पढ़ी-लिखी जेनरेशन नेक्स्ट बन रही है आतंक की नई पौध – लोकमित्र

अब्दुल सुभान उर्फ तौकीर, आतिफ उर्फ बशीर, साकिब निसार, मुहम्मद शकील, जिया उर रहमान और सैफ। आखिर इन सबके बीच समानता क्या है? दिल्ली, अहमदाबाद, बंगलुरू, जयपुर और वाराणसी में हुए बम विस्फोटों से इन सबका रिश्ता है। आतंक के खूंखार सौदागर होने के साथ-साथ इन सबमें एक और बड़ी समानता है। ये सब युवा हैं। कुछ तो बिलकुल युवा हैं, जेनरेशन नेक्स्ट के सदस्य। साथ ही ये सब पढ़े-लिखे हैं। किसी के पास इंजीनियरिंग की डिग्री है तो किसी के पास एमबीए की। कोई आईटी में उस्ताद है तो कोई कम्युनिकेशन में। कुल मिलाकर ये तेज रफ्तार विकास कर रही उस भारतीय पीढ़ी का हिस्सा हैं जो अपनी कामयाबी का परचम बुलंद कर रही है।

लेकिन दुर्भाग्य से इनकी कामयाबी हिन्दुस्तान के लिए खौफ का सबब है क्योंकि ये आतंकवादी हैं और देश में आतंकवाद को रोजमर्रा की जीवनशैली का हिस्सा बना रहे हैं। लेकिन क्या इनके मां-बाप को पता है? शायद नहीं। शायद दूसरे आम हिन्दुस्तानी मां-बाप की तरह इनके मां-बाप भी इनसे बड़ी-बड़ी उम्मीदें करते होंगे। बड़े-बड़े सपने पाले होंगे। लेकिन ये एक ऐसे अंधे रास्ते पर चल निकले हैं जहां कभी उजाला नसीब ही नहीं होना। ये इंटरनेट सेवी हैं, गैजेट यूजर हैं, हर पल मोबाइल के जरिए देश और दुनिया के संपर्क में रहते हैं, लैपटॉप के बिना इनका काम नहीं चलता। इन तमाम आधुनिक जीवन के सरंजाम के साथ जीते हुए भी इनके दिमाग में जहर भरा है। भविष्य के सपने धुआं-धुआं हैं। खुशहाली इन्हें नापसंद है। हर तरफ ये रोते-बिलखते और खून से लथपथ लोग देखना चाहते हैं। आखिर इनकी इन वीभत्स ख्वाहिशों का गुनहगार कौन है? आखिर क्या वजह है कि तमाम आधुनिक जीवन जीते हुए, पढ़ाई-लिखाई करके भी ये नौजवान आतंकवाद की अंधी गली में उतर रहे हैं?

दिल्ली यूनिवर्सिटी में उर्दू विभाग के अध्यक्ष डा. इरतजा करीम के मुताबिक, ‘वाकई यह समझ से परे है कि तमाम आधुनिक पढ़ाई-लिखाई करने के बाद भी ये मजहबी उन्माद और आतंक की फौज का हिस्सा कैसे बन गए।’ लेकिन हैरानी चाहे जितनी जताई जाए मगर आधुनिक संस्थानों, विश्‍वविद्यालयों में पढ़ने-लिखने वाले मुस्लिम युवा अगर आतंक की अंधी गली में उतर रहे हैं तो इसमें बहुत बड़ा योगदान उस मुस्लिम बौद्धिक वर्ग का भी है जो समाज की तमाम समस्याओं से मुठभेड़ करने की बजाय तटस्थ रहना पसंद करता है। जो जरूरी मौके पर राय व्यक्त करने से बचता है और हमेशा द्विअर्थी या ढुलमुल टिप्पणियां करता है।

ज्यादातर मुस्लिम इंटलेक्चुअल देश के ज्वलंत मुद्दों पर द्विअर्थी या गोलमोल टिप्पणियां करते हैं। दिल्ली के बटाला हाउस इलाके में आतंकवादियों और पुलिस की आमने-सामने हुई मुठभेड़ के बावजूद ज्यादातर मुस्लिम इंटलेक्चुअल ने इस मुठभेड़ को या तो फर्जी बताया है या इस बारे में कुछ कहने की बजाय पुलिस को भ्रष्ट और एक कौम विशेष को बदनाम करने का दोषी करार दे रहे हैं। जबकि किसी भी सुरक्षा विशेषज्ञ ने पुलिस की इस मुठभेड़ पर अंगुली नहीं उठायी है। अगर यह मुठभेड़ नकली होती तो दिल्ली पुलिस का इतना काबिल और जांबाज अफसर इसकी भेंट न चढ़ जाता।

कोई भी युवक अपने समाज के बौद्धिकों से ही मानसिक दिशा हासिल करता है, भले वह उससे प्रभावित हो या न हो। उसे जानता हो या न जानता हो। यहां तक कि भले किसी को इस बात का एहसास हो या न हो पर मीडिया, संचार माध्यम और समाज का बौद्धिक व व्यावहारिक नेतृत्व करने वाले लीडर ही समाज के चरित्र निर्माण में अहम भूमिका अदा करते हैं। इनमें इंटलेक्चुअल की सबसे खास भूमिका होती है। उन्हें अपने दायित्व को समझना भी चाहिए। लेकिन मुस्लिम इंटलेक्चुअल इस मामले में दोहरी मनोस्थिति का शिकार है। वह दबी जुबान ऐसी हरकतों की आलोचना तो करता है लेकिन वह इस आलोचना को गड्ड-मड्ड संदर्भों के बीच रखता है। दबी जुबान से इस तरह की आलोचनाओं में वह फोकस नहीं रहता और इसे अमूर्त, नैतिक और धार्मिक सिद्धांतों के रूप में व्यक्त करता है जो किसी को संबोधित नहीं करती मगर अप्रत्यक्ष तौर पर सबके लिए होती है।

यह बौद्धिक वर्ग इन आलोचनाओं के पहले और बाद में मुसलमानों को विक्टिम के रूप में पेश करता है। साथ ही इस तरह से उनके सताए जाने की रूपरेखा बांधता है कि नौजवान वर्ग इस सताए जाने के विरूद्ध बदला लेने को प्रेरित हो जाता है और उसे अपना कृत्य एक कौम की भलाई के लिए जरूरी लगने लगता है। ऐसे में उन सैद्धांतिक तौर पर की जाने वाली आलोचनाओं का कोई व्यावहारिक असर नहीं दिखता जो कुरआन सम्मत भाईचारे को बढ़ाने का आग्रह करती हैं। साथ ही अपने मुल्क और समाज के लिए प्रतिबद्ध रहने की सीख देती हैं। सवाल है, क्या मुस्लिम इंटलेक्चुअल अपनी भूमिका को समझता नहीं है या समझबूझ कर भी वह पूरे मामले में एक रणनीतिक निषियता का शिकार दिखता है? अगर किसी कौम के विरूद्ध अन्याय हुआ है या हो रहा है तो एक लोकतांत्रिक देश में इस अन्याय का जोरदार विरोध करने का हक हर किसी को है। लेकिन जब कुछ लोग देश और समाज के विरूद्ध आतंक का कहर बरपाएं तो उतने ही जोरदार ढंग से कौम विशेष के इंटलेक्चुअल को इनकी मजम्मत भी करनी चाहिए। एक मामले को दूसरे से जोड़कर या किसी टिप्पणी को किसी दूसरे संदर्भ की पृष्ठभूमि में रखकर व्यक्त करना कहीं न कहीं आतंक जैसे घृणित कृत्य को चालाकी से या मौन निषियता के तहत दिया जाने वाला समर्थन ही है। दो बातों को हमेशा किसी तीसरे संदर्भ से जोड़कर देखना, दोनों के साथ नाइंसाफी करना है।

मुस्लिम इंटलेक्चुअल छूटते ही किसी भी आतंकी वारदात के गुनहगार को पुलिस की साजिश का शिकार बता देता है। इस राय की पृष्ठभूमि में गुनहगार समाज के एक बड़े तबके के लिए गुनहगार की बजाय गुनाह का शिकार हो जाता है और पूरी कौम को लगने लगता है कि उनके साथ नाइंसाफी हो रही है। इंटलेक्चुअल अपनी दोहरी मानसिकता के कारण न सिर्फ गुनहगारों की फौज में इजाफा करता है क्योंकि उन्हें अपने किए से जो अपराधबोध होना चाहिए, उसे बड़ी चालाकी से इंटलेक्चुअल इंसाफ का तकाजा बना देते हैं। नतीजा यह होता है कि न तो गुनहगार को अपने गुनाह का अपराधबोध होता है और न ही उस गुनाह से कौम विशेष के दूसरे लोग खासतौर पर नौजवान हतोत्साहित होते हैं। उल्टे इंटलेक्चुअल की दोगली चाल के चलते एक गुनहगार के पकड़े जाने या कानून के शिकंजे में जाने पर सैकड़ों दूसरे युवा उसकी जगह लेने के लिए इससे प्रेरित हो जाते हैं।

अतः यदि वास्तव में मुस्लिम इंटलेक्चुअल देश में अमन-चैन बहाल करने को अपनी जिम्मेदारी समझते हैं तो सबसे पहले उन्हें आतंक की वारदातों के लिए गुनहगार के रूप में पकड़े जाने वालों को मासूम और एक कौम विशेष के विरुद्ध पुलिस तथा मीडिया का दुष्प्रचार कहना बंद करना होगा। हर मुठभेड़ को जाली और अपनी कौम के विरुद्ध साजिश बताना बंद करना होगा। इसके लिए दूसरे मौकों पर पुरजोर ढंग से अपनी बात रखी जा सकती है। इसके लिए मीडिया में और समूचे समाज में जन आंदोलन छेड़ा जा सकता है। लेकिन जब कोई पुलिस किसी गुनाह के लिए किसी को पकड़े, उस समय बिना उनके बारे में कोई ठोस सबूत और जानकारी के सिर्फ समानधर्मा होने के नाते मुस्लिम इंटलेक्चुअल को उनके प्रति सहानुभूति और उनके गुनाह को पुलिस की साजिश बताना बंद करना होगा। वरना देश में अविश्‍वास की खाई चौड़ी होती जाएगी।

अगर मुस्लिम इंटलेक्चुअल को लगता है कि पुलिस और मीडिया जानबूझकर मुसलमानों को आतंकवादी साबित करने की कोशिश कर रही है तो इसके लिए मुस्लिम समाज को लोकतांत्रिक तरीके से जन आंदोलन छेड़ना चाहिए और इसे मुस्लिम बौद्धिकों को लीड करना चाहिए। लेकिन उनके द्वारा आतंकवादियों की हर साजिश को पुलिस की साजिश बताना सही नहीं है। मुस्लिम इंटलेक्चुअल्स को यह समझना होगा और अपनी राय व जिम्मेदारी को विश्‍वसनीय तथा संवेदनशील बनाना होगा तभी जेनरेशन नेक्स्ट अपने सपनों की कब्र खोदकर आतंक की गली में उतरने से बाज आएंगे। वरना पढ़े-लिखे और कामयाबी की बुलंदियां हासिल करने को आतुर एक कौम विशेष के युवा आतंक के सौदागर और समाज के लिए खलनायक बनकर रह जाएंगे।

 

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