गुरु शिक्षक बनें कर्मचारी नहीं

भारत में जहां गुरु को ईश्र्वर से अधिक श्रद्घा, सम्मान और आदर किए जाने की गौरवशाली परंपरा रही है, वहां आज गुरु या शिक्षक की स्थिति क्या है? गुरु जिसे सम्राट ही नहीं ईश्र्वर का अवतार माने जाने वाले महापुरुष तक सम्मान देते थे, आज उसे सम्मानित करने के लिए “शिक्षक-दिवस’ मनाया जाता है और वह दिवस (5 सितम्बर) भी ऐसी रस्म अदायगी का दिन बन गया है कि उससे यह अर्थ निकलता है कि वर्ष में सिर्फ एक दिन ही शिक्षक या गुरुजन का सम्मान करो, बाकी के 364 दिन समाज और छात्र स्वतंत्र हैं कि वे शिक्षक को सम्मान दें या न दें?

शिक्षकों या गुरुजनों के सम्मान में आई गिरावट के कारण क्या हैं? इस पर छात्रों और समाज ने तो ध्यान देना जरूरी समझा ही नहीं है। शिक्षकों और गुरुजनों ने भी कभी यह ध्यान देने की आवश्यकता महसूस नहीं की कि जिस देश में राम और कृष्ण जैसे अवतारी महापुरुष, वशिष्ठ, विश्र्वामित्र तथा सांदीपनि के सामने नतमस्तक होने में गौरवान्वित अनुभव करते थे, उस देश में आज का छात्र शिक्षकों का उपहास उड़ाने या अपमान करने पर क्यों आमादा रहता है।

वस्तुतः आज सामाजिक जीवन में मूल्यों का ह्रास हुआ है। नयी पीढ़ी की पुराने मूल्यों में मान्यता नहीं रही। आज नयी पीढ़ी अपने कर्त्तव्य और दायित्वों से विमुख होती जा रही है। इसके लिए समाज भी कम उत्तरदायी नहीं है। लेकिन शिक्षकों को इस दशा में लाने की एक हद तक जिम्मेदारी शिक्षक की ही है। यह बात कम आश्र्चर्यजनक नहीं है कि जिस देश में रामकृष्ण परमहंस ने नरेन्द्र दत्त को विवेकानंद बनाया। आजादी के बाद उस देश के शिक्षकों ने न तो कोई ाांतिकारी विचार दिया और न ही नया दृष्टिकोण। अंग्रेजों की बनाई हुई शिक्षानीति को हमारे शिक्षकगण बैलगाड़ी में जुते बैल की तरह ढोते रहे, जबकि शिक्षकों का इतना विशाल समुदाय है कि यदि यह समुदाय संगठित हो जाए तथा शिक्षा की मैकाले प्रदत्त पद्घति के साथ-साथ यदि बालकों को देशभक्ति, राष्टप्रेम, नागरिक कर्त्तव्य तथा समाज के प्रति दायित्वों को भी शिक्षा देने लगे तो न ही इस देश के नेता भ्रष्टाचारी हों और न सरकारी कर्मचारी कामचोर और बेईमान। शिक्षक ने समाज के प्रति अपने दायित्व को कभी समझा ही नहीं। उसने कभी अपने कर्त्तव्य को जाना ही नहीं। उसने समाज से दूर होकर स्कूलों की चारदीवारी में अपने आपको कैद कर लिया। उसने पाठ्याम के विषयों को पढ़ाने तथा इन विषयों में छात्रों को पास कराने की हथकड़ियों और बेड़ियों से अपने आपको जकड़ लिया।

यह सच है कि अंग्रेजों के समय में और उसके बाद आजाद भारत में शिक्षकों को आर्थिक सुविधाएं नहीं मिलीं। उन्हें अन्य शासकीय कर्मचारियों से कम वेतन मिला। अशासकीय संस्थाओं में उनका जमकर शोषण हुआ। नतीजे में जिस शिक्षित व्यक्ति को कोई और नौकरी नहीं मिली, वह शिक्षक हो गया। शिक्षक ने भी अपने आपको धनलिप्सु बना लिया। ट्यूशन की बढ़ती प्रवृत्ति इसी का दुष्परिणाम है। अब तो यह प्रवृत्ति इतनी विकराल हो गई है कि विद्यालयों में ज्यादातर शिक्षक सिर्फ हाजिरी भरने जाते हैं, पढ़ाने नहीं। पढ़ाते तो वे सिर्फ अपने घरों पर हैं, जहां छात्र उन्हें ट्यूशन फीस देते हैं। कस्बों और नगरों में अब शिक्षकों द्वारा सैकड़ों छात्रों को ट्यूशन पढ़ाना, नकल करवाना, उत्तर पुस्तिकाओं में नंबर बढ़वाना आम बात हो गई है।

प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षकों की आर्थिक दुर्दशा से सभी सहमत हो सकते हैं, पर महाविद्यालयों के अध्यापक, प्राध्यापक या व्याख्याता अभावग्रस्त रहते हैं, इससे बहुत कम लोग सहमत होंगे। कई राज्यों में प्राध्यापकों को डिप्टी कलेक्टर एवं अन्य राजपत्रित अधिकारियों से अधिक वेतन मिलता है, फिर भी वे ट्यूशन उद्योग और नकल उद्योग चलाते हैं। आज जब बेरोजगारी चरम सीमा पर है, तब शिक्षक, अध्यापक या प्राध्यापक पद पर नियुक्ति कड़ी प्रतियोगिता के बाद मिलती है। ऐसे में यह कहना कि “जिसे कोई और नौकरी नहीं मिलती, वह शिक्षक बन जाता है’, अप्रासंगिक हो गया है। आज इन पदों पर नियुक्ति भी योग्यता, प्रतियोगिता और विद्वता के आधार पर मिलती है। इस तरह भारत में योग्य एवं अच्छे शिक्षक तो हैं, पर वे आत्मकेंद्रित हैं। वे अर्थ और धन पर तो ध्यान देते हैं, पर अपने सामाजिक एवं राष्टीय कर्त्तव्य के प्रति उदासीन हैं। वे एक सोई हुई शक्ति हैं। जिस दिन वे अपनी शक्ति को पहचान लेंगे, समाज को दिशा देने के अपने कर्त्तव्य को समझ लेंगे, नयी पीढ़ी को दिशा-बोध कराएंगे, छात्रों को किताबी ज्ञान के साथ देश एवं समाज के प्रति दायित्वों का ज्ञान देने लगेंगे, उस दिन से ही शिक्षकों को वर्ष में केवल एक दिन ही नहीं, बल्कि प्रतिदिन सम्मान मिलेगा। यदि शिक्षकों में यह दायित्व बोध नहीं जागा और उन्होंने अपनी पहचान “शिक्षक’ या “गुरु’ के बजाय कर्मचारी की ही बनाए रखी तो सरकार और समाज उन पर इसी प्रकार बोझा लादते रहेंगे, जैसे उन पर पिछले अनेक साल से लादा जाता रहा है। पशुगणना हो या जनगणना, कोई सर्वे हो, चुनाव हो या अन्य कार्याम, हर बेगार आज शिक्षक पर लाद दी जाती है।

इसका कारण भी यही है कि शिक्षक भी अपने आपको सरकारी नौकर मानता है और समाज तथा सरकार भी उसे सरकारी कर्मचारी मानकर चलते हैं। उसे गुरु कोई नहीं मानता। जिस दिन शिक्षक अपने आपको गुरु बनाने के पथ पर अग्रसर हो जाएगा, उस दिन से ही वह समाज, छात्रों एवं राष्ट में सम्मान का पात्र बन जाएगा। समाज एवं छात्रों को यह बताने की आवश्यकता ही नहीं होगी कि शिक्षक का भी सम्मान और आदर किया जाना चाहिए, पर क्या कभी ऐसा दिन आएगा?

– अंजनी सक्सेना

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