गांधीजी के एकादश व्रत

गांधी जी सच्चे मानवतावादी थे। उन्होंने दीन-हीन भारत को ऊँचा उठाने के लिए अद्वितीय कार्य किये। वे ऐसे योद्घा थे, जिनके पास न तोप थी न बम थे, फिर भी वे सदा विजयी होते रहे। वे पहले स्वयं आचरण करते थे फिर दूसरों को उपदेश देते थे। उनके एकादश व्रत उनके जीवन का निचोड़ है।

गांधी जी के ग्यारह व्रत

  1. सत्य – सत्य ही परमेश्र्वर है। सत्य-आग्रह, सत्य-विचार, सत्यवाणी और सत्य-कर्म ये सब उसके अंग हैं। जहां सत्य है, वहां शुद्घ ज्ञान है। जहां शुद्घ ज्ञान है, वहीं आनंद हो सकता है।
  2. अहिंसा – सत्य के साक्षात्कार का एक ही मार्ग, एक ही साधन अहिंसा है। बगैर अहिंसा के सत्य की खोज असंभव है।
  3. ब्रह्मचर्य – इसका अर्थ है- ब्रह्म की, सत्य की खोज में चर्या, अर्थात् उससे संबंध रखने वाला आचार। इसका मूल अर्थ है- सभी इंद्रियों का संयम।
  4. अस्वाद – मनुष्य जब तक जीभ के रसों को न जीते, तब तक ब्रह्मचर्य का पालन बहुत कठिन है। भोजन केवल शरीर पोषण के लिए हो, स्वाद या भोग के लिए नहीं।
  5. अस्तेय (चोरी न करना) – दूसरे की ची़ज को उसकी इजाजत के बिना लेना तो चोरी है ही, लेकिन मनुष्य अपनी कम से कम ़जरूरत के अलावा जो कुछ लेता या संग्रह करता है, वह भी चोरी ही है।
  6. अपरिग्रह – सच्चे सुधार की निशानी अधिक ग्रहण करना नहीं, बल्कि विचार और इच्छापूर्वक कम ग्रहण करना है। ज्यों-ज्यों परिग्रह कम होता जाता है- सच्चा सुख, संतोष और सेवाशक्ति -बढ़ती है।
  7. अभय – जो सत्यपरायण रहना चाहे, वह न तो जात-बिरादरी से डरे, न सरकार से डरे, न चोर से डरे, न बीमारी या मौत से डरे, न किसी के बुरा मानने से डरे।
  8. अस्पृश्यता निवारण – छुआछूत हिन्दू धर्म का अंग नहीं है बल्कि यह उसमें छुपी हुई सड़न है, वहम है, पाप है। इसका निवारण करना ही प्रत्येक हिन्दू का धर्म है, कर्त्तव्य है।
  9. शरीरिक श्रम – जिनका शरीर काम कर सकता है, उन स्त्री-पुरुषों को अपने रोजमर्रा के खुद करने के लायक सभी काम खुद ही कर लेने चाहिए। बिना कारण दूसरों से सेवा नहीं लेनी चाहिए।
  10. सर्वधर्म-समभाव – जितनी इज्जत हम अपने धर्म की करते हैं, उतनी ही इज्जत हमें दूसरे के धर्म की भी करनी चाहिए। जहां यह वृत्ति है, वहां एक-दूसरे के धर्म का विरोध हो ही नहीं सकता, न परधर्मी को अपने धर्म में लाने की कोशिश ही हो सकती है। हमेशा प्रार्थना यही की जानी चाहिए कि सब धर्मों में पाये जाने वाले दोष दूर हों।
  11. स्वदेशी – अपने आसपास रहने वालों की सेवा में ओत-प्रोत हो जाना स्वदेशी धर्म है। जो निकट वालों को छोड़कर दूर वालों की सेवा करने को दौड़ता है, वह स्वदेशी धर्म को भंग करता है।

– गौरव

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