प्रसन्न जीवन की साधना ही पर्युषण महापर्व की आराधना

पर्युषण पर्व आत्मोन्नति का संदेश लाता है और इस पर्व को चारों गति के जीव मनाते हैं। पर्युषण पर्व के दिनों में यत्ंिकचित जीव भी धर्म को मानते हैं। वह सभी कार्यों को छोड़कर पर्युषण पर्व की आराधना करते हैं। कभी धर्म स्थानक में न आने वाले भी इस पर्व में धर्म स्थानक में आते हैं। कोई अंतर से आते हैं तो कोई कुल परंपरा के व्यवहार से आते हैं। वह सभी मानते हैं कि इस पर्व को हमें मनाना ही चाहिए। इस पर्व को न मनायें तो हम जैनी नहीं हैं। पर्युषण की आराधना करना हम सभी का कर्त्तव्य है। जब उत्तम, श्रेष्ठ और मंगलकारी दिन आते हैं, तब हम अपने घर को सुंदर बनाने का प्रयत्न करते हैं और स्वच्छ बनाकर सुंदर सजाने का भी प्रयास करते हैं। जिससे हमारे चित्त में प्रसन्नता, उत्साह, उमंग व हर्ष-सा महसूस होता है। तो हमें स्वच्छता और सुंदरता का लक्ष्य रखना है। बस पर्युषण की साधना भी इसी के लिए की जाती है। घर की स्वच्छता और सुंदरता को पाकर हम प्रसन्न बनते हैं एवं आनंदमय ताजगी का अनुभव करते हैं। तो पर्युषण पर्व में हमें आनंद प्राप्त कब होगा, जब आत्मा की स्वच्छता और सुंदरता प्रगट होगी तब दुःख, अशांति व निरूत्साह स्वतः ही लुप्त हो जाएँगे। जहॉं स्वच्छता नहीं वहॉं सुंदरता होती नहीं है। अतः आनंद पाना है। जीवन को प्रसन्नता में स्थित बनाये रखना है तो आत्मा को स्वच्छ बनाना होगा यानी आत्मा की शुद्घि नहीं होगी तो आत्मा सुंदर नहीं होगी। मलिन वस्त्र वालों को कोई नहीं चाहता है। इसी तरह मलिन बनी हुई आत्मा की कीमत नहीं होती। उसे कोई नहीं चाहता। वह अपमान, तिरस्कार व निंदा का पात्र बनता है। निंदित, अपमानित बना हुआ व्यक्ति अंदर ही अंदर अपने को दुःखी महसूस करता है। बेचैन बना रहता है, चिंतित बनकर हतोत्साही बन जाता है।

पर्युषण पर्व में प्रथम हमें स्वयं का अवलोकन करना है कि मेरी आत्मा सुखी है या दुःखी? मैं उपाधिमय जीवन जी रहा हूँ या प्रसन्नमय? यह चिंतन हमारी अंतर की शुद्घता, अशुद्घता बताता है। जो जीवन में चिंताओं की कतार लगी हो तो मान लें कि हमारे जीवन में आंतरिक शुद्घि नहीं है। आंतरिक अशुद्घता ही मानव को प्रमादी और पुरुषार्थहीन बनाती है। जैसे कोई स्थान अशुद्घ है तो हमें वहां बैठने की इच्छा नहीं होगी। हम उस गंदगीमय अस्वस्थ स्थान को छोड़कर अन्यत्र जाने का विचार करते हैं, उसी तरह जिस आत्मा में स्वच्छता नहीं है, वह आत्मा अन्यत्र जाने के विचार से अपने आपमें स्थित नहीं बनती है और भ्रांतिवश चारों तरफ भटकती रहती है। उसी का नाम है भवभ्रमण रूप संसार अस्थिर जीवन…।

आश्र्चर्य की बात तो यह है कि हम हमारे स्थान को स्वच्छ बनाने के बजाय अन्य स्थान ढूँढते हैं। वहॉं स्वच्छता नहीं तो और तीसरा स्थान … चौथा… पॉंचवॉं… इत्यादि स्थानों में गमना- गमन करते ही रहते हैं। परंतु विवेकी और बुद्घिशाली तो वह हैं, जा ेकि अन्य स्थान में जाने की बजाय अपने स्थान को ही स्वच्छ बना ले।

इससे अल्प समय में उसका स्थान भी स्वच्छ हो जाएगा और अन्यत्र गमनागमन का परिश्रम भी नहीं उठाना पड़ेगा। जो विवेकी होता है, वही आत्मा की आंतरिक मलिनता को दूर करता है और अविवेकी चारों तरफ (सभी गतियों में) भटकता ही रहता है।

जो आत्मा विवेकी होगी, वही आत्मा पर्युषण पर्व की आराधना करने योग्य कहलाती है। विवेक-ज्ञान पूर्वक चिंतन से जागृत बनता है। अतः आत्मशुद्घि के लिए प्रथम यह चिंतन करें कि पर्युषण पर्व की साधना विशुद्घता पाने के लिए है। विशुद्घ बनी हुई आत्मा ही साधना करने में उद्घमवंत बनती है। जिसमें आत्म-साधना का लक्ष्य नहीं, वह पर्युषण पर्व की साधना करने में आलसी होगा। कायरता का अनुभव करेगा और साधना से दूर रहने का इच्छुक होगा। पर्युषण में आत्म-साधना उसे असह्य और कठिन लगेगी। वहॉं आत्म-िाया में प्रेम, उत्साह व उमंग का अभाव होगा। करेगा तो बलात्कार याने किसी के दबाव से करेगा, अंतर से नहीं।

विवेकी आत्मा होगी तो वह चिंतन करेगी कि मेरी आत्मा दुःखी क्यों है? तो चिंतन आएगा कि कर्म के कारण विविध कर्मोदय से जीवन में अनेक चढ़ते-उतरते भाव आते हैं। त्याग, भोग, राग व वैराग्य इत्यादि अस्थिरता आती है, जाती है। वह अस्थिरता ही मुझे चंचलित बनाती है। उसी से मैं किसी को अच्छा मानता हूँ किसी को बुरा। यह तो मेरी ही अस्वच्छता के भाव है। अच्छा-बुरा मानने से स्वच्छता आने के स्थान पर अस्वच्छता बढ़ती है। मूल कारण है राग और द्वेष “”रागो य द्वेषो य कम्म निओ।” राग-द्वेष ही कर्म के बीज हैं। यह राग-द्वेष ही मेरी आत्मा के गुणों का घात करते हैं। स्व-गुणों की घात करने वाला ही अन्य गुणों की घात करता है यानी वह हिंसक वृत्ति वाला बनता है। अन्य जीवों का भी शोषण करता है तथा वह स्वयं को और अन्यों को दुःखी बनाता है।

मेरी आंतरिक स्वच्छता पाने के लिए मुझे अहिंसक बनना होगा। अहिंसा के शुद्घ भाव ही आत्मा को स्वच्छ बनाते हैं। हिंसा ाोध है, अहिंसा क्षमा है, हिंसा ाूरता है, अहिंसा में करुणा है, हिंसा में दुश्मनी के भाव हैं, अहिंसा में सत्य दर्शन है, हिंसा में वैर है। हिंसा में भोग है, अहिंसा में त्याग है, हिंसा निंदक है, अहिंसा में सत्य दर्शन है, हिंसा में वैर है, अहिंसा में वात्सल्य भाव है, हिंसा में भेद हैं, अहिंसा में अभेद है, हिंसा अवगुण दर्शक है, अहिंसा गुणदर्शक है, हिंसा भक्षक है, अहिंसा रक्षक है।

हिंसक भाव अपनी स्वयं की आत्मा को अस्वच्छ (मलिन) बनाता है। जब अहिंसा से आत्मा में स्वच्छता है, वही आत्मा धर्मसाधना में उत्साही बनती है। अहिंसा में चित्त की प्रसन्नता होती है। हिंसक आत्मा कलुषित चित्तवाला होती है। चित्त का कलुष ही राग-द्वेष का जनक है। अधर्म एवं अवगुणों का पोषक है। अहिंंसा में सरलता और अभयता के दर्शन होते हैं, भयभीत व्यक्ति भागता-फिरता है एवं वह कपट का आश्रय लेने वाला होता है। निर्भय व्यक्ति उत्साहपूर्वक कार्य करता है। भयग्रसित व्यक्ति कार्य में चिंतित रहता है, उसे कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती है। इसीलिए आत्मसाधक वही है, जो निर्भयता पूर्वक साधना करता है। वही आत्मबली बनता है। खुमारीपूर्वक जीवन जीता है।

अहिंसक वृत्ति युक्त व्यक्ति मैत्री भावना वाला होता है। मैत्री भावना वाला व्यक्ति मंद कषाय और करूणा के भाव को धारण करने वाला होता है। जिससे उसके अंतर में यह भाव बने रहते हैं कि जगत के कोई जीव दुःखी न बनें, सभी जीव सुखी बनें। सभी को जीने का पूर्ण अधिकार है। किसी का अधिकार छिनना ही भयंकर पाप है। किसी भी प्राणि को मेरे निमित्त से दुःख न हो, यह शुभ भाव बने रहने से पाप-कर्म का बंध नहीं होता। हर समय पुण्यबंध होता है और आगे भविष्य में भी अनुकूल जीवन की राह प्रशस्त होती है। यह अनुकूलता आत्मलक्ष्यी बनाती है, संसारलक्ष्यी नहीं।

यह है आत्मा की आंतरिक शुद्घि। यह शुद्घि आत्मा-साधना में पूर्ण रूप से सहायक बनती है।

करूणाभाव से वह अपनी शक्ति-साधना अन्य के सुख में जोड़ देती है। वह दुःख-प्रतिकूलता को स्वयं स्वीकार लेती है। वह आत्मा दूसरे के सुख में अपने को सुखी मानती है। वह सभी के लिए रक्षा के भाव रखती है। त्याग में अन्य जीवों की रक्षा होती है। भोग में अन्य की रक्षा नहीं होती है। त्याग निःस्वार्थ भाव है और भोग में स्वार्थ भाव बने रहते हैं। स्वार्थी अपनी अनुकूलता को देखता है। त्यागी दूसरे के अनुकूल बनने के लिए प्रतिकूलता को सहर्ष स्वीकार करता है। वह साधना संवर और निर्जरा से होती है। अतः मैत्री भावना स्वतः धर्म का ही मूल है। वह आत्मा अपने चिंतन रूपी विवेक, तप, त्याग व आराधना में लीन बनी रहती है। वह अन्य की रक्षा करती हुई स्वयं की रक्षा करती है। दूसरे के सुख के लिए स्वयं प्रतिकूलता को स्वीकार कर स्वयं को ही सुखी बनाती है।

साधर्मीवात्सल्य : जहॉं मैत्री व करूणा की भावना है। वहॉं गुमानुरागीपना होता है। दूसरे की उन्नति में आनंद होता है। अन्य के गुणों के प्रति अच्छी दृष्टि रखने वाला होता है। मित्रता से गुण के दर्शन होते हैं। वह दूसरे के अवगुणों के प्रति निरपेक्ष होता है। वह अवगुणों को देखकर यह भाव रखता है कि इसकी आत्मा का क्या होगा! उसके भीतर करुणा के भाव झलकते हैं। वह सोचता है कि जगत का कोई भी प्राणि पाप न करे, सभी का जीवन धर्ममय बने, गुणों की सुवास से महकता बने। अवगुण से घृणा भाव, शत्रुभाव जागृत होते हैं। गुणों से प्रमोदभाव आते हैं। गुणों के प्रति सकारात्मक सोच रखने से व्यक्ति उन गुणों को अपने जीवन में लाने का प्रयत्न करते हैं। दूसरे के अवगुण देखकर अपने जीवन में संवेगभाव और निर्वेग भाव बनाकर आत्म- कल्याण किया जा सकता है। ऐसा करने वाला सोचता है कि इसकी आत्मा की क्या दशा हो गई है। यदि मैं न संभला तो मेरी भी क्या दशा होगी? इस सोच से वह पाप के सेवन से बच जाता है।

साधर्मी को देखकर उनके प्रति वात्सल्य बहता है। वाह! कैसे उत्तम आत्मावान हैं। संसार से अलिप्त होकर सुंदर आत्मसाधना करके अपने जीवन को सफल बना रहे हैं और वे स्वयं की आत्मा को धिक्कारते हैं। अपनी निंदा करते हैं, दूसरे की प्रशंसा करके अंतर में खुश होते हैं, गुणवान को देखकर अपने जीवन को विशेष रूप से सुधारने का प्रयत्न करते हैं। उसकी दृष्टि आदर्शता को ढूंढती है। वह आत्मा उच्च दशा को प्राप्त करती ही रहती है।

आत्मविशुद्घि में दोष दर्शन

अहिंसा, विवेक गुणानुरागीपना के भाव जिसमें हंोते हैं, उसके अंतर में अन्य के गुणदर्शन और स्वयं के दोष के दर्शन होते रहते हैं। स्वयं के दोष दर्शन करने वाला जीव अति शीघ्रता से अपने जीवन को सुधारता है। दोष दर्शन करने वाला ही जीवन-दोषों से मुक्त बनता है। वह अपने गुण कभी नहीं देखता है। परंतु अपनी साधना में कमी कहॉं है? उसका शोधन करके उसको दूर करने का प्रयत्न करता है। अंतर में पश्र्चाताप की झरा बहती है। वह आत्म-प्रशंसा और प्रतिष्ठा का प्रेमी न होकर परमेश्र्वर और सद्गुरु में भक्ति-परायण होता है। अपनी भूल को स्वीकार करने वाला होता है। दोषों को छिपाने वाला जीव निकृष्ट बनता है। भूल का इकरार ही आत्म-विशुद्घि की उच्च भूमिका है। दोष को दोष मानने वाला अनेक पापों से बच जाता है। ज्ञानी एवं सत्य दर्शक ही दोष स्वीकार कर नम्रता के दर्शन कराते हैं, वह अपने को महान न मानकर तुच्छ मानते हैं जिससे वह आत्मा अभिमानी नहीं बनकर विनयवंत बनते हैं। बड़ों की आज्ञा और सत्कार-सन्मान करने वाले होते हैं।

दोष को स्वीकारना ही धर्मी जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। इससे जीव निर्मलता से शुद्घ जीवन जीने का प्रयास कर सकेगा। ऐसे जीवों के दोष उसे अंतर में कंटक के समान चुभते हैं। जो आत्मा दोष को स्वीकार नहीं करती है, वह दोष-सेवन के भाव वाले होते हैं। आत्मा को मलिन बनाकर कपट का सेवन करते हैं। बड़ों का अविनय, अपमान, तिरस्कार करके, जिन शासन की अवहेलना करके स्वयं के जीवन को दुःखी बनाते हैं। वे दूसरे के अवगुण को सुधारने की कोशिश करते हैं। जबकि दोष को   स्वीकार कर तुरंत पाप को क्षय किया जा सकता है। मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ा जा सकता है और पतन की राह से बचा जा सकता है।

शुद्घ साधनालक्ष्यी जीवन

दोष को स्वीकार करने वाले शुद्घ साधना लक्ष्यी वाले होते हैं। अजागृत अवस्था में या लाचारीवश दोष लगने पर वह उस दोष से पीछे मुड़ना चाहते हैं। अपने अंतर में खेद का अनुभव करते हैं। भावी जीवन की उज्ज्वलता के लिए दोष से बचकर शुद्घ साधना में जागृत बनते हैं। दोष को देखकर भयभीत बनता है। उनका अंतर पाप भीरू बनते हैं। दोष के स्थानों से बचकर रहने से उनकी आत्मा अप्रमत्त बनती। अप्रमत्त भाव में आत्मा के परिणाम उज्ज्वल बनते हैं। शुद्घ पंचाचार की पालना करने तत्पर होते हैं। दोष दर्शन से शुद्घ साधनामयी जीवन बनता है। वह पापों से हटकर आत्मभाव में स्थिर बनता है। उपसर्ग परिषहों में भी प्रसन्न रहकर उसको स्वीकार करता है। प्रतिकूलता से कभी घबराता नहीं है। उसका मनोबल पहाड़ के समान दृढ़ बनता है एवं उत्कृष्ट भाव से साधना करता है। इस साधना का नाम है प्रतिामण। जो शुद्घता को हर क्षेत्र में स्वीकारता है।

उत्तम पुरुषों का अनुकरण

शुद्घ साधनालक्ष्यी उत्तम साधक पुरुषों को दृष्टि के सामने रखता है। “”हे जीव, महापुरुष अनेक संकटों में भी धैर्य को धारण कर संयम मार्ग पीछे न हटे। शुद्घ साधना में अपना बलिदान दे दिया और शाश्र्वत सुख के स्वामी बन गये। उनका अनुकरण ही मेरी आत्मा को पूर्णता प्राप्त कराएगा। सभी दुखों से मुक्त होने में उनका अनुकरण ही प्रशस्त मार्ग है। इस मार्ग के बिना आत्मा का उत्थान नहीं होगा।” इस चिंतन के द्वारा वह अपनी आत्मा को दृढ़ बनाता है। सुसंस्कारी बनाता है। वह भगवत् दर्शन और सद्गुरु के आदर्श जीवन को सामने रखकर कार्य करता है। उन महापुरुषों के प्रति असीम समर्पण का पूज्यभाव रखता है। उनका ही अनुकरण करता हुआ, जीवन में साधना की पूर्णता हासिल करके शाश्र्वत सुख का स्वामी बनता है।

पर्युषण महापर्व की आराधना से हमें जीवन को उन्नत बनाने के लिए इन सारी बातों का चिंतन करके साधना में जुड़ना है। केवल बातों से पर्युषण पर्व सफल नहीं होगा। साधना के पथ पर चल कर हम अपने जीवन को उज्ज्वल बनायें। भवभ्रमण से मुक्त होकर शाश्र्वत सुख को प्राप्त करें। यही पर्युषण पर्व का शुभ मंगल संदेश है।

 

प्रस्तुतिः चंपालालजी भंसाली, चेन्नई

 

-तपस्वीराज पू. गुरुदेव श्री पारसमुनि जी म.सा.

 

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