी कर लें। जिस गति से वे इस गुरुभक्ति की डगर पर चलेंगे, उसी तीव्रता से उनकी साधना में आने वाले विघ्नों का शमन होगा। पर यह सच निर्मल चित्त वालों को ही समझ में आएगा।

– डॉ. प्रणव पंड्या

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