गतांक से आगे…

“”प्रेरणा! प्रेरणा मुझे अपने खोए हुए बच्चे की पीड़ा से मिली। मैंने इलाज के अभाव में अपना बच्चा खो दिया और तभी से इस अनुष्ठान में लगी हूँ। एक मिशन है मेरा, कोई बच्चा इलाज के अभाव में असमय ही काल का ग्रास न बने।” फिर एक प्रश्र्न्न उछला, “”आपका लक्ष्य क्या है?”

“”मुस्कुराहट बिखेरते बच्चे।”

अगले दिन पद्मा भारती की माला पहनते हुए बड़ी-बड़ी तस्वीरें अखबारों में छपीं। वहां शिक्षकों ने अपना एक दिन का वेतन, प्राचार्य ने एक माह का वेतन और मैनेजमेंट ने बच्चों के लिये एक-एक टॉवल, साबुन, ग्लास और पेन्सिल के पैकेट उनके अनाथ आश्रम में पहुंचा दिये। मन खुश था, फूल नहीं तो फूल की पंखुड़ी ही सही। कुछ अच्छा करने की तसल्ली मन पर हावी थी। सासू मां जरूर नाराज हो गयीं कि ब्राह्मण-भोजन न करवाकर इस बहाने बहू खाना बनाने की मशक्कत से बच गयी।

इसी बीच एक दिन इनके ऑफिस के चपरासी और उसकी पत्नी का बस एक्सीडेंट में देहांत हो गया। चार साल का छोटा-सा उनका बच्चा अनाथ हो गया। ऑफिस वाले उस बच्चे को लेकर चिंतित थे। चपरासी की मृत्यु पर मिलने वाले पैसे और पेंशन को तो उस बच्चे के नाम बैंक में रखा जा सकता था, पर उसको पालेगा कौन? इन्होंने यह चिंता खाना खाते हुए मुझे बतायी। इनकी बात सुनते ही पद्माजी का चेहरा मेरी आंखों में कौंध गया। मैंने बड़ी शान से कहा, “”कल व्यवस्था हो जायेगी। हमारी संस्था का आश्रम है न “पद्मा-होम’।” मेरी बात पर इनकी आंखों में भी चमक तैर गयी। मैं सुबह-सुबह ही पद्माजी के बंगले पर पहुंच गयी। वे तसला रखकर पैर भिगोये बैठी थीं। एक बारह साल का बच्चा उनके पैर रगड़-पोंछ कर ाीम लगा रहा था। मुझे देख वे उमगायीं, अलसायीं और फिर चौकन्नी हो गयीं एकदम सरपट। उन्होंने लड़के को अंदर भेजा। तसला उठाकर लड़का चला गया, वे कपड़े संभालती हुई उठीं, और आश्र्चर्य से कहने लगीं, “”आप?”

“”हां, पद्मा जी काम ही कुछ ऐसा था।”

“”पर आने से पहले कॉल तो करना चाहिए।”

“”दरअसल, मैं रातभर सोई नहीं। वह बच्चा मेरी नजरों में घूमता रहा। दिलो-दिमाग पर वह बच्चा और आपका नाम उलटते-पलटते रहे।” वे उठीं, पास पड़ा शीशा उठा कर उसमें अपना बगैर मेकअप का चेहरा देखती रहीं। शायद उन्हें लगा कि उनका छद्म रूप अचानक मेरे सामने खुल गया। वे फुर्ती से अंदर गयीं, थोड़ा-सा मेकअप करके लौटीं। अब उनके चेहरे पर आत्मविश्र्वास फिर लौट आया-सा लगा। लगा, वे जीवन को चांपकर खाने के चाव से उसी तरह भरी हुई हैं, जैसे अपने रूप को मेकअप से ढांक कर रखती हैं। मेरी बात पर वे पहले चुप रहीं। उनके बंद होंठों में एक तरेर उभर आयी। उनका चेहरा वैसा ही आत्मतृप्त और आंखों की भाषा भर्त्सना की नोंक को मेरी ओर घुमाती हुई।

“”पद्मा जी बच्चे का कोई रिश्तेदार नहीं है और जो हैं वे बच्चा पालना नहीं चाहते।” सोफे पर पैर लटाकाए हुए टेबल के सहारे अपनी हथेली पर चेहरा टेककर वे बैठीं और मेरी बात सुनती रहीं।

“”उस बच्चे को हम “पद्मा होम’ में रख लेते हैं।”

“”रख लेते हैं मतलब?” आवाज में रूखापन था।

“”हमारे यहां काफी स्थान खाली है।”

“”तो आप ही सब निर्णय कर लेंगी क्या?”

उनकी बेरहमी में एक असाधारण अपराजेय-सी अतिशयता लगी।

“”नहीं मैं तो आपके पास…”

“”देखिए, उसका खर्च उसके पिता की पेंशन से निकल सकता है, आप पहले उसके खर्च के लिए वे पैसे…?” उनका यह कथन मुझे गहरे तक आहत कर गया। उनके इस परााम से उनके ही भाषणों के हजारों विखंडित शब्द मेरे चारों ओर गूंजने लगे।

“”पर, वह पैसा तो उसके बालिग होने पर ही उसे मिले, सब यही चाहते हैं।” मैं अपने शब्दों को चबा-चबाकर बोल पायी।

“”तो पालेगा कौन?” उनके शब्द उग्र, उत्तेजित होने लगे और चेहरा तपता-सा हिंसक… जाने क्यों मुझे आदर्श की यूं खंडित प्रतिमा भयावह लगने लगी। उन्होंने बात आगे बढ़ायी, “”देखिए वहां जितने बच्चे हैं, उन्हें उद्योगपतियों ने गोद ले रखा है। उन्हें भी तो अपनी ब्लैक मनी को व्हाइट में बदलना होता है न। मैं पद्मा-होम में बच्चे को तभी प्रवेश देती हूं, जब खर्च करने वाला सामने हो।”

“”पर, वो रुपया जो कलेक्शन से…?” विखंडन की विवशता से लिसलिसाते शब्दों के साथ आवेश का रुंधा हुआ प्रवाह भी मेरे गले से निकल पड़ा।

“”ये स्कूल की बहनजियों की तरह हिसाब-किताब मत करिए” वे उठीं और अंदर चली गयीं।

मैं उठी और घर की ओर चलने लगी। भंवरीलाल ने पूछा, “”क्या हुआ मैडम, बच्चे का कुछ ठिकाना…।”

“”नहीं, चलो घर।”

घर में ये आराम से सोफे पर पसरे थे। अब क्या कहूंगी इनसे। यह सोचकर मन में घबराहट संचित होने लगी। ये कुछ बोले नहीं तो मैं सीधे अंदर चली गयी। देखा टिं्वकल किचन में दूध गरम कर रही है। कपड़े बदल कर पलटी तो बबली के साथ उस बच्चे को खेलते देखा। टिं्वकल ने उस बच्चे को दूध देते हुए कहा, “” लो, ये दूध का गिलास खाली कर दो बुलबुल।” मुझसे वह कहने लगी, “”इसका नाम बबलू है मम्मा। पर मैंने बुलबुल कर दिया।” जाने कब से ये मेरे पीछे खड़े थे, कहने लगे, “”तुम कुछ करना चाहती थीं न? मैं पद्मा- होम तो नहीं बनवा सकता, पर हमारी तो केवल दो ही बेटियां हैं, एक बच्चा हमारे ही घर में पल सकता है.. क्यों?”

क्या कहती मैं…?

(समाप्त)

– स्वाति तिवारी

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