पहचान खोते नागरिक

भारत में लम्बे समय से रहने वाले किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि क्या वह भारत का नागरिक है, तो वह उत्तर देगा कि “हां’ वह भारत का नागरिक है। उसी व्यक्ति से यदि यह पूछा जाए कि इस बात का क्या प्रमाण है कि वह भारत का नागरिक है तो वह व्यक्ति इस बात का प्रमाण संभवतः नहीं दे सकेगा। वह केवल किसी विद्यालय में पढ़ाई का प्रमाण-पत्र, राशन-कार्ड अथवा मतदाता सूची में उसके नाम का प्रमाण दे सकता है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। इस संबंध में सन् 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रकरण भवरू खान विरुद्घ भारत शासन (एआईआर 2002 एस.सी. पेज 1674) में निर्णय दिया था कि कोई भी व्यक्ति लम्बे समय से भारत में रहने से अथवा मतदाता सूची में उसका नाम होने से भारत का नागरिक नहीं हो सकता। ऐसे ही मुंबई उच्च न्यायालय ने मोती मियां रहीम मियां विरुद्घ महाराष्ट शासन व अन्य (ए.आई.आर. 2004 मुंबई पेज 460) में निर्णय दिया है कि कोई भी व्यक्ति कितने भी लम्बे समय से भारत में निवास करता हो, उसका नाम मतदाता सूची में हो तथा उसके नाम का राशन-कार्ड बना हो तो भी वह भारत का नागरिक नहीं हो सकता। उस प्रकरण में राशन-कार्ड जारी करने वाले अधिकारी ने उसका राशन-कार्ड इस कारण रोक लिया था कि वह बंग्लादेशी था। उस व्यक्ति ने राशन- कार्ड रोके जाने के विरुद्घ मुंबई उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी कि वह भारत का नागरिक है, परन्तु मुम्बई उच्च न्यायालय ने उसकी बात नहीं मानी। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय तथा अन्य न्यायालयों का यह स्पष्ट मत है कि कितने भी लम्बे अर्से से भारत में रहने, राशन-कार्ड होने अथवा मतदाता सूची में नाम होने से कोई भी व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं हो सकता। इस प्रकार अपने देश में कौन इस देश का नागरिक है और कौन विदेशी है, इसकी पहचान का बड़ा संकट है और इस कारण देश पर आंतरिक और बाहरी आामण का खतरा उत्पन्न हो गया है, जिसकी चिन्ता ऐसे राजनीतिक नेताओं तथा दलों को नहीं है, जो ऐसे व्यक्तियों के वोट के आधार पर चुनाव जीतकर विधायक/सांसद बनकर केन्द्र/राज्य में मंत्री भी बन जाते हैं। आम जनता को भी ऐसी चिन्ता नहीं रहती। आखिर अपने देश में इतनी बड़ी मात्रा में आतंकवाद क्यों फैल रहा है। इसका एक बड़ा कारण तो यही है कि इस देश में देशी कौन है और विदेशी कौन है, इसकी कोई पहचान ही नहीं है। समय-समय पर बम-विस्फोट, चोरी तथा डाका डालने पर पुलिस या सुरक्षा दल अपने सीमित साधनों से जांच कर पता लगाते हैं कि ऐसे अधिकांश अपराधों में विदेशी लोगों का हाथ रहता है, जो इस देश में अपराध करने के बाद तुरंत भारत की सीमा पार कर पड़ोसी देशों में पहुंच जाते हैं और उन्हें पकड़ना संभव नहीं रहता। ऐसे में पढ़े-लिखे लोगों को क्या करना चाहिए, यह अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है, क्योंकि यह केवल सुरक्षा ही नहीं, बल्कि देश की शांति, आर्थिक स्थिति तथा उसके भविष्य से संबंधित प्रश्न भी है। प्रत्येक देश में नागरिकता संबंधी कानून होते हैं, जिससे उस देश की रक्षा की गारंटी रहती है। भारत में भी संविधान तथा नागरिकता कानून 1955 में इसकी व्यवस्था है। विदेशी लोगों के इस देश में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने के लिये फारेनर्स एक्ट बना है। विदेश का कोई भी व्यक्ति बिना भारत सरकार की अनुमति (वीसा) के इस देश में प्रवेश नहीं कर सकता, परन्तु भारत में अनेक ऐसे लोग हैं, जो बिना प्रवेश-पत्र (वीसा) के इस देश में रह रहे हैं। विशेषकर पड़ोसी देश (बांग्लादेश तथा पाकिस्तान) के नागरिक। जिस कारण भारत में आर्थिक संतुलन बिगड़ गया है, अपराध बढ़ गये हैं तथा देश की आंतरिक शांति का खतरा उत्पन्न हो गया है। भारत तथा पाकिस्तान व बांग्लादेश की सीमाओं पर घुसपैठ को रोकने के लिये कारगर चौकसी की व्यवस्था नहीं है। नागरिकता का कानून इसलिये होता है कि पहचान हो सके कि कौन अपना है और कौन पराया। भारत के संविधान के पांचवें अनुच्छेद के अनुसार देश के बंटवारे के समय (अर्थात् 15 अगस्त, 1947) को जो लोग इस देश में स्थायी रूप से रह रहे थे तथा जो इस देश में जन्मे अथवा जिनके माता-पिता इस देश में पैदा हुए थे अथवा संविधान के प्रारंभ होने से पांच वर्ष पूर्व से लोग साधारण रूप से यहां रह रहे थे, उन्हें नागरिक माना गया। इस अनुच्छेद के अनुसार ऐसे लोगों को भी भारत का नागरिक माना गया, जो देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान से भारत में आए और जिनके माता-पिता अथवा दादा-दादी, 1935 के पूर्व भारत में जन्मे थे तथा जो 19 जुलाई, 1948 के पूर्व पाकिस्तान से भारत शासन द्वारा नियत पंजीकरण अधिकारी द्वारा भारत के संविधान लागू होने के पूर्व नागरिक पंजीकृत किए गए। परन्तु ऐसे व्यक्तियों के लिये यह शर्त लगाई गई कि वे पंजीकरण के आवेदन के 6 माह पहले भारत में रह रहे थे। अनुच्छेद 7 में ऐसा प्रावधान किया गया है कि जो व्यक्ति 15 मार्च, 1947 के पूर्व भारत को छोड़कर पाकिस्तान चले गए, वे भारत के नागरिक नहीं माने जाएंगे। अनुच्छेद 8 में ऐसा प्रावधान किया गया कि जो व्यक्ति भारत के बाहर रह रहा है और जिसके माता-पिता अथवा पूर्वज 1935 के अविभाजित भारत में जन्मे, ऐसा व्यक्ति यदि विदेश से संबंधित भारतीय दूतावास में आवेदन-पत्र देकर स्वयं को भारत का नागरिक पंजीकृत करायेगा तो ऐसा व्यक्ति भारत शासन द्वारा 1955 में नागरिक कानून के अंतर्गत भारत का नागरिक होगा। सरकार ने यह कानून तो बनाया परन्तु सबसे बड़ी गलती जो भारत शासन ने की वह यह कि भारत के नागरिकों का न तो कोई रिकॉर्ड रखा गया और न ही उन्हें कोई पहचान-पत्र दिए गए। इस कारण किसी की भी पहचान नहीं हुई कि भारत में कौन व्यक्ति भारतीय है अथवा विदेशी। लाखों की संख्या में लोग पाकिस्तान तथा अब के बंग्लादेश के इस्लामी राज्य से त्रस्त होकर हिन्दू शरणार्थी के रूप में भारत में आए, परन्तु भारत में नागरिकता के पंजीयन का कोई प्रयास नहीं किया गया। – यू. सी. इसराणी

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