दादा की बास

7 अक्टूबर 2008 यानी भारत और ऑस्टेलिया के बीच टेस्ट श्रृंखला के शुरू होने के 2 दिन पहले तक यह तमाम दूसरी टेस्ट श्रृंखलाओं की तरह एक सामान्य श्रृंखला थी। लेकिन इसी दिन दोपहर बाद जब भारतीय टीम के पूर्व कप्तान और बार-बार टीम में आने-जाने के लिए चर्चित रहे सौरव गांगुली ने प्रेस कांफ्रेंस में घोषणा कर दी कि यह 4 टेस्ट मैचों की श्रृंखला उनकी आखिरी श्रृंखला होगी। इसके बाद वह संन्यास ले लेंगे तो यह श्रृंखला ऐतिहासिक हो गई।

हालांकि कोई भी दिग्गज से दिग्गज खिलाड़ी किसी न किसी दिन तो संन्यास लेता ही है। सौरव गांगुली, सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रव़िड और वीवीएस लक्ष्मण यानी फैबुलस फोर के नाम से मशहूर ये िाकेटर भी अंततः किसी दिन अपना बैट खूंटी पर टांगेंगे ही। अगर कोई खिलाड़ी हमेशा खेल सकता तो शायद गावस्कर, कपिलदेव, सैय्यद किरमानी और बिशन सिंह बेदी जैसे खिलाड़ी कभी रिटायर ही नहीं हुए होते। पर ऐसा नहीं है। हर खिलाड़ी को एक समय आता है जब संन्यास की घोषणा करनी ही पड़ती है। यह बात अलग है कि भारत में खिलाड़ी द्वारा अपने संन्यास की घोषणा आसानी से नहीं की जाती। लेकिन यहां मामला यह नहीं है कि सौरव गांगुली को घोषणा कर देनी चाहिए या कि उन्होंने इतना दबाव बनाने के बाद घोषणा की। यहां असली बात इस पूर्व भारतीय िाकेट कप्तान के अक्खड़ और जुझारू रवैय्ये तथा िाकेट कंटोल बोर्ड ऑफ इंडिया के दुराग्रह भरी सोच पर सवाल है।

हर महान खिलाड़ी अपनी किसी न किसी खूबी के लिए हमेशा याद रहता है। आने वाली पीढ़ियां जब भारतीय िाकेट के दादा की याद करेंगी तो उन्हें दादा की कई बेहतरीन खूबियां आकर्षित करेंगी। ऑफ साइड में लगाए गए उनके बेमिसाल स्टोक्स जिन्हें िाकेट के कई विशेषज्ञ चमत्कारिक शॉट्स कहते रहे हैं। जैसे को तैसा जवाब देने वाला एक एग्रेसिव कप्तान और भारतीय िाकेट का कमबैक मैन। दादा की बेमिसाल खूबियां उन्हें कभी भी िाकेट की दुनिया से ओझल नहीं होने देंगीं। सौरव गांगुली का सही मायनों में िाकेट कॅरियर 1996 से शुरू होता है। हालांकि इससे पहले वह 1992 में वनडे टीम में रखे गए थे और एक मैच भी खेला था। लेकिन वह चले नहीं और खूबियों से ज्यादा अपनी खामियों के चर्चे में कई सालों के लिए भुला दिए गए। बाद में उन्हें जून 1996 में इंग्लैंड दौरे पर टेस्ट मैच में राहुल द्रविड के साथ डेब्यू करने का मौका दिया गया। शायद गांगुली को यह मौका तब भी नहीं मिलता अगर उस श्रृंखला में नवजोत सिंह सिद्घू, अजहरूद्दीन से किसी बात पर तुनक कर टूर को बीच में ही छोड़ वापस हिन्दुस्तान न आ गए होते। बहरहाल, भारतीय िाकेट में पिं्रस ऑफ कोलकाता, महाराज, दादा और कमबैक मैन के रूप से बाद में मशहूर हुए गांगुली ने अपने पहले ही टेस्ट मैच में वह चमक दिखायी कि पूरी दुनिया उनमें भविष्य का सितारा देखने लगी। लॉड्र्स के मैदान में जहां सचिन तेंदुलकर आज तक एक भी शतक नहीं मार पाए। दादा ने अपने पहले ही टेस्ट में शानदार सेंचुरी जमाई। फिर दूसरे टेस्ट में भी यही कारनामा दोहराया। अजहरूद्दीन की तरह वह भी वंडर बॉय की तरफ बढ़े और इसके बाद फिर दादा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

8 जुलाई, 1972 को कोलकाता में पैदा हुए लेफ्ट हैंड के स्टाइलिश बेट्समैन सौरव गांगुली अपने िाकेट कॅरियर में हमेशा चर्चा में रहे। कभी अपनी शानदार बल्लेबाजी की बदौलत, कभी आाामक कप्तानी की बदौलत, कभी अपने अक्खड़ और नफासत पसंद व्यवहार की बदौलत तो कभी संघर्ष करके फिर से टीम का हिस्सा बनने का जुझारूपन दिखाने के कारण। संभवतः वह एकमात्र ऐसे भारत के िाकेटर होंगे जिनकी टीम में वापसी के लिए जनआंदोलन हुए, राजनीतिक गुटबंदियां हुईं और एक बार तो यहां तक नौबत आ गई कि कहीं िाकेट कंटोल बोर्ड ऑफ इंडिया में ही दरारें न पड़ जाएं। सौरव गांगुली हमेशा चर्चा में रहे।

इस बार जब उन्हें ईरानी टॉफी के लिए नहीं चुना गया और पूरे साल शानदार बल्लेबाजी करने के बावजूद भी वनडे टीम में नहीं रखा गया तो लगने लगा था कि अब दादा को भुला दिया गया है। ऑस्टेलिया का दौरा शुरू होने के पहले जिस तरह से तमाम मौकों पर सौरव की अनदेखी की गई, उससे यह संदेश बिल्कुल स्पष्ट लग रहा था। लेकिन फिर जब अचानक ऑस्टेलिया के विरूद्घ होने वाले पहले 2 टेस्ट मैचों के लिए उन्हें टीम में रखा गया तो हर तरफ से उनकी वापसी के पीछे हुए किसी गुपचुप समझौते की गूंज सुनाई पड़ने लगी। हालांकि बार-बार सौरव गांगुली ने और िाकेट कंटोल बोर्ड ऑफ इंडिया ने इसका खंडन किया। मगर लगता है कि वह खंडन झूठे थे, क्योंकि 7 अक्टूबर को सौरव गांगुली ने खचाखच भरे संवाददाता सम्मेलन में जिस तरह हड़बड़ाहट के अंदाज में अपने संन्यास की घोषणा की, वह उनके मिजाज से बिल्कुल अलग था। 36 वर्षीय सौरव गांगुली जिस समय यह घोषणा कर रहे थे कि यह उनकी आखिरी श्रृंखला होगी और वह सोच-विचारकर अपने दिल की आवाज पर संन्यास लेने की बात कह रहे हैं तो उनकी आंखों के पीछे आंसुओं की डबडबाहट स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती थी।

ऐसा नहीं है कि सौरव हमेशा ही टीम का हिस्सा रहते। लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ सालों से रह-रहकर उन्हें एक योजनाबद्घ ढंग से निशाना बनाया जाता रहा, वह सही नहीं था। सौरव गांगुली ने इस साल यानी सन 2007-08 में वनडे और टेस्ट दोनों ही किस्म के िाकेट में 1000 से ज्यादा रन बनाए हैं। एक श्रीलंका के दौरे को छोड़ दें तो हाल की वह किसी भी श्रृंखला में फेल नहीं हुए। बांग्लादेश के साथ सीरीज में वह मैन ऑफ द सीरीज रहे। पाकिस्तान के साथ श्रृंखला में वह अपनी जिंदगी का पहला दोहरा शतक बनाने में कामयाब रहे। यही नहीं 2006 में जब उन्होंने अपने जुझारूपन के चलते टीम में वापसी की और ज्यादातर लोगों ने यह भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी थी कि दादा बस एक-दो मैच में ही हमेशा के लिए अपना बोरिया-बिस्तर बांध लेंगें तो उस सीरीज में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले गांगुली ही रहे यानी हाल के दिनों में सौरव गांगुली ने हमेशा बेहतर प्रदर्शन किया। लेकिन जब भी उनके प्रदर्शन में जरा सी कोई कमी दिखी कि उन पर बहुत संगठित तरीके से तमाम लोग टूट पड़े। यह सही तरीका नहीं है। अगर श्रीलंका में सौरव फेल हुए तो देखना चाहिए कि फेल होने वाले वह अकेले दिग्गज नहीं थे। सचिन, हर लिहाज से उनसे बड़े बेट्समैन समझे जाते हैं लेकिन जिस तरह वह श्रीलंका में फेल हुए, वह सौरव गांगुली से कोई बेहतर प्रदर्शन नहीं था। बावजूद इसके सचिन पर कभी अंगुली नहीं उठती। लेकिन गांगुली के पीछे मीडिया, पूर्व खिलाड़ी, सिलेक्टर्स और न जाने कितने लोग पड़े थे। हो सकता है यह पहले से ही तय हो गया हो कि सौरव को इस श्रृंखला में तभी मौका मिलेगा जब वह संन्यास लेने की घोषणा करेंगे। अगर तमाम न-नुकुर के बाद भी यह सच है तो फिर यह फैबुलस फोर के अंत की शुरूआत है।

– कृष्णपाल सिंह

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