बदलाव

स्कूल के वार्षिकोत्सव की भीड़-भाड़ से जब मैं बाहर निकला, तब विनीत भाव से हाथ-जोड़कर खड़े पं. गेंदालाल को मैं कुछ देर तक पहचान नहीं पाया। बीस साल का अरसा काफी बड़ा होता है। फिर इस रूप में मैं कभी पं. गेंदालाल की कल्पना नहीं कर सकता था। उनके सिर और दाढ़ी के बाल खिचड़ी हो गए थे। बढ़े हुए बालों में सिर की लम्बी चोटी का पता नहीं चलता था। कनपटियों की हड्डियां उभर आयी थीं और गालों में गड्ढे पड़ गये थे। उनकी धोती भी काफी गन्दी थी, जो दो-एक जगह फट गयी थी। हां, उनके हाथ का बटुआ उसी प्रकार बरकरार था, परन्तु सुपारी कतरने की प्रिाया समाप्त हो गई थी।

मेरे मानस पटल पर पं. गेंदालाल का बीस वर्ष पहले का रूप कौंध गया। उस वक्त मैं पहली बार उस गांव के स्कूल का प्रधानाध्यापक होकर आया था। तब पक्की सड़क नहीं बनी थी। सड़क के किनारे एक कच्चे घर में अपना बक्सा और बिस्तर रखकर मैं सात मील पैदल चल कर पहुंचा था। जुलाई का महीना था। पहली वर्षा हो चुकी थी, जिसके फलस्वरूप सेर-सेर मिट्टी पैरों में चिपक गई थी। चलते-चलते पैर मन-मन भर के हो गए थे। शाम के धुंधलके में जब मैं स्कूल के सामने खड़ा था, तब वहां गहरी खामोशी छायी हुई थी। बस्ती वहां से फिर भी एक मील दूर थी। मैं थक कर चूर-चूर हो गया था। मैंने निराशा से चारों ओर देखा था। उसी वक्त पं. गेंदालाल से मेरी पहली मुलाकात हुई थी। पं. गेंदालाल की ऊंची एवं स्वस्थ गोरी देह-यष्टि में एक विशेष भव्यता थी। सिर पर लम्बी चोटी, माथे पर त्रिपुण्ड, झकाझक कुर्ता-धोती, गले में गमछा और पैरों में खड़ाऊ। जरीदार बटुए से सुपारी निकाल कर कतरते हुए आ रहे थे। उनके व्यक्तित्व को देखकर कोई अपरिचित नहीं कह सकता था कि पढ़ने-लिखने के मामले में उनका दिमाग एकदम साफ है। उस वक्त मैं भी नहीं जान पाया था।

पं. गेंदालाल देवदूत की भांति मेरे पास आये थे। औपचारिक परिचय के बाद जब उन्हें मालूम हुआ कि मैं वहां प्रधानाध्यापक होकर आया हूं, तब वे विशेष आत्मीयता से गद्गद हो उठे थे। पास में ही उनका बाड़ा था। उसी के अन्दर तीन-चार कमरों वाला कच्चा घर, बाड़े में बेतरतीबी से लगी हुई कुछ तरकारियां बैंगन, मिर्च और लौकी की बेल, अमरूद और आम के दो-चार पेड़, कनेर और गेंदे। वे मुझे अपने घर ले गए थे। चारपाई डाल कर दरी बिछा दी थी। फिर हाथ-मुंह धोने के लिए कुएं से एक बाल्टी पानी ले आये।

पं. गेंदालाल के घर में कोई नहीं था। उन्होंने बताया था कि दो साल पहले उनके पिता दिवंगत हो गए थे। मां पहले ही संसार छोड़ चुकी थी। छोटा भाई मैटिक करने के बाद नौकरी पर चला गया था। पिता पण्डिताई करते थे। चार-पांच बीघा जमीन थी, जिसे बंटाई पर उठा देते थे।

पं. गेंदालाल ने पहले पानी के साथ गुड़ खाने को दिया था, फिर चूल्हा जलाकर दाल-चावल चढ़ा दिये थे। आसमान बादलों से अंट गया था। चारों ओर के ठोस अंधेरे के बीच पं. गेंदालाल की ढिबरी की रोशनी बेजान-सी सिमट कर रह गई थी। चूल्हे में सूखी लकड़ियां जल रही थीं। पं. गेंदालाल ने हाथ ऊपर उठाकर कहा था, “”अपना नीक किहिन, के बेरा रहत हियां पहुंच गये ना।”

मैंने उनका आशय समझ कर उत्तर दिया था, “”हां, अंधेरे में बहुत दिक्कत होती है।”

“”या तो हैइये है, पे वा बगैचा केर जांघा बहुतै खराब है।”

“”क्यों ?”

“”उहां भूतन केर निवास है।” पं. गेंदालाल ने स्पष्टीकरण दिया था।

मैं उनकी बात पर हंस पड़ा था। मुझ पर अविश्र्वास की दृष्टि डालकर उन्होंने फिर भूतों के कई किस्से सुना डाले थे। मैंने विशेष तर्क नहीं किया था और सबेरे की प्रतीक्षा में सोने की चेष्टा करने लगा था। वर्षा होने लगी थी। वर्षा की टप्प-टप्प और जानवरों की आवाजों से मुझे ऐसा ही लग रहा था, जैसे उस अंधकार में कई भूत नाच रहे हों।

सबेरा बहुत सुहावना था। दूर तक फैला हुआ मैदान, फिर पहाड़ और जंगल, सब जगह मनोहर हरीतिमा छायी हुई थी। मेरा रात्रि का भय समाप्त हो गया था। जब मैं दिशा हेतु जाने लगा था, तब पं. गेंदालाल ने सचेत करते हुए कहा था, “”बहुत दूरी न जाब। कभौं-कभौं गुलबाघ आवत है।”

मैं अपने सामान और निवास की चिन्ता कर रहा था। परंतु गेंदालाल ने यह चिंता बड़ी आसानी से हल कर दी थी। उनका बटाईदार धन्नू आया था। सिर पर फटा साफा, घुटनों तक चिथड़े-चिथड़े होती हुई धोती और नंगे बदन। पं. गेंदालाल ने उसे मेरा सामान लाने के लिए भेज दिया था। फिर मुझसे बोले थे, “”अपना यहैं रहवा। पहले जौन हेडमास्टर रहे, बेऊ यहै रहत रहे। बस्ती मां अपना खां नीक न रही।”

इसके बाद पं. गेंदालाल ने अपने मकान का एक अलग कमरा मुझे दे दिया था। एक चारपाई वहां डलवा दी थी। मुझे खाने की झंझट से भी मुक्त कर दिया था। बस्ती के तमाम लोग दरबार के लिए आने लगे थे। पं. गेंदालाल को इसमें बड़ा आनन्द आता था। वे घंटों लोगों की बातें सुनते रहते थे। उनमें बाल-सुलभ कौतूहल था, इसलिए तरह-तरह की बातें पूछते रहते थे। उनमें मानवीय संवेदनशीलता की कमी न थी। परंतु उनके स्वभाव की एक-दो बातें ऐसी थीं, जिन्हें जीवन की सफलता की दृष्टि से उपयुक्त नहीं कहा जा सकता था। पहली बात यह है कि वे बेहद आलसी थे। दाल-चावल उबालने के अलावा वे और कोई काम नहीं करते थे। दूसरे उनमें जातिगत संस्कार बहुत जबर्दस्त थे। ब्राह्मण होने के नाते वे हल की मूठ पकड़ना अपना अपमान समझते थे, पर यह सब मेरी और उनकी व्यावहारिक मैत्री में बाधक नहीं बना था।

पं. गेंदालाल को आज इस रूप में देखकर मुझे गहरा झटका लगा। गांव में काफी परिवर्तन हो गया था। सड़क पक्की हो गई थी और उस पर बस-स्टॉप बन गया था। वहां चाय-पान की दुकानें हो गई थीं। स्कूल का दर्जा भी हायर सेकेण्डरी का हो गया था। उसकी बाउण्डरी की बगल से एक सड़क पुरानी बस्ती की ओर बन गई थी, उसके किनारे कई पक्के मकान खड़े हो गये थे। मैं सोचने लगा कि गांव की तरक्की के बावजूद वह कौन-सी बात है, जिसने गेंदालाल जैसे लोगों को उल्टे दरिद्र बना दिया है। यह सोचता हुआ मैं पं. गेंदालाल के बाड़े की ओर बढ़ने लगा।

मैंने औपचारिकतावश पं. गेंदालाल से पूछा, “”कहिये पण्डित जी क्या हाल हैं?”

पं. गेंदालाल के चेहरे पर दीनता छा गई। बातों से मालूम हुआ कि मेरे जाने के बाद पं. गेंदालाल ने शादी कर ली थी। दो बच्चे हैं। पहली लड़की और दूसरा लड़का। लड़की की शादी कर दी है। लड़का छोटा है, जो पांचवी में पढ़ रहा है। वे कोई सा भी खुदरा काम कर लेते हैं। दिन पर दिन तंगी बढ़ती जा रही है। बातों में ही पं. गेंदालाल ने कहा, “”कौनों नौकरी-चाकरी मिल जात, तो गुजर होयैं लागत।” और निरुत्तर होकर मेरी ओर ताकने लगे। उनका बाड़ा आ गया, जो सिकुड़ कर बहुत छोटा-सा हो गया था। उनके घर की दीवारें सलामत तो थीं, परंतु छप्पर जर्जर हो गया था। सामने के दालान में ही पं. गेंदालाल की पत्नी बीड़ी बना रही थी। उसने अपने दोनों पैर फैला रखे थे, जिनके बीच में तम्बाकू और पत्तियों के बण्डलों से भरा सूपा था। उसके मुख का रंग बदरंग हो गया था।

उसका शरीर सूखी हुई आम की गुठली की तरह दुबला और उपेक्षित था। धोती में जगह-जगह पैबन्द लगे थे। पास रखी चारपाई में धज्जियां लटक रही थीं। घर के उस वातावरण में वह दरिद्रता की देवी प्रतीत हो रही थी। बीड़ी बनाते हुए वह आंधी के कमजोर वृक्ष की तरह बार-बार हिल रही थी। पता नहीं वह कब टूट जाये। निस्संदेह उसे बहुत कमजोर अवलम्ब मिला था। मुझे देखकर वह हड़बड़ा उठी और अपनी लज्जा छिपाने के लिए भीतर चली गई। पं. गेंदालाल सुपारी लाकर कतरने लगे।

अचानक मेरा ध्यान बगल के पक्के मकान की ओर गया। यह मकान पं. गेंदालाल के बाड़े की पुरानी जगह पर ही बना हुआ था। मैंने पं. गेंदालाल से कौतूहलवश पूछा, “”यह मकान किसका है?”

पं. गेंदालाल के मुख पर एकदम मायूसी छा गयी। वे दबी जुबान से बोले, “”अपना धन्नू खें जानते होब। ओही कर आये।”

धन्नू का ध्यान मेरे दिमाग से एकदम मिट गया था। कुछ देर बाद मेरे मानस में सिर पर फटा साफा बांधे और फटी धोती पहने धन्नू का चित्र घूम गया। धन्नू अक्सर पं. गेंदालाल के पास आता था और “पायलागी पण्डित जी’ कह कर उकडूं जमीन पर बैठ जाता था। पं. गेंदालाल की जमीन के अलावा वह और भी जमीन बंटाई पर लेता था। जी तोड़ मेहनत करता था। जाड़ा हो, गर्मी हो या बरसात खेतों की जुताई, बुवाई, निदाई, कटाई आदि सब काम मशक्कत से करता था। उसके परिवार के लोग भी मेहनत करते थे। इसी कारण उसके खेतों की पैदावार अन्य खेतों से अच्छी होती थी। उसकी ईमानदारी के कारण खेतों के मालिक भी खुश रहते थे। कुछ समय बाद उसने खुद थोड़ी-सी जमीन खरीद ली थी। वह पढ़ा-लिखा नहीं था, लेकिन उन्नत खेती की बातों को हमेशा समझने की कोशिश करता था। अच्छी जुताई, अच्छे बीज, खाद, सिंचाई आदि का महत्व वह समझने लगा था। इसी कारण उसकी स्थिति अच्छी होती चली गई। उसने पं. गेंदालाल की जमीन भी खरीद ली है, क्योंकि यह जमीन उसकी जमीन के पास थी। इसलिए अच्छा चक बन गया। उसने सिंचाई के लिए कुआं खुदवाया। इसके बाद फसलों के हेर-फेर और अच्छे बीज के प्रयोग से जमीन सोना उगलने लगी। पहले उसे बटाई में मालिकों को आधा हिस्सा देना पड़ता था। अब पूरा मिलने लगा। अधिक उपज के लिए वह अक्सर कृषि विभाग और ब्लॉक के कर्मचारियों से मिलता रहता। खेती को रोगों और कीटाणुओं से बचाने के लिए दवाएँ भी छिड़कता। इस तरह हर बार उसे अच्छी फसल मिलती थी। इससे उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी होती गयी और वह ग्राम-पंचायत का पंच बन गया।

पं. गेंदालाल की बातें सुनकर धन्नू से मिलने की मेरी इच्छा जाग उठी। मैंने जब पं. गेंदालाल से अपनी इच्छा प्रकट की तो उन्होंने कहा, “”अपना नहीं पहचानेका? वा तो स्कूलई में रहा। भाषणों दिहिन रहा।”

मुझे ध्यान आया कि धनिकलाल नाम के एक व्यक्ति ने छोटा-सा भाषण दिया था। सफेद झकाझक धोती-कुर्ता और जाकेट पहने हुए। धन्नू से मिलने की मेरी उत्कंठा और प्रबल हो उठी।

धन्नू उर्फ धनिकलाल घर पर ही मिल गये। उन्होंने बड़ी विनम्रता से हमारा स्वागत किया। उनके परिवार से भी मेरा परिचय हुआ। उनका बड़ा लड़का बी.एस.सी. ए.जी. करके खेती का काम कर रहा था। लड़की दसवीं कक्षा में पढ़ रही थी। उनका विचार था कि उसे डॉक्टरी पढ़ा कर ही शादी करेंगे। धनिकलाल और उनकी पत्नी खाली समय में दरियां और गलीचे बनाते थे। उनकी बैठक में तख्त के ऊपर भी एक सुन्दर गलीचा बिछा था। धनिकलाल से मिलकर मेरा मन बाग-बाग हो उठा। मैंने पण्डित गेंदालाल से पूछा, “”आपका छोटा भाई आपकी मदद नहीं करता?” “”वा अलग हो गया है। हियां कभौ नहीं आवे।” उन्होंने मायूसी से उत्तर दिया।

पं.गेंदालाल की दशा से मैं दुःखी था। परंतु जानता था कि इसके लिए वे खुद जिम्मेदार हैं। दूसरा कोई उनका इलाज नहीं कर सकता। यदि वे अपने थोथे अभिजात्य को उतार फेंकें और अपनी श्रम की धारणा को बदल दें, तो उनका तथा उनके परिवार का भविष्य सुखमय हो सकता है, लेकिन यह कैसे हो, मेरी समझ में नहीं आ रहा था।

मैंने धनिकलाल से कहा, “”आप अपने साथ गांव की भी कुछ भलाई कीजिए। यहां दरी-गलीचा लघु उद्योग केन्द्र खोलिए। जिले में इसका ऑफिस खुल गया है। उससे आपको तकनीकी जानकारी मिल जायेगी। इससे गांव के सौ-पचास लोगों की जीविका भी चलने लगेगी। मैं कुछ दिनों में रिटायर होने वाला हूं। मैं भी काम कर लूंगा आपके यहॉं।”

धनिकलाल ने मेरी बात गौर से सुनी। कुछ शंकाओं के बाद उन्होंने मेरा सुझाव मान लिया। मैंने पं. गेंदालाल की ओर देखकर चुटकी ली, “”क्यों पण्डित जी, क्या ख्याल है? आपका काम तो भिक्षा मांगने से भी चल सकता है।” पं. गेंदालाल पर मेरी बातों का काफी प्रभाव पड़ चुका था। वे अपनी थोथी रूढ़िवादिता की निस्सारता समझ चुके थे। लज्जित होकर कहने लगे, “”मैं मूरख रहयौं। अपना केर बात नहीं मान्यों, तो भुगतत रहयौं। अपना मोर आंखे खोल दिहिन है।”

पं. गेंदालाल की बात सुनकर मैं खुशी से झूम उठा।

– डॉ. परमलाल गुप्त

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