धर्म संस्थापनार्थ हुए कृष्ण अवतरित

जब-जब असुरों के अत्याचार बढ़े और धर्म का पतन हुआ है, तब-तब भगवान ने पृथ्वी पर अवतार लेकर सत्य और धर्म की स्थापना की है। इसी कड़ी में भाद्रपद माह की कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि के समय अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में भगवान कृष्ण ने अवतार लिया। चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। अतः इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी अथवा जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इस दिन स्त्री-पुरुष रात्रि बारह बजे तक व्रत रखते हैं, मंदिरों में झॉंकियॉं सजाई जाती हैं और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है।

व्रत-पूजन कैसे करें

उपवास की पूर्व रात्रि को हल्का भोजन कर ब्रह्मचर्य का पालन करें। उपवास के दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होने के पश्र्चात् सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर मुख करके बैठें। इसके बाद जल, फल, कुश और गंध लेकर संकल्प करें –

ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्घये

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये।।

अब मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकी जी के लिए “सूतिकागृह’ नियत करें। तत्पश्र्चात भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। मूर्ति में बालक श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मी जी उनके चरण-स्पर्श किये हों। इसके बाद विधि-विधानपूर्वक पूजन करें। पूजन में देवकी, वसुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा और लक्ष्मी इन सबका नाम ामशः निर्दिष्ट करना चाहिए। फिर निम्न मंत्र द्वारा पुष्पांजलि अर्पण करें –

प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तुः वामनः।

वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः।

सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तुते।

अंत में प्रसाद-वितरण कर भजन-कीर्तन करते हुए, रतजगा करें।

जन्माष्टमी के बारे में जानकारी

अष्टमी दो प्रकार की होती है- पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमें केवल पहली अष्टमी है। स्कन्दपुराण के मतानुसार जो व्यक्ति कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत नहीं करता, वह सर्प और व्याघ्र योनि पाता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी को अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो (विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में) तो इस व्रत को करें। भविष्यपुराण का वचन है- श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत जो मनुष्य नहीं करता, वह ाूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करने के लिए कहा गया है। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसेे “जयंती’ के नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए। विष्णुरहस्यादि वचन से कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास में हो तो वह भी जयंती नाम से संबोधित की जाएगी।

वसिष्ठ संहिता का मत है- -यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में उपवास करना चाहिए। मदन रत्न में स्कन्दपुराण का वचन है कि जो उत्तम पुरुष हैं, वे निश्र्चित रूप से जन्माष्टमी के व्रत को इस लोक में करते हैं। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है। इस व्रत के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्घ होते हैं। विष्णु धर्म के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो, तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है।

भृगु ने कहा है- जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि, ये पूर्वविद्घा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त में पारणा करें। इसमें केवल रोहिणी उपवास भी सिद्घ है।

जन्माष्टमी का सन्देश

पाप और शोक के दावानल से दग्ध इस जगती तल में भगवान ने पदार्पण किया। इस बात को आज पॉंच सहस्र वर्ष हो गये। वे एक महान सन्देश लेकर पधारे, केवल सन्देश ही नहीं, वे एक नया सृजनशील जीवन लेकर आये। वे मानव प्रगति में एक नया युग स्थापित करने आये। इस जीर्ण-शीर्ण रक्तप्लावित भूमि पर एक स्वप्न लेकर आये। जन्माष्टमी के दिन उसी स्वप्न की स्मृति में महोत्सव मनाया जाता है। हम लोगों में जो इस तिथि को पवित्र मानते हैं, ऐसे कितने हैं, जो इस विनश्र्वर जगत में उस दिव्य जीवन के अमर-स्वप्न को प्रत्यक्ष देखते हैं?

श्रीकृष्ण ने गोकुल और वृन्दावन में मधुर मुरली के मोहक स्वर के साथ-साथ कुरुक्षेत्र में (गीता रूप में) सृजनशील जीवन का वह सन्देश सुनाया, जो नाम-रूप, रूढ़ि तथा साम्प्रदायिकता से परे है। रणांगण में अर्जुन को मोह हुआ। भाई-बन्धु, सुहृय-मित्र, कुटुम्ब-परिवार, आचार-व्यवहार और कीर्ति-अपकीर्ति ये सब नाम-रूप ही तो हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इन सबसे ऊपर उठने के लिए कहा, व्यष्टि से उठकर समष्टि में अर्थात् सनातन तत्त्व की ओर जाने का उपदेश दिया। वही सनातन तत्त्व आत्मा है- “तत्त्वमसि’।

मनुष्य-आत्मा है, परमात्मा प्राण है। मोह रज्जु से बंधा हुआ ईश्र्वर है। चौरासी के चक्कर में पड़ा हुआ चैतन्य है। क्या यही गीता के उपदेश का सार नहीं है? मेरे प्यारे बन्धुओं, क्या हम और आप सभी सान्त से अनन्त की ओर नहीं जा रहे हैं। क्या तुम भगवान को खोजते हो? अपने हृदय वल्लभ की टोह में हो? यदि ऐसा है तो उसे अपने अन्दर खोजो, वहीं तुम्हें वह प्रियतम मिलेगा।

 

You must be logged in to post a comment Login