जब पुरुष आजीवन विवाह न करे

कई पुरुष विवाह को एक मानसिक एवं शारीरिक बंधन समझते हैं। अपनी आजादी के समाप्त होने के डर से वे शादी के पचड़े में नहीं पड़ना चाहते। घर-गृहस्थी के पचड़े में न पड़कर कुंवारा रहने की सोच लेते हैं। वे सामाजिक तौर पर कुंवारे होते हैं, परन्तु उन्होंने “टैम्परेरी कनेक्शन’ ले रखे होते हैं, क्योंकि स्वछन्द सेक्स की विचारधारा वाली लड़कियां भी मिल जाती हैं। समाज में सेक्स भी बिकता है। जब से समाज बना है- सेक्स के बिना कोई रह नहीं पाया। पुरुष यदि विवाह न भी करे तो भी उसके लिए सेक्स बिकता है।

  • कुछ लोगों का कथन है- “”नारी समाज में सभी दुःखों, अभावों, असफलताओं का कारण है। यथासम्भव इससे बचना चाहिए। नारी, प्रेम करती है या घृणा। इसके अलावा वह कुछ नहीं करती।” इस कथन पर विश्र्वास करने वाले पुरुष गलत धारणा बनाकर स्त्री से बचने के लिए विवाह नहीं करते, परन्तु स्त्रियों के पीछे भी भागते हैं।
  • वे सारा जीवन यही समझते रहते हैं कि छलनामयी! तेरा नाम औरत है। कुछ लोग प्रेम में असफल होने के कारण शादी न करने का व्रत ले लेते हैं। असफल बेमेल शादियां देखने के बाद वे भी शादी के नाम से डरते-घबराते हैं, शादी नहीं करते।
  • कई पुरुष कलाप्रेमी होते हैं। संगीत, पेंटिंग, कलाओं आदि में लगे लोग अपनी कला से इतना प्यार करते हैं कि उन्हें डर रहता है कि विवाह के बाद उनका कला-प्रेम संकट में आ जाएगा, कला मर जाएगी। वे शादी के बन्धन में पड़ने की बजाय आजीवन अकेले रहने का व्रत ले लेते हैं। शारीरिक अपंगता भी कई बार आड़े आ जाती है, परन्तु भारतीय परिवेश में बिना दहेज के गरीब घर की लड़कियां अपंग से भी शादी कर लेती हैं।
  • सुन्दर लड़कियां धनाभाव के कारण पागल लड़कों से भी शादी करती देखी गई हैं। पुरुष को यह सुविधा है कि वह जिस उम्र में भी चाहे शादी कर सकता है, परन्तु स्त्री के लिए यह जरा मुश्किल जान पड़ता है।
  • विवाह न करने पर पागल होने की संभावना रहती है, क्योंकि अकेले जीवन के थपेड़ों से लड़ना मुश्किल होता है। पागलखाने में जाकर यदि सर्वेक्षण किया जाए तो पता चलेगा कि कुंवारे असफल प्रेमी, पागलखानों में बहुत संख्या में दाखिल रहते हैं। जीवन अकेले काटना बहुत दूभर होता है। अच्छे साथ से जिन्दगी का सफर सुहावना ही नहीं, बल्कि आसान भी बन जाता है।
  • हमारा समाज पुरुष-प्रधान है। हर युग में पुरुष ने अपनी चालाकी से अपने लिए सेक्स पूर्ति के लिए रास्ते खोजे हैं। अपनी स्वार्थसिद्घि के लिए समाज के नियम बनाये गये हैं। महाभारत काल में नियोग-प्रथा से पुरुष वर्ग अपना स्वार्थ सिद्घ करता रहा है। देवदासियां भी पुरुषों की विलासिता की प्रतिपूर्ति का साधन रही हैं। तब नगर वधुएं हुआ करती थीं, जिनका मॉर्डन रूप “कॉल गर्ल्स’ हैैं। हर शहर में लाल बत्ती एरिया है। जहां जायज या नाजायज तरीकों से सुरा-सुंदरी का बोलबाला है। औरत हर युग में बिकती आई है, उसका शोषण होता आया है।
  • समाज में विवाह एक ऐसा सामाजिक बन्धन है, जिसे समाज मान्यता देता है। बच्चे मनुष्य के गुण अगली पीढ़ी में ले जाते हैं। विवाह-बन्धन को गृहस्थ आश्रम कहते हैं। यह सर्वोत्तम आश्रम माना जाता है। यदि हम समाज के बनाए नियमों के विपरीत जाते हैं तो हमारा जीवन जीना दूभर हो जाता है। विवाह एक सामाजिक इकाई है। बिना शादी के व्यक्ति को सम्पूर्ण नहीं माना जाता। यथासंभव सही उम्र में विवाह कर लेना उचित है।

-विजेन्द्र कोहली गुरदासपुरी

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