जय महाकालेश्र्वर

द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख महाकालेश्र्वर सात मोक्षपुरियों में से एक अवंतिकापुरी (उज्जैन) में विराजमान है। हर बारह साल बाद यहां कुंभ का मेला लगता है।

ब्रह्मांड में सर्वपूज्य माने गये तीन लिंगों में से भगवान महाकाल भूलोक में विराजते हैं। भूलोक में स्थापित होने के लिए उन्होंने अवंतिका यानी उज्जैन का चयन किया। बारह ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख महाकालेश्र्वर के दर्शन के लिए प्रतिदिन हजारों श्रद्घालु देश-विदेश से पहुँचते हैं और पुण्य अर्जित करते हैं।

अवंतिकापुरी (उज्जैन) को मणिपुर चा अथवा नाभिदेश भी कहा जाता है। इसी नाभि देश में महा-कालेश्र्वर निवास करते हैं। यह भी कहा गया है – मनुष्य को मोक्ष देने वाली सात महान तीर्थ-भूमियों में अवंतिका (उज्जैन) भी है। समस्त मृत्युलोक के स्वामी और काल-गणना के अधिपति महाकालेश्र्वर का निवास होने के कारण इस तीर्थपीठ का महत्व औरों से अधिक माना जाता है।

महाकालेश्र्वर की इस पवित्र नगरी को कनक-श्रृंग, कुशस्थली, पद्मावती, कुमुदवती, अमरावती व विशाला आदि नामों से भी पुकारा जाता है। योगीराज श्रीकृष्ण, उनके भाई बलराम और मित्र सुदामा ने यहीं ऋषि संदीपनि के गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की थी। वामन पुराण में कहा गया है कि महान भक्त प्रह्लाद ने शिप्रा नदी में स्नान करके भगवान विष्णु और महाकलेश्र्वर के दर्शन किए थे।

महाकालेश्र्वर की स्थापना के बारे में दो किंवदंतियां प्रचलित हैं। कहा जाता है कि एक समय यहां चंद्रसेन नामक शिवभक्त राजा राज्य करता था। पांचवर्षीय गोप बालक ने उसे शिव-अर्चना करते हुए देखा तो उसका मन भी शिवलिंग के पास आकर वैसा ही करने के लिए हुआ। किन्तु राजा के अनुचरों ने उसे मना कर दिया। घर आकर बालक ने पत्थर के एक टुकड़े को स्थापित करके फल-फूल चढ़ाते हुए, शिव-अर्चना करनी शुरू कर दी। वो उसमें इतना मग्न हो गया कि बार-बार मां के बुलाने पर भी भोजन करने के लिए नहीं उठा। गुस्से से भरी मां ने पत्थर के टुकड़े को उठाकर फेंक दिया और बालक को जबरदस्ती खींच कर अपने साथ ले जाने लगी। रोते हुए बच्चे ने शंकर को पुकारना शुरू कर दिया। तंग आकर मां वहां से चली गयी। रोते-रोते बच्चा बेहोश हो गया। होश में आया तो देखा कि वहां रत्नजड़ित विशाल मंदिर विद्यमान है और उसके अंदर प्रकाश युक्त ज्योर्तिलिंग दैदीप्यमान हो रहा है। इस घटना का पता चलने पर राजा चंद्रसेन भी दौड़ते हुए आये। तभी वहां श्री हनुमान प्रकट हुए और उन्होंने बताया कि इस बालक की आठवीं पीढ़ी में नंदगोप के घर स्वयं नारायण श्रीकृष्ण के रूप में आयेंगे। कहते हैं कि स्वयं भगवान आशुतोष द्वारा स्थापित शिवलिंग ही महाकालेश्र्वर है।

एक-दूसरी अन्य किंवदंती के अनुसार किसी समय अवंतिकापुरी में वेदपाठी शिवभक्त ब्राह्मण रहता था। उसके चार पुत्र थे। उसकी भक्ति व शिवनिष्ठा से ईर्ष्या करते हुए, रत्नमाला पर्वत पर रहने वाला दूषण नामक असुर दल-बल के साथ यहां आया और लोगों पर अत्याचार करने लगा। ब्राह्मण होकर भगवान अपनी मूलभावना में प्रकट हो गये। उन्होंने मात्र एक हुंकार से उस असुर का वध कर दिया और ब्राह्मण को आशीर्वाद देते हुए भगवान आशुतोष अंतर्ध्यान हो गये। जिस स्थान पर वो प्रकट हुए, वहां विशाल शिवलिंग स्थापित हो गया। उनकी हुंकार ही असुर का काल बन गई, इसलिए शिवलिंग का नाम महाकाल पड़ गया। यह वही शिवलिंग है।

ऐसी मान्यता है कि महाकालेश्र्वर का दर्शन करने पर अकाल मृत्यु से रक्षा होती है। मंदिर का प्रांगण बहुत विशाल व मनोहारी है। इस प्रांगण में ओंकारेश्र्वर का मंदिर भी बनाया गया है। ज्योतिर्लिंग गर्भगृह में है। वहां पहुंचने के लिए कई सीढ़ियां नीचे उतरनी पड़ती हैं। गर्भगृह में दो दीप निरंतर जलते रहते हैं। पश्र्चिमी दीवार के आले में गणेश, पूर्वी आले में कार्तिकेय और उत्तर दिशा में मां पार्वती की चांदी से बनी प्रतिमाएं स्थापित हैं। गर्भगृह की छत पर सौ किलो चांदी का बना रुद्र मंत्र प्रतिष्ठित किया गया है। मुख्य दरवाजे के ठीक सामने नंदीश्र्वर की विशाल प्रतिमा है।

महाकालेश्र्वर मंदिर की कई विशेषताएँ ऐसी हैं, जो अन्य स्थानों पर देखने को नहीं मिलतीं। प्रतिदिन सुबह चार बजे महाकाल की अर्चना चिता-भस्म से की जाती है। यह भस्म श्मशान घाट में जल रही ताजी चिता से लाई जाती है। इस अद्भुत भस्माभिषेक को देखने के लिए सुबह से ही मंदिर में भक्तों की भीड़ लगनी शुरू हो जाती है। मंदिर के पूजन की एक विशेषता यह भी है कि एक बार चढ़ाए गए बेलपत्र को धोने के बाद दोबारा चढ़ाया जा सकता है। प्रत्येक बारह साल बाद शिप्रा नदी के किनारे लगने वाले महाकुंभ के दिनों में महाकालेश्र्वर मंदिर में अपार भीड़ उमड़ती है।

– कीर्ति

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