भगत सिंह की फांसी

भगत सिंह और उनके दोनों साथियों को फांसी लगने ही वाली है, यह सबको पता था। लेकिन उसे किसी तरह कुछ दिन के लिए रोकना चाहिए, जिससे व्यापक रूप में उन्हें फांसी से बचाने का प्रयत्न हो सके। यह लाहौर षडयंत्र केस-डिफेंस कमेटी के कानून-विशारदों की राय थी। इसका एक ही उपाय था कि भगत सिंह और उनके साथी गवर्नर से दया की प्रार्थना करें, पर भगत सिंह कभी भी इसके लिए तैयार नहीं हो सकते, यह भी सब जानते थे।

श्री प्राणनाथ मेहता एडवोकेट की बात भगत सिंह मानते थे। वे 19 मार्च, 1931 को जेल में भगत सिंह और उनके दोनों साथियों से मिले। घुमा-फिराकर उन्होंने उनसे मर्सी-पिटीशन (दया-प्रार्थना) की बात कही और विश्र्वास दिलाया कि यदि आप लोग हॉं कह दें, तो हम पिटीशन की भाषा ऐसी कर देंगे कि उससे आपका जरा भी सम्मान कम न हो। दूसरे दोनों साथी तो इससे नाराज हुए, पर भगत सिंह ने इसे मान लिया और कहा, अच्छी बात है, तुम तैयार कर लाओ मर्सी-पिटीशन।

श्री प्राणनाथ खुशी-खुशी लौटे और कई कानून-विशारदों के साथ रात भर “मर्सी-पिटीशन’ का डाफ्ट बनाते रहे। दूसरे दिन, 20 मार्च, 1931 को जब वे जेल गये तो भगत सिंह ने कहा, हमने तो भेज भी दिया गवर्नर, पंजाब को अपना मर्सी-पिटीशन” कहकर उन्होंने एक पत्र उनके हाथ में रख दिया।

उस महत्वपूर्ण दया-प्रार्थना के कुछ मार्मिक अंश इस प्रकार हैं –

हमारे विरुद्घ सबसे बड़ा दोष यह लगाया गया है कि हमने सम्राट् जॉर्ज पंचम के विरुद्घ संघर्ष किया है। न्यायालय के इस निर्णय से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं, प्रथम यह कि अंग्रेज जाति और भारतीय जनता के मध्य एक संघर्ष चल रहा है और दूसरी यह कि हमने निश्र्चत रूप से उस युद्घ में भाग लिया है। अतः हम युद्घबन्दी हैं।

हम यह कहना चाहते हैं कि युद्घ छिड़ा हुआ है और लड़ाई तब तक चलती रहेगी, जब तक शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है। चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति हों या अंग्रेजी शासक या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी रखी हुई है। चाहे शुद्घ भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।

बहुत सम्भव है कि युद्घ भयंकर रूप ग्रहण कर ले। यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा, जब तक समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या ाान्ति नहीं हो जाती। मानव-सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नहीं हो जाता।

जहां तक हमारे भाग्य का संबंध है, हम बड़े बलपूर्वक आपसे यह कहना चाहते हैं कि आपने हमें फांसी पर लटकाने का निर्णय कर लिया है, आप ऐसा करेंगे ही, आपके हाथों में शक्ति है और आपको अधिकार भी प्राप्त हैं। परन्तु इस प्रकार आप जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्घान्त ही अपना रहे हैं और आप उस पर कटिबद्घ हैं। हमारे अभियोग की सुनवाई इस वक्तव्य को सिद्घ करने के लिए पर्याप्त है, कि हमने कभी कोई प्रार्थना नहीं की और अब भी हम आपसे किसी प्रकार की दया की प्रार्थना नहीं करते। हम केवल आपसे यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही एक न्यायालय के निर्णय के अनुसार हमारे विरुद्घ, युद्घ जारी रखने का अभियोग है, इस स्थिति में हम युद्घबन्दी हैं, अतः इस आधार पर हम आपसे मांग करते हैं कि हमारे प्रति युद्घबन्दियों जैसा ही बर्ताव किया जाये और हमें फांसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाये।” यह दया-प्रार्थना क्या है? यह आकाश में टूटता हुआ मरण का धूमकेतू है। यह पृथ्वी में उगता हुआ जीवन का कल्पवृक्ष है। इतिहास में राणा प्रताप ने मरण की साधना की थी। उन्हें मालूम था, दिल्ली सम्राट अकबर की महाशक्ति से टक्कर असम्भव है। पर कहते क्या थे महाराणा प्रताप? कहते थे, जब मनुष्य की तरह सम्मान के साथ जीना असम्भव हो, तब मनुष्य की तरह सम्मान के साथ मर तो सकते हैं।” बिना कहे ही शायद उनके मन में था कि मनुष्य की तरह सम्मान से मर कर हम आने वाली पीढ़ियों के लिए जीवन का द्वार खुला छोड़ें, कुत्तों की तरह दुम हिलाकर जीते हुए उसे बंद न कर जायें। भगतसिंह यही तो कर रहे थे। फांसी के फन्दे की जगह गोली का धड़ाका मांगकर वे एक “नागरिक की मृत्यु’ को “राष्ट्रवीर की मृत्यु का रूप दे रहे थे।

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