बीती ताहि बिसार दे

बीतने को तो सन् 2008 जैसे-तैसे बीत गया और सन् 2009 का कारवाने-सफर शुरू भी हो चुका है। “बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेय’ की कहावत के तहत हम 2009 का तहे-दिल से इस्तकबाल करने को भी तैयार बैठे हैं। लेकिन सच यह भी है कि मानस-पटल पर खींची गई कुछ खरोचों की लकीरें इस तरह चस्पा हैं कि इन्हें मिटाने अथवा भूल जाने की सारी कोशिशें निरर्थक सिद्घ होती हैं। बीते साल ने राष्ट को उपलब्धियों के नाम पर कम नहीं दिया लेकिन उसकी नकारात्मकताओं के दंश से उपजी पीड़ा पूरे साल हमें प्रताड़ित करती रही है। इस दंश की पीड़ा को भूल जाना श्रेयस्कर भी है और ़जरूरी भी, लेकिन आसान तो बिल्कुल ही नहीं है। हम यह कैसे भूल जाएं कि इस बीते साल की शुरुआत ही एक ऐसे दिन से हुई थी, जिसकी छाया की भयावहता पूरे साल हमारे राष्टीय आकाश पर छाई रही और 2009 के सुस्वागतम् का जश्र्न्न भी उसी छाया से ग्रस्त है। यह आशंका बनी हुई है कि न जाने किस ओर से झपट्टा मार कर कोई आतंकी साया हमारी खुशियों को अपने खूनी पंजों में दबोच ले।

मन बार-बार इस तरह की आशंकाओं को ़खारिज और निरस्त करता है, लेकिन ये हैं कि जबरदस्ती जेहन के दरवाजे पर दस्तक देने लगती हैं। सुस्वागतम् का जश्र्न्न पिछले साल भी ऐसा ही था, जब ऐन पहली जनवरी को रामपुर (उत्तर प्रदेश) के सीआरपीएफ कैम्प पर आतंकवादियों ने हमला कर सुरक्षा बल के 8 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। नये साल के शुभागमन की खुशियॉं बटोरता सारा देश तब इन दुर्दान्त हौसलों के सामने काठ के पुतले की तरह संज्ञाहीन, अवाक् खड़ा रह गया था। फिर यह दुर्दान्तता पूरे साल एक सिलसिला बनी रही और महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर राष्ट को लगातार कुचलती रही। लगातार हमारी असहायता दुनिया के सामने रोती-गिड़गिड़ाती रही और आतंकवादी दानव से मुक्ति दिलाने की याचना करती रही। आतंकवादियों ने हमारे बल-पौरुष को इस रूप में आजमाया कि हम हद से हद उसके खिलाफ कूटनीतिक लड़ाई भर लड़ पाएंगे। परिणाम यह हुआ कि 1 जनवरी के रामपुर सीआरपीएफ कैम्प पर हुए आतंकी हमलों के बाद भी वे आतंकी वारदातों की मुहिम चलाते रहे और हम कूटनीति के रास्ते इससे निजात पाने की तजवी़ज तलाशते रहे। पहले रामपुर और उसके बाद जयपुर, बंगलुरु, अहमदाबाद, दिल्ली, मालेगांव, गुवाहाटी तथा साल बीतते-बीतते 26 नवम्बर को देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई पर हमला, यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि बीता साल जिस आतंक के साये में गुजरा है, उस साये की जहरीली सांसों के असर से 2009 को भी बाबस्ता होना पड़ेगा।

इस हालत में “बीती ताहि बिसार दे’ कहने को तो कहा जा सकता है, लेकिन यह ़खौफ देश के आम आदमी के दिलो-दिमाग से इतनी जल्दी उतर जाएगा, ऐसा स्वीकार कर पाना खासा मुश्किल है। मुश्किल इसलिए भी समझ में आता है कि देश की सियासत या तो आतंकवादी सच्चाईयों से आँखें चुरा रही है, अथवा वह इस त्रासदी को अपने वोट-बैंक के तराजू पर तौलकर लाभ-हानि का जमा-खर्च लिखने में मशगूल है। ऐसा न होता तो आतंकवाद जैसे मुद्दे को ये सियासी लोग हिन्दू-मुसलमान के चश्मे से देखने की कवायद नहीं करते। मुंबई हादसे के बाद जब सर्वसम्मति से एक संकल्प प्रस्ताव संसद ने पास किया तो यह ़जरूर समझ में आया कि देश की सियासी जमातें शायद इस मुद्दे को राष्टीय मुद्दा मान कर इस पर राजनीति करने से परहेज करें। लेकिन लाख कसमें खाने के बावजूद सियासी रहनुमाओं ने राजनीतिक एकता के इस शीराजे को तिनका-तिनका बिखेरने में कोई देर भी नहीं की। सुरक्षा की गारंटी देने वाली सरकार की ओर से शुरू में यह ़जरूर प्रदर्शित किया गया था कि मुंबई हादसे के बाद शायद वह कोई कड़ा और निर्णायक कदम उठावे। तब यह विश्र्वास भी बनने लगा था कि सरकार आतंकवाद के स्रष्टा पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए उस पर कोई बड़ा हमला भले न करे, लेकिन वह पाक-अधिकृत कश्मीर में स्थापित आतंकवादी प्रशिक्षण-शिविरों पर हवाई हमला कर उन्हें नष्ट करने का निर्णय ले सकती है।

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मुंबई हादसे को हुए एक महीने से ऊपर हो रहे हैं। इस दरम्यान सारा उबाल अब सतह पर आ गया है। इस मुद्दे पर पाकिस्तान को घेरने की भारत की सारी कूटनीति धरी की धरी रह गई। पाकिस्तान के छल-छद्म के सामने हमारी सारी सच्चाईयों को नतमस्तक होना पड़ा है। हमारे सियासी रहनुमा शायद ही इस बात को स्वीकार करें कि उनकी सोच और नीतियों ने इस महान देश के शौर्य और परााम को कुंठित कर दिया है। आतंकवादी हौसलों के सामने हमने सिर्फ स्यापा करने, जिसे वे अपनी भाषा में कूटनीति कहते हैं, की ही नीति अपनाई है। लड़ाई हमारी है और इसे हमें ही लड़ना होगा, इस वास्तविकता को नजरअंदाज कर हम विश्र्व-समुदाय के सामने गुहार लगाते हैं। प्रतििाया में विश्र्व-समुदाय समर्थन और सहानुभूति का एक रूमाल हमें आंसू पोंछने के लिए थमा देता है, और हम इसे इतिश्री मान लेते हैं। हर आतंकी घटना के बाद सुरक्षातंत्र को मजबूत करने की कवायद शुरू होती है। लेकिन अब तक ऐसा कोई सुरक्षा-कवच तैयार नहीं किया जा सका जिसे भेदने में आतंकवादी ताकतें समर्थ न हुई हों। गुजरा साल 2008 राष्टीय-पटल पर उभरने वाली इस त्रासदी का प्रत्यक्ष गवाह रहा है। आने वाले वर्ष 2009 के प्रति अनंत शुभकामनायें ज्ञापित करते हुए भी यह कहने की हिम्मत नहीं बनती कि “बीती ताहि बिसार दे…’

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