भारत में उच्च शिक्षा की समस्याएँ

इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दौर में भारत की शिक्षित युवा पीढ़ी ने सूचना और संचार तकनीक के क्षेत्र में उसे अत्यंत सम्मानपूर्ण स्थान दिलाया है। विकसित नई कार्य संस्कृति के तहत भारत की वैज्ञानिक तथा तकनीकी क्षेत्र की क्षमताओं को अन्तर्राष्टीय स्तर पर भरपूर सराहना मिल रही है। सारा विश्र्व आज भारतीयों के “ज्ञान समाज’ के निर्माण में किये जाने वाले योगदान से अभिभूत है। ऐसी कोई बड़ी अन्तर्राष्टीय कंपनी या कारपोरेशन नहीं है जो अपने यहॉं और अधिक संख्या में भारतीय युवाओं को लेने की तत्परता न दिखा रही हो। आ़जादी के समय भारत का साक्षरता प्रतिशत 20 के आसपास था। आज शिक्षा के प्रचार-प्रसार के चलते यह प्रतिशत 65-68 के करीब पहुँच रहा है। गौरतलब है कि इस बीच आबादी भी करीब तीनगुने से अधिक ही बढ़ी है।

भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में केवल 10 प्रतिशत 18 से 23 वर्ष के युवा वर्ग वाले शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। विश्र्वस्तर पर यह प्रतिशत करीब 22 है, जबकि विकसित देशों में यह इससे भी अधिक है। भारत सरकार के सामने समस्या यह है कि उसे अपनी आर्थिक विकास दर बनाये रखने के लिए इस 10 प्रतिशत को हर हाल में बढ़ा कर 20-22 प्रतिशत तक ले जाना जरूरी होगा। यह लक्ष्य अपने आप में कठिन है लेकिन अर्थव्यवस्था को नियामक बनाये रखने की दृष्टि से ़जरूरी भी है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अपनी संभावनाओं को देखते हुए सरकार के लिए ़जरूरी है कि वह उच्च शिक्षा क्षेत्र में त्वरित योजनाओं को लागू करे। इससे एक अन्य बिन्दु भी जुड़ता है। भारत में उच्च शिक्षा संस्थानों की कमी के कारण लगभग 80 ह़जार युवा प्रतिवर्ष विदेशों में उच्च शिक्षा ग्रहण करने चले जाते हैं। वहीं भारत में बाहर से उच्च शिक्षा के लिए आने वाले विद्यार्थियों की संख्या प्रतिवर्ष के हिसाब से केवल आठ ह़जार का औसत रखती है। वैसे भी इनमें अधिकांश भारतीय मूल के ही लोग होते हैं।

सरकार को उच्च शिक्षा के न सिर्फ संस्थान बढ़ाने हैं, बल्कि उसकी गुणवत्ता को भी श्रेष्ठ स्तर पर लाना है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने स्वयं पिछले दिनों के एक वक्तव्य में इसकी ़जरूरत बतलाई है। उन्होंने कहा कि भारत के दो तिहाई विश्र्वविद्यालय तथा 90 प्रतिशत महाविद्यालय गुणवत्ता के मानक-बिन्दु से बहुत नीचे अपना कार्य निष्पादन कर रहे हैं। उन्होंने विश्र्वविद्यालयों के पाठ्यामों में व्यापक रूप से बदलाव करने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा है कि तभी हमारे युवा ज्ञान और कौशल के क्षेत्र में विश्र्वस्तरीय प्रतिस्पर्धाओं में अपने लिए स्थान बना सकेंगे। अभी तक हमें अगर वैश्र्विक स्तर पर समुचित भागीदारी नहीं मिली है तो उसका एकमात्र कारण उच्च शिक्षा में स्तरीय गुणवत्ता का अभाव है। इस बात को सरकार भी स्वीकार करती है और राष्टीय ज्ञान आयोग भी। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता कौशलों की कमी एक बड़ी असफलता का बिन्दु रहा है। इस दृष्टि से उच्च शिक्षा में युवावर्ग की भागीदारी को 22 प्रतिशत से आगे लाना ही होगा। राष्टीय ज्ञान आयोग ने इसे 15 प्रतिशत तक लाने के लिए अनेक सुझाव दिये हैं। उधर सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अनेक नई संस्थाओं की स्थापना की घोषणा कर सही दिशा में कदम बढ़ाया है। इसके अनुसार तकनीकी तथा प्रबंधन के संस्थानों की संख्या दोगुनी की जा रही है। इसके अलावा 30 नये केन्द्रीय विश्र्वविद्यालय भी स्थापित किये जायेंगे। सरकार के अतिरिक्त शिक्षा का क्षेत्र निजी निवेशकों को भी आमंत्रित कर रहा है। लेकिन ये निवेशक अपने संस्थानों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त रखना चाहते हैं। सरकार अपने नियंत्रण में ढील देने को तो तैयार है, लेकिन वह पूर्ण रूप से इन्हें नियंत्रण-मुक्त रखने को तैयार नहीं है। पिछले कई वर्षों से शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा का क्षेत्र एक गंभीर समस्या से जूझ रहा है। सर्वोच्च गुणवत्ता वाले संस्थानों तथा केन्द्रीय विश्र्वविद्यालयों में भी अध्यापकों की भारी कमी है। वहीं राज्यों के विश्र्वविद्यालयों की हालत और खराब है। अब 27 प्रतिशत आरक्षण लागू होना है। इसके लिए शैक्षिक संसाधनों के अलावा भारी मात्रा में अन्य संसाधन भी विकसित करने होंगे। यह भी सही है कि सिर्फ भारत सरकार से “चेक’ पा लेने से न तो अध्यापक मिल पायेंगे, न प्रयोगशालायें बनेंगी और न ही विद्यार्थियों के लिए पुस्तकालय और छात्रावास निर्मित किया जा सकेगा। लेकिन आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय की मुहर लग जाने के बाद इसे क्रियान्वित करना भी बहुत जरूरी है। वैसे इस संदर्भ में संस्थाओं को एक-दो साल का समय अतिरिक्त मिल गया होता तो गुणवत्ता के ह्रास से बचा जा सकता था। नौकरशाही शायद इन तथ्यों को “मैटर्स ऑफ डिटेल्स’ कह कर टाल भी सकती है। परंतु आईआईटी और आईआईएम कई बार अपनी स्वायत्तता को पूरी तरह भुला कर केवल आदेशों का अनुपालन करने में लग जाते हैं। यदि ऐसा न होता तो क्या राजस्थान के लिए स्वीकृत आईआईटी के लिए इस वर्ष के प्रवेश प्रबंधन तथा पढ़ाई का उत्तरदायित्व आईआईटी कानपुर संभाल लेने के लिए तैयार हो जाता? जो पुराने संस्थान अपनी वर्तमान व्यवस्था को अपूर्ण मान रहे थे और आरक्षण का बोझ उठा रहे थे वे इस व्यवस्था को स्वीकार कर गुणवत्ता का कौन-सा उदाहरण देश के सामने प्रस्तुत करेंगे? अब कौन-सी नियामक संस्था किसी निजी विश्र्वविद्यालय या महाविद्यालय पर संसाधनों की कमी का आरोप लगा कर अंकुश लगा सकेगी? डीम्ड विश्र्वविद्यालय तथा निजी प्रबंधन के विश्र्वविद्यालय बहुत कुछ कागजों पर ही स्थापित हैं। वे नियामक संस्थाओं से प्रमाणपत्र हासिल करने की कला से बहुत अरसे से परिचित हैं।

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