प्रेम योग

कंस की मृत्यु के बाद मथुरा में उल्लास छा गया। उग्रसेन के पुत्र के गणप्रधान बनने पर कृष्ण की सलाह पर उन्होंने महल की सारी दासियों और दासों को मुक्त करके उन्हें राजकर्मी का दर्जा दे दिया। दासियों में एक सांवले रंग की कूबड़ी स्त्री भी थी। उसे साक्षात्कार में अनुपयुक्त पाकर निकाल दिया गया। वह रोती हुई कृष्ण के पास पहुंची। कृष्ण ने उसकी व्यथा समझकर कहा- “”अरे, तुम रो क्यों रही हो? तुम्हारा यह सुन्दर रूप देखकर तो किसी का भी मन डांवाडोल हो जाएगा। तुम रूप की रानी हो, रोकर इसका तिरस्कार न करो। मुझे बड़ा दुख हो रहा है, कहो, क्या बात है?”

कृष्ण के इस सम्मान से कुब्जा का मन बाग-बाग हो उठा। अभी तक किसी पुरुष ने उसको आदर नहीं दिया था। सब उसे कूबड़ी कहकर बुलाते थे। वह बोली- “”मुझे बेकार समझकर महल से निकाल दिया गया है। अब मैं कहां जाऊँ?”

“”तुम्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। मेरे पास रहो। सुन्दरता शरीर से नहीं, मन की होती है। तुम बहुत सुन्दर हो और मुझे प्रिय हो। वहां ब्रज में राधा थी, कई और गोपियां थीं। वे मुझसे बहुत प्रेम करती थीं। वे सुन्दर थीं, परन्तु मैं उनकी बाहरी सुन्दरता से नहीं, आन्तरिक सुन्दरता से प्रेम करता था। उनके सब बाहरी आवरण मैंने हटा दिए थे। तुम भी उनसे कम नहीं हो। गांव में भोलापन था, यहां शहर में वह भोलापन नहीं है, परन्तु तुम अन्य स्त्रियों से अलग हो। मैं जानता हूं कि तुम्हारे मन में कोई कलुष नहीं है। तुम चिन्ता न करो और सुख से रहो।” कृष्ण ने उसे आश्र्वस्त किया।

कुब्जा का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। शरीर में रोमांच हुआ। वह कृष्ण के पैरों की ओर झुकी तो कृष्ण ने उसे अपने हाथों से उठाकर गले लगा लिया और उसकी आंखों के आंसू पोंछ दिए। कुब्जा गद्-गद् होकर कृष्ण को एक बंकिम दृष्टि से देखते हुए उछलती हुई चली गई। वह कृष्ण से बेहद प्रेम करने लगी। कृष्ण के समक्ष उसके कपोल रक्ताभ हो उठते। कृष्ण हंसकर उसे आनन्द से भर देते।

कृष्ण के व्यक्तित्व में ऐसी आकर्षण शक्ति थी कि सब नर-नारी उनके प्रेम में खिंचे चले आते थे। उनमें से एक ऊधौ थे। वे ज्ञान-योग के पथिक थे और जगत का सत्य जानते थे। ऊधौ ने कृष्ण में कुछ ऐसा पाया कि वे उनके भक्त बन गये। कृष्ण ने भी ऊधौ को अपना अंतरंग सखा बना लिया। ऊधौ जानते थे कि ब्रज में बरसाने की राधा का कृष्ण से अद्वैत की दशा तक प्रेम था। अनेक गोपियां उन पर प्राण न्यौछावर करती थीं। माता यशोदा और नंद उनको बहुत चाहते थे। यह प्रेम एकपक्षीय नहीं हो सकता, परन्तु कृष्ण, ब्रज जाने का नाम ही नहीं लेते थे। एक बार उनसे नहीं रहा गया। उन्होंने कृष्ण से पूछा- “”बन्धु क्या बात है? आपको ब्रज की याद नहीं आती! आपने वहां इतना समय बिताया। ब्रजवासी आपसे बेहद प्रेम करते हैं। कभी उनका हाल-चाल लेने भी जा सकते हो। बहुत दूर भी नहीं है।”

ऊधौ की बात से कृष्ण एकदम गंभीर हो गये। उन्होंने कहा, “”ऊधौ, तुम ज्ञानी हो। इस शरीर का, जड़-चेतन, प्रकृति, जगत, आत्मा-परमात्मा का रहस्य जानते हो। यह सब संसार मिथ्या है। जो तत्व रूप है, उसे ज्ञान से प्राप्त किया जा सकता है, फिर बिछुड़ने का कैसा दुख, वह तो आत्म साक्षात्कार से उसी के अन्दर विद्यमान है। ऐसा नहीं कि मैं ब्रज को भूल गया हूं। मुझे उन सबकी बहुत याद आती है।” कहते हुए कृष्ण अतीत में खो गए।

उन्हें माखन-चोरी, गोपियों की शिकायत, यशोदा का ऊखल से बांधना और फिर गोपियों को डांट-फटकार उन्हें प्यार करना, बलराम का चिढ़ाना, गायें चराने दूर-दूर तक जाना, खेल-कूद, गेंद का यमुना में गिरना, राधा का भोलापन और उसका उत्कृट प्रेम, तरह-तरह की शरारत, गोपियों का स्नान करते वक्त उनके वस्त्र चुराना, मटकियां फोड़ना, नाच-गाना और वह तन्मय रास-लीला आदि अनेक प्रसंग मन में प्रत्यक्ष होकर झकझोर गए। ऊधौ ने उन्हें गमगीन देखकर सचेत किया, “”मैं जानता हूं कि ब्रज और अपनी प्रेयसी राधा को आप नहीं भूल सकते। इसलिए कह रहा हूं कि एक बार जाकर उनसे मिल आओ। इससे उन्हें भी तसल्ली होगी। राधा और गोपियां आपके विरह में बहुत दुखी होंगी।”

कृष्ण ने उत्तर दिया, “”ऊधौ, अब मैं वहां नहीं जाना चाहता। यहां भी मैं अधिक समय नहीं रहूंगा। मैं किसी भूमि या कालखण्ड से बंधा हुआ नहीं हूं। ब्रज तो राष्ट का बहुत छोटा भाग है। मैं राष्ट और विश्र्व की बात सोचता हूं। मैं मानवता की सेवा का व्रत ले रहा हूं। दुष्टों और अत्याचारियों का दमन और सत्य एवं न्याय की स्थापना कर राष्ट को एक सूत्र में बांधना मेरा उद्देश्य है। मैंने इसीलिए जन्म लिया है। यदि मैं अपने उद्देश्य में सफल हुआ तो मेरा जन्म सार्थक होगा। ऊधौ, तुम मेरा संदेश लेकर ब्रज चले जाओ। भौतिक शरीर से प्रेम करने वाली गोपियों को समझाओ कि उसमें रहने वाली आत्मा ही सत्य है। यह आत्मा उन्हीं की आत्मा का प्रतिरूप है, तब वियोग का दुख कैसा? अज्ञान ही दुख का कारण है। जब मनुष्य को पूर्ण ज्ञान हो जाता है, तब वह स्थितप्रज्ञ हो जाता है। आत्मा के आत्मा से मिल जाने से सांसारिक सुख-दुख नहीं रहता। ऊधौ तुम तो ज्ञान-योग के जानकार और साधक हो। तुम यह बात उन्हें अच्छी तरह समझा सकते हो। इसलिए, कल ही जाकर गोपियों को समझा आओ। लौटकर मुझे बताना, ताकि मेरी चिन्ता दूर हो सके।”

ऊधौ ने हामी भरकर कहा, “”ठीक है, मैं कल ही जाकर ब्रजवासियों को आपका संदेश देकर उनका दुख दूर करने की चेष्टा करूंगा।”

ऊधौ को अपने मन में कुछ अभिमान था कि वे ज्ञानी हैं। इस संसार की माया उन्हें नहीं मोह सकती। उन्होंने जगत की अनित्यता और एक ब्रह्म की नित्यता का सत्य समझ लिया है और उसी तत्व का साक्षात्कार अपने ही अन्दर करते हैं। उन्हें विश्र्वास था कि इस सीधी बात को गोपियां अवश्य समझ जाएंगी। इसलिए अपने मन में सारी तैयारी करके वे ब्रज में पहुंचे।

गोपियों और ग्वालों ने रथ देखकर समझा कि कृष्ण वापस आ गये हैं, परन्तु उसमें ऊधौ को देखकर उन्हें निराशा हुई। ऊधौ ने अपनी बात कई तरह से समझाने की चेष्टा की, परन्तु गोपियां अपने प्रेम में इतनी तन्मय थीं कि उल्टे उन्होंने ऊधौ को निरूत्तर कर दिया। उनका सीधा तर्क था कि “”अगर सब झूठ है तो कृष्ण, हम, तुम सब क्यों हैं, क्यों प्रेम होता है और प्रेम में सारे जगत का आस्तत्व मिट जाता है। अपने स्वयं का भी, क्योंकि प्रेम तद्रूप कर देता है?”

ऊधौ को मानना पड़ा कि गोपियों की बात भी सत्य है। ज्ञान में तो अधूरापन भी रह सकता है, क्योंकि अहं का त्याग इतना आसान नहीं। इसमें अनवरत साधना की आवश्यकता होती है, परन्तु प्रेम तो सरल भी है और अद्वैत की स्थिति का पर्याय भी। विरह का दुख तो साधना है, जिससे व्यक्ति मुक्ति अथवा परमानन्द की प्रतीति भी कर सकता है। अतः कर्मयोग के साथ, प्रेम योग और ज्ञान-योग का समन्वय ही वरेण्य है। कर्म और प्रेम में फलाकांक्षा न रहे, परमात्मा में पूर्ण समर्पण और कर्ताभाव का तिरोभाव ज्ञान का ही पर्याय है, जिसे गोपियों ने पा लिया है। मैं उन्हें नमन करता हूं।

दूसरे दिन ऊधौ ने कृष्ण को सारी बातें बताईं और अपनी कमजोरी भी स्वीकार की।

कृष्ण ने कहा, “”बस, अब मैं निश्र्चिंतता से जा सकूंगा। तुम कुब्जा का ध्यान रखना। वह मन की बड़ी अच्छी है।”

“”पर आप कहां जा रहे हैं और क्यों?” ऊधौ ने पूछा।

“”मैं सारे राष्ट का भ्रमण करना चाहता हूं। वह भी किसी राजकर्मी के रूप में नहीं। इससे मुझे अपने राष्ट की वास्तविक दशा का पता चलेगा और मेरे अनुभवों में वृद्घि होगी, परन्तु मैं न तो संन्यास ले रहा हूं और न छिपकर कोई काम करूंगा। शीघ्र ही मेरा घोष सारे राष्ट में सुनाई देगा। अभी तक मैं बंसी बजाकर प्रेम की धारा प्रवाहित करता था। अब मेरे हाथ में सुदर्शन चा होगा।”

ऊधौ ने कहा, “”आप अकेले क्यों जाएंगे! मथुरा के लोग भी आपको प्यार करते हैं। वे सब जा सकते हैं। मैं भी साथ में चलूंगा।”

“”नहीं ऊधौ, तुम इस बात की किसी से चर्चा भी न करना। एक दिन सारे संबंधी स्वयं जान जाएंगे और मैं उन्हें अपने पास बुला लूंगा।” कृष्ण ने ऊधौ को आश्र्वस्त करते हुए फिर कहा- “”तुम निश्र्चित रहो, मेरा बाल भी बांका नहीं होगा।”

रात का अंधेरा घिरने लगा था। दोनों मित्र यमुना की बहती हुई धारा का संवाद सुन रहे थे। वे दोनों अपनी-अपनी सोच में खोए हुए महल की ओर लौटे। कुब्जा ने उल्लासित होकर उनका स्वागत किया। ऊधौ, कृष्ण से विदा लेकर अपने आवास की ओर चल पड़े।

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