कहानी हैदराबाद की

अब्दुल्लाह के अट्ठाहरवें जन्मदिन पर हयात बक्शी ने अपने-आप को राजसी कामों से अलग कर लिया। लेकिन आराम उसकी किस्मत में ही नहीं था। उसे नहीं पता था कि आने वाले दिनों में शासन को बचाने के लिए उसे फिर से इस क्षेत्र में वापस लौटना पड़ेगा। लेकिन फिलहाल वह अपना अधिकतर समय नमा़ज और दीन-दुखियों के प्रति कल्याणकारी कार्यामों में बिताने लगी।

अपनी स्थापना के तुरंत बाद से ही शहर ने व्यवसायियों, साहसिकों और विभिन्न तरह के आगंतुकों को आकर्षित करना शुरु कर दिया था। इसकी प्रसिद्घि दूर-दराज तक फैलने लगी थी और कई लोग तो यहां आए बिना ही इसके बारे में लिख भी चुके थे।

भागनगर के बारे में बात करने वाला सबसे पहला व्यक्ति था एक अधेड़ पर्शियन। उसका नाम मोहम्मद कासिम था, लेकिन वह फरिश्ता के नाम से जाना जाता था, पर्शियन में जिसका अर्थ होता है देवदूत। उसके पिता, गुलाम अली हिन्दु शाह एक विद्वान थे, जो अपने वतन को छोड़कर मुर्तुजा निजाम शाह (शासन 1565-88) के शासन के दौरान अहमदनगर पहुंच गए थे। हिन्दु शाह निजाम शाह के बेटे के शिक्षक बन गये और फरिश्ता निजाम शाह के बेटे का सहपाठी था। पिता की मृत्यु के समय फरिश्ता काफी छोटा था, लेकिन शाही दरबार में अपने पिता के पद के कारण उसे राजा का संरक्षण मिला हुआ था। सन् 1587 में राजकुमार मीरन ने अपने पिता को गद्दी से हटा दिया, लेकिन एक साल बाद वो स्वयं भी पदच्युत हो गया, और मार दिया गया। फरिश्ता तब सत्रह साल का था। सन् 1589 में वह अहमदनगर छोड़कर बीजापुर चला गया और आदिल शाही साम्राज्य (शासन एडी 1580-1627) के शासक इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय के यहां मिलीटी कैप्टन बन गया।

फरिश्ता की दिली-ख्वाहिश थी कि वह भारत में इस्लाम की जीत का इतिहास लिखे। उसके संरक्षक इब्राहिम आदिल शाह ने उसे इस काम के लिए धन व संसाधन दोनों ही उपलब्ध करवा कर उसे पूरा-पूरा सहयोग दिया। उसका दावा था कि 34 किताबों और अन्य स्रोतों से विचार-विमर्श के बाद ही उसने ये काम पूरा किया है।

इस तरह उसने भागनगर आए बिना ही बीजापुर में बैठे-बैठे प्रसिद्घ इतिहास लिख डाला। जब उसने इस शहर के बारे में यह लिखा था, उस समय शहर को बसे बीस साल भी नहीं हुए थे-

चूंकि गोलकोन्डा की आबोहवा काफी अशुद्घ और अस्वच्छ हो गई थी, मोहम्मद कुली ने आठ मील की दूरी पर एक भव्य शहर का निर्माण किया, जिसे उसने अपनी सबसे पसंदीदा प्रेमिका के नाम पर भागनगर का नाम दिया। यद्यपि इस शहर को हैदराबाद के नाम से जाना जाने लगा, फिर भी इसके एक हिस्से ने अपने पुराने नाम भागनगर को बरकरार रखा है। इसका घेरा दस किलोमीटर है और इसकी मुख्य सड़कें भारत की अन्य सड़कों से विपरीत काफी चौड़ी और साफ हैं, यहां की हवा स्वच्छ है। दोनों तरफ वृक्षों की कतारे हैं, जिनसे छाया तो मिलती ही है, साथ-हीˆसाथ आस-पास का ऩजारा भी खूबसूरत लगता है, दुकानें काफी पक्की बनी हुई हैं। राजा के महल को सबसे खूबसूरत और व्यापक बताते हुए उल्लेखित किया गया है।

उसके बाद आया एक अंग्रे़ज युवक विलियम मेथवोड। 1590 में इंग्लैण्ड में जन्मे विलियम ने सन् 1616 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी में कारिन्दे के रूप में काम करना शुरु किया और उसकी नियुक्ति पूर्वी-तट स्थित मछलीपट्टनम में हुई। सूूरत में दो साल छुट्टी बिताने के बाद मेथवोड मछलीपट्टनम में 1618-1622 तक रहा। जब वह हैदराबाद आया तो वह लगभग 24-25 वर्ष का था और हैदराबाद तकरीबन तीस वर्ष का।

उसके बाद यूरोपियन पर्यटकों की कतार लग गई। उनमें से मुख्य थे ोंचमेन- टेवीनियर, थेवेनोट, अब्बी कारे और इटली का मानुक्की। इनमें से पहले दो ने शहर के बारे में काफी विस्तार से लिखा।

झीन बापिस्ट टेवीनियर का जन्म 1605 में पेरिस में हुआ था। बचपन से ही विदेशी देशों को देखने की रुमानी इच्छा ने उसे जकड़ा हुआ था। पन्द्रह साल की उम्र में वह यूरोपीय देशों को देखने के लिए निकल पड़ा था और बाइस वर्ष की उम्र तक वह यूरोप के कई देशों में घूम चुका था। उसके बाद उसने पूर्व की लगातार छः बार यात्रा की। सन् 1640 से 1660के बीच वह अपनी दूसरी, चौथी और छठी यात्रा के दौरान तीन बार भारत आया। उसका कहना है कि वह कई बार विभिन्न मार्गों से गोलकोन्डा पहुंचा। उसमें से दो बार वह सन् 1645 से 1653 में आया। वह हीरों का व्यापार करता था। वह एक सभ्य सौदागर था ना कि एक चतुर वणिक। वह इतना स्वाभिमानी था कि एक बार गोलकोन्डा में एक हिजड़े के यह कहने पर कि वह अपने मोती-जवाहरात की कीमत ज्यादा बता रहा है, उसे बुरा लगा और उसने यह शहर ही छोड़ दिया और यहां से सूरत चला गया।

ईरान के शासकों और भारत के कुलीन वर्ग में उसकी अच्छी पैठ थी। आखिरी बार 1653 में अप्रैल के पहले दिन जब वह गोलकोन्डा पहुंचा तो उसने महसूस किया कि भारत में मोती का व्यापार किया जा सकता है।

औरंगजेब ने शाहिस्ता खान से टैवीनीयर के मोतियों और जवाहरातों के बारे में सुना। औरंगजेब चाहता था कि सबसे पहले वह ही उन्हें देखे। उसका सामान देखने के बाद औरंगजेब ने गर्व के साथ उसे प्रसिद्घ कोहेनूर हीरा और अन्य गहने दिखाए। उसने बाकी दो ोंच पर्यटकों बरनियर और थेवेनाट से भी मुलाकात की, दोनों ही शहर के बड़े प्रशंसक थे।

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