क्या नेपाल से बिगड़े रिश्ते फिर सुधरेंगे

नेपाल परिवर्तन के बहुत ही ना़जुक और संवेदनशील दौर से गुजर रहा है। राजशाही पर विराम लग गया है और हिन्दू राष्ट की बजाय वह एक लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है, जहां फिलहाल वामपंथियों के हाथ में सत्ता है। हाल फिलहाल में चीन से नेपाल के रिश्ते और कोसी में अधिक पानी छोड़ने जैसे मुद्दों को लेकर नेपाल और नई दिल्ली के बीच तनाव भी रहा है। इस पृष्ठभूमि के तहत नेपाल का प्रधानमंत्री बनने के बाद पुष्प कमल दहल प्रचंड की पहली भारत यात्रा महत्वपूर्ण हो जाती है, विशेषकर इस लिहाज से भी क्योंकि पिछले ही माह पद ग्रहण करने के बाद परंपरा को तोड़ते हुए प्रचंड ने चीन का दौरा भी किया था।

काठमांडू में लाल झंडे के फहराए जाने के बाद नई दिल्ली में यह आशंका स्वभाविक थी कि अब नेपाल का झुकाव चीन की ओर अधिक रहेगा। लेकिन प्रचंड का कहना है कि भारत के साथ नेपाल के विशिष्ट ऐतिहासिक भौगोलिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अंतर्निभरता के पारंपरिक रिश्ते रहे हैं, जिनकी तुलना चीन से नहीं की जा सकती। यह अलग बात है कि नेपाल चीन से भी अपने रिश्ते बनाना चाहता है। यह स्पष्टीकरण प्रचंड ने वाणिज्य संगठनों सीआईआई, फिक्की और एसोचैम द्वारा नई दिल्ली में 15 सितंबर को आयोजित बैठक को संबोधित करते हुए दिया।

इससे स्पष्ट है कि प्रचंड का यह दौरा भारतीय उद्योगपतियों को आकर्षित करने के लिए था कि वे नेपाल में निवेश करें। प्रचंड के अनुसार नेपाल निवेश के लिए आदर्श स्थान है क्योंकि उद्योगपति अपने उत्पादों को दुनिया के दो सबसे तेजी से प्रगति करने वाले देशों भारत और चीन तक आसानी से पहुंचा सकते हैं। इसी के साथ प्रचंड ने नेपाल में भारतीय निवेशकों और व्यवसायियों की सुरक्षा संबंधी खतरे को लेकर चिंताओं को दूर करने का भी प्रयास किया। गौरतलब है कि फिलहाल नेपाल में श्रम बल आंदोलन पर है, कर संरचना असंतुलित है, उद्योग असुरक्षित हैं और तीसरे देश की चीजों को बजरिए नेपाल भारत में डम्प किया जा रहा है।

इस सिलसिले में प्रचंड का कहना है, ‘जीवंत निजी क्षेत्र की गैर मौजूदगी में अकेली नेपाल सरकार विकास प्रयासों को तेज नहीं कर सकती। नेपाल सरकार निवेशकों को हर संभव सुरक्षा प्रदान करने के लिए समर्पित है और नेपाल निवेशकों को इस बात की इजाजत भी देगा कि वह पूंजी और लाभ वापस अपने देश ले जा सकें। हम औद्योगिक सुरक्षा को सुनिश्र्चित करने की कोशिश करेंगे और श्रम एवं उद्योग के बीच संबंध बेहतर बनाने की भी।’

नेपाल अपने इस वायदे पर कितना कायम रहता है, यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन प्रचंड के प्रयासों से यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि अब नेपाल को भी एहसास हो गया है कि व्यापार ही विकास का स्रोत है। साथ ही किसी भी देश में शांति व स्थिरता तभी सुनिश्र्चित की जा सकती है जब वहां तेजी से आर्थिक विकास हो रहा हो।

यह स्वागत योग्य कदम है कि नए नेपाल की आधारशिला रखने के लिए वहां के वामपंथी शासक भी आर्थिक विकास में निजी क्षेत्र के महत्व को समझ रहे हैं। कहने का अर्थ यह है कि यह एक अवसर है जिसका भारतीय उद्योगपतियों को लाभ उठाना चाहिए, लेकिन नेपाल में बड़े पैमाने पर निवेश उसी सूरत में हो सकता है जब प्रचंड सरकार माओवादियों और उनकी आर्थिक नीतियों को अंकुश में रखे।

गौरतलब है कि नई दिल्ली को इस बात की चिंता अधिक है कि भारत में गड़बड़ी मचाने वाले माओवादियों और कुछ आतंकी संगठनों को नेपाल में शरण मिल रही है, लेकिन कुछ डर काठमांडू को भी भारत से है। इसलिए दोनों देशों के बीच पहले की तरह सहयोग आवश्यक हो जाता है। इसी सहयोग को बढ़ाने और आपसी तालमेल को बेहतर करने के उद्देश्य से ही प्रचंड भारत के दौरे पर आए। उनका तर्क है कि इतिहास ने नेपाल में एक नया माहौल उत्पन्न किया है जिससे नए दृष्टिकोण से जल संसाधन व अन्य मुद्दों को देखा जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि अब नेपाल भारत से पुरानी संधियों की भी पुनर्समीक्षा का इच्छुक है। इसी को मद्देनजर रखते हुए प्रचंड ने नई दिल्ली में राष्टपति प्रतिभा पाटिल, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी, विपक्ष के नेता एल.के. आडवाणी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की।

जहां तक नेपाल में हाइडल प्रोजेक्ट लगाने का सवाल है तो नेपाल छोटे प्रोजेक्टों की बजाय बड़े प्रोजेक्ट लगाने के लिये अधिक इच्छुक है। गौरतलब है कि भारतीय उद्योगपति नेपाल में हाइडल क्षेत्र को विकास का बड़ा क्षेत्र मानते हैं। इसलिए उन्होंने नेपाल की हाइडल नीति में सुधारों के लिए एक डाफ्ट रिपोर्ट भी तैयार करके प्रचंड को सौंपी है जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया है। इसके अलावा मेडिसिन व अन्य क्षेत्रों में भी नेपाली प्रिायाओं में सरलीकरण की आवश्यकता भारतीय उद्योगपति महसूस करते हैं। नेपाल ने इस संदर्भ में भी आश्र्वासन तो दिया है, लेकिन मुर्गियों को तभी गिना जाए जब वह अंडे से बाहर आ जाएं।

राजशाही के खत्म होने के बाद नई दिल्ली के रिश्ते नेपाल से वैसे नहीं रहे हैं, जैसे कभी रहा करते थे। वामपंथियों की सत्ता संभालने के बाद रिश्तों में कड़वाहट आयी है। खासकर इसलिए भी क्योंकि काठमांडू बार-बार पुरानी संधियों की पुनर्समीक्षा पर जोर देता आ रहा है। नई दिल्ली स्थित हैदराबाद हाउस में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ वार्ता करते समय भी प्रचंड ने पिछली संधियों की समीक्षा की मांग की। सूत्रों के मुताबिक, दोनों देश आपसी रिश्तों को नई दिशा देने के लिए सहमत भी हो गए हैं। दरअसल, यह जरूरी भी है। वैश्र्वीकरण की लहर ने पूरी दुनिया को एक बड़े बाजार में परिवर्तित कर दिया है। ऐसी स्थिति में हर देश दूसरे पर पहले से ज्यादा निर्भर हो गया है। अपने को बचाए रखने के लिए जहां उसके लिए प्रतिस्पर्धी होना जरूरी है वहीं दूसरे देशों से सहयोग करना भी, विशेषकर अगर वह पड़ोसी हो।

इंडियन काउंसिल ऑफ रिसर्च इन इंटरनेशनल इकनॉमिक रिलेशन्स की एक रिपोर्ट के अनुसार नेपाल में जो कुल विदेशी सीधा निवेश है, उसका 40 प्रतिशत हिस्सा भारत का है। इसलिए कहा जा सकता है कि नेपाल अपने आर्थिक विकास के लिए भारत पर बहुत अधिक निर्भर करता है। ऐसे में नेपाल के पास कोई और चारा नहीं है कि वह भारत से संबंध सुधारे, अपनी अंदरूनी राजनीतिक आस्थरता पर विराम लगाए और भारतीय निवेशकों के लिए उचित व सुरक्षित माहौल अपने यहां सुनिश्चित करे। इसलिए प्रचंड की यात्रा को इस नजरिए से देखना चाहिए कि वे भारतीय निवेशकों की आशंकाओं को दूर करने के लिए ही आए थे।

 

– डॉ. एम.सी. छाबड़ा

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